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बीते चंद सालों में सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर 'अवमानना' के हमलों की जैसी बाढ़ आयी है क्या उसे रोके जाने की दिशा में सरकार सचमुच गंभीर है? क्या वह अवमानना के मामलों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर देगी? अगर उसने अपने 'सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय' द्वारा गठित सलाहकार समिति की सिफारिशों को मान लिया तो ऐसा हो भी सकता है। उक्त समिति का गठन गत वर्ष 'वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स' के आकलन से भारत सरकार की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई छीछालेदर के सन्दर्भ में किया गया था।
'समिति' ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में सरकार को सुझाव दिया है कि किसी भी रिपोर्टर या संपादक की रिपोर्ट या फोटोग्राफ़ के प्रकाशन पर वह पुलिस के लिए एफआईआर दायर करने से पहले 'प्रेस कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया' की सहमति को अनिवार्य (मेंडेटरी) बना दे। उसने 'प्रेस कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया' को 'मीडिया कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया बनाये जाने की सिफ़ारिश की है ताकि इसे सम्पूर्ण मीडिया की देखभाल की एजेंड़ी बनाया जा सके जिसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया के अलावा सभी दैनिक समाचार पत्र- पत्रिकाएं, ई न्यूज़पेपर, न्यूज़ पोर्टल, सोशल मीडिया और समाचारों से जुड़े सभी मंच सम्बोधित ही सकें। 'समिति' की उक्त सिफारिशें गत माह सोशल मीडिया की नकेल डालने को घोषित सरकार की विवादस्पद सोशल मीडिया नीति से मिलती जुलती हैं। 15 सदस्यीय उक्त समिति के अध्यक्ष 'प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो' के प्रमुख महानिदेशक कुलदीप सिंह धतवालिया थे। इसके कुल सदस्यों में से 10 सरकारी अधिकारी थे। रिपोर्ट में भारतीय मिडिया की भूमिका को सराहा गया है, साथ ही पश्चिमी देशों की उक्त राय को ज़मीनी हक़ीक़त से बेमेल माना गया है लेकिन 'समिति' ने पत्रकारों के विरुद्ध होने वाली एफआईआर और आपराधिक मुक़दमों की बढ़ती कार्रवाईयों पर चिंता प्रकट की है और इन्हें मीडिया के विरुद्ध आक्रमण माना है।
इसके बावजूद 'इंडेक्स मॉनिटरिंग सैल' कही जाने वाली उक्त समिति के सदस्यों में पी साईनाथ जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं जिन्होंने 'समिति' की रिपोर्ट के कई बिंदुओं पर गंभीर असहमति दर्ज कराई है। उनकी मान्यता है कि प्रेस स्वतंत्रता के मामले में 'असहमति का अधिकार' केंद्रीय फोकस का विषय होना चाहिए। अपने 12 पेज के 'असहमति नोट' में साईनाथ ने लिखा है कि आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ख़तरा है और सरकार से असहमित रखने वाले पत्रकारों के लिए अघोषित आपातकाल की स्थिति पैदा हो गई है। प्रेस की आज़ादी को बचाने के लिए समिति की सिफारिशों में ज़मीनी स्तर पर कुछ भी नहीं कहा गया है।
साईनाथ का कहना है कि सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में कॉरपोरेट मीडिया घरानों की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई है और पत्रकारों को मनमर्जी नौकरी से निकालने और दबाव डाल कर उनसे ज़बरन इस्तीफ़ा लिखवाने जैसे मुद्दों पर समिति चुप है। उनका यह भी कहना है कि लॉकडाउन लगाते समय प्रेस को आवश्यक सेवा के तहत रखा गया, इसके बावजूद नौ मामलों में उन्हें नोटिस दिया गया और 22 मामलों में उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार किया गया। अपने असहमति पत्र में उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि कप्पन सिद्दीक़ी जैसे तमाम पत्रकारों को जेल से रिहा किया जाना चाहिए और पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज कराई गयी एफ़आईआर वापस ली जानी चाहिए। मीडिया से जुड़े 52 क़ानूनों में होने वाली कार्रवाईयों का हवाला देते हुए वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाने के ब्रिटिश जमाने में बने औपनिवेशिक क़ानूनों का इस्तेमाल बंद .होना चहिये। उन्होंने क़ानूनी मदद की सलाह देते हुए इस उद्देश्य से एक क़ानूनी संगठन के गठन की ज़रुरत पर भी ज़ोर दिया।
याद रहे कि पेरिस स्थित 'वर्ल्ड प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक' (डब्ल्यूपीएफआई) की गत वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट में इस मामले में भारत को 180 देशों की सूची में 142 वें नंबर पर रखा गया था जो बेहद चिंताजनक है। इस वर्ष भी अमेरिका स्थित 'फ्रीडम हाउस' द्वारा जारी 2021 की हालिया रिपोर्ट में भारत का स्थान 'स्वतंत्र देशों' की सूची से गिरकर 'आंशिक स्वतंत्र' देशों की सोच में आ गया है। कुछ ही ऐसे देश बचे हैं जहाँ अवमानना अभी भी आपरधिक क़ानून बना हुआ है। शेष दुनिया में इसे प्रेस स्वातंत्र्य के लिए 'खतरा' माना जाता है। बेशक मोदी सरकार को ख़ुद के लोकतान्त्रिक बने रहने की फ़िक्र हो या न हो, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतान्त्रिक चोले में दिखना उसकी कूटनीतिक आवश्यकता बन गयी है।
विशेषकर जिस तरह से अमेरिका का बाइडन प्रशासन विकासशील दुनिया के देशों पर आर्थिक और दूसरी मदद के लिए मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु दबाव डाल रहा है, मोदी प्रशासन के लिए यह एक बड़ी ज़रुरत बन चुका है। 'समिति' को लेकिन जिस तरह सरकारी बाबुओं पर आश्रित बनाया गया है और जिस तरह प्रेस स्वतंत्रता के सवाल पर उसकी गोल-मोल सिफारिशें आयी हैं, वे यदि लागू हो भी जाती हैं तो सरकार अपने कूटनीतिक आचरण को लेकर पश्चिमी देशों की राय में किसी प्रकार का परिवर्तन हासिल कर पाने में कामयाब हो सकेगी, इसमें संदेह है।