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दिल्ली का पहला प्यार – कनॉट प्लेस से जुड़ी जरूरी बातें, जिन्हे आप नहीं जानते!
विवेक शुक्ला
एक सपना पूरा हुआ. सपना था कनॉट प्लेस पर किताब लिखने का. इससे 1970 के आसपास रिश्ता बना था। जब तक ज़िंदगी है, तब तक कनॉट प्लेस से आत्मीय संबंध बने रहने का भरोसा है। इसने आनंद और सुख के भरपूर पल दिए हैं। कनॉट प्लेस पर किताब लिखते हुए कोशिश रही कि बात सिर्फ इसकी दीवारों, बरामदों, शोरूम्स, विंडो शॉपिंग तक ही सीमित ना रह जाए, यहां के पेड़ों, परिंदों, शख़्सियतों, सड़कों वग़ैरह के साथ भी इंसाफ़ किया जाए। अब यह आप ही बताएं कि किताब पढ़ते हुए कनॉट प्लेस उन्हें कितना अपना-सा लगा।
कनॉट प्लेस पर किताब लिखने का बहुत पहले फैसला कर लिया था। सोचता था कि इस पर तो आराम से लिख लूंगा। आखिर इससे आधी सदी का रिश्ता जो है। पर इस पर काम करते हुए चौंकाने वाले नए-नए तथ्य सामने आने लगे। जैसे कि कनॉट प्लेस का शहीदे-ए-आजम भगत सिंह से भी संबंध रहा, गांधी जी का इससे रिश्ता बना 1942 के बाद तथा गांधी जी का हत्यारा नाथूराम गोडसे यहां के एक होटल में ठहरा हुआ था। उन्हें मारने के लिए वह यहां से ही टैक्सी पर तीस जनवरी मार्ग गया था। गांधी जी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी कनॉट प्लेस में ही रहते थे। जाहिर है, इन पहलुओं पर लिखा गया.
- रोबर्ट रसेल टोर ने कनॉट प्लेस को डिजाइन किया था। उन्होंने वेस्टर्न कोर्ट- ईस्टर्न कोर्ट, तीन मूर्ति, सफदरजंग एयरपोर्ट को भी डिजाइन किया था. टोर पर बहुत मन से लिखा है।
-राम मनोहर लोहिया का कनॉट प्लेस से बेहद आत्मीय संबंध रहा। उन्होंने यहां सैकड़ों घंटे बिताए थे। उनकी शवयात्रा सीपी से ही गुजरी थी।
-आपको कनॉट प्लेस में चीनी और तिब्बती भी मिलेंगे। यहां पर दोनों में कोई कटुता नहीं है। इसी कनॉट प्लेस में 'अल्लाह, भगवान और गॉड' के घर भी हैं। इस विषय पर एक अलग से चैप्टर ही है।
-कनॉट प्लेस 1942 और फिर 1984 में जला था। यहां 1984 में सिखों के शो- रूम फूंके गए थे। उन्हें मारा गया था। मैंने अपनी आंखों से उस डरावने मंजर को देखा था। जाहिर है, 1942 और 1984 में जले सीपी पर तफसील से बात हुई है।
- यहां के कॉफी हाउस पर लिखा चैप्टर पाठकों को अवश्य पसंद आएगा. जिधर अब पालिका बाजार आबाद है , वहां होता था कॉफी हाउस.
-एंग्लो इंडियन समाज का तो मानो दूसरा घर ही है कनॉट प्लेस।
-केरल के देश के नक्शे में आने से पहले यहां पर केरल ने दस्तक दे दी थी।
-कनॉट प्लेस अधूरा ही रहेगा अगर चर्चा शंकर मार्केट, सुपर बाजार, पालिका बाजार, मोहन सिंह प्लेस, जनपथ वगैरह की नहीं होगी।
- कनॉट प्लेस से ही चलती थीं दिल्ली से लंदन जाने और फिर वहां से आने वाली बसें। उनमें कौन सफर करता था ?
-कौन सा बड़े से बड़ा बॉलीवुड का सितारा होगा जो कभी ना कभी रीगल, रिवोली, प्लाजा या ओडियन नहीं आया होगा।
-सैकड़ों बैंक और एटीएम हैं कनॉट प्लेस में। इसी कनॉट प्लेस को छूती एक बिल्डिंग में देश का चर्चित बैंक घोटाला- 'नागरवाला बैंक घोटाला' हुआ था।
-कनॉट प्लेस के जायकों, रेस्तराओं, कैबरे रेस्तराओं, पानवालों, बरामदों में अखबार-मैगजीन बेचने वालों, मशहूर शो-रूमों, किस्सों, कहानियों वगैरह को तो जगह मिली ही है । इस पर रिसर्च करते हुए दर्जनों लोगों से लंबी बातें हुई और बात से बात निकलती रही। इतना ही कहूंगा कि मैं इस किताब को लिखने का सुख शब्दों में जाहिर करने में अपने को असमर्थ पाता हूं।
विवेक शुक्ला के इस किताब को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक संजय कुमार सिंह ने कहा कि लिखने से पहले उसके लिए मेहनत करनी होती है और ऐसी मेहनत कई साल लगातार की जाए तो दिल्ली ही नहीं, कनाट प्लेस पर भी एक किताब लिखी जा सकती है।
मुझे लगता है कि कनाट प्लेस मेरे दिल्ली आने के बाद ही बना है उससे पहले क्या रहा होगा। लेकिन अपनी किताब में उन्होंने बहुत सारी ऐसी जानकारी दी है जो मुझे क्या, बहुतों को मालूम नहीं होगी। 'दिल्ली का पहला प्यार - कनॉट प्लेस' दिल्ली में हर साल होने वाले विश्व पुस्तक मेले के मौके पर आई है जो कल ही शुरू हुआ। 130 पेज की यह छोटी सी पुस्तक निश्चित रूप से कनाट प्लेस के हर पक्ष से रू-ब-रू कराएगी और संदर्भ पुस्तक के रूप में काम आएगी। विवेक जी को दिल्ली के पेड़ों, परिन्दों, लोगों, सड़कों, दीवारों को जानना और उनके बारे में लिखना पसंद है और अंग्रेजी व हिन्दी दोनों में लिखते व छपते हैं। अनुमान है कि अब तक दिल्ली से संबंधित भिन्न विषयों लोगों आदि के बारे में 2500 से ज्यादा लेख, फीचर और रिपोर्ट आदि लिख चुके हैं। मैंने उनसे कई बार कहा है कि सबको विषय वार पुस्तक रूप में आना चाहिए। इनकी जानाकारी बार-बार पढ़ने और बताने लायक होती है।
दिल्ली से गांधी जी के संबंधों पर भी वे एक किताब लिख चुके हैं। 2019 में अंग्रेजी में प्रकाशित उनकी इस पुस्तक का नाम है, गांधीज दिल्ली अप्रैल 12 , 1915 - जनवरी 30, 1948 एंड बेयांड। यह भी छोटी सी पर दिलचस्प किताब है और कनॉट प्लेस वाली के मुकाबले आकार में थोड़ी बड़ी पर 112 पन्ने की ही है। इस पुस्तक के बारे में यह बताया गया है कि महात्मा गांधी से संबंधित कई अनजाने तथ्यों को सामने लाने की कोशिश है। इसी क्रम में यह भी कि उनकी भूमिका एक शिक्षक के रूप में भी थी। पुस्तक यह भी बताती है कि पढ़ाने के लिए वे कहां जाते थे। यह भी कि वे बिड़ला मंदिर और दरगाह कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी भी गये थे और इन दोनों धर्मस्थलों की उनकी यात्रा धार्मिक नहीं थी। पुस्तक में यह भी बताया गया है कि दिल्ली, गांधी जी के लिए एक और नोआखली थी। कल्पना कीजिए कि दिल्ली से संबंधित ऐसी जानकारी देने वाले अपने लेखों और रिपोर्टों में विवेक जी का कितना अनुभव होगा।