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मोदीराज में लोकतंत्र पर हुआ अरबपतियों का कब्जा, मध्यवर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान
वर्ल्ड इनीक्वालिटी लैब की आय और संपत्ति में असमानता पर रिपोर्ट में हुआ उद्घाटन- सरकार और कारोबार की मिलीभगत से बढ़ती जा रही हे अमीरों की संपत्ति और बढ़ते जा रहे हैं गरीब
1961 से 2023 के बीच सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में तीन गुना का इजाफा हुआ है, जो 13 प्रतिशत से 39 प्रतिशत है। इसमें सबसे ज्यादा इजाफा 1991 के बाद हुआ जब से लेकर 2022-23 तक सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों की राष्ट्रीय धनसंपदा में हिस्सेदारी लगातार बढ़ती ही रही। हम पाते हैं कि शीर्ष पर भी महज 1 प्रतिशत लोगों के बीच यह पैसा केंद्रित होता गया।
ये आंकड़े प्रतिष्ठित भारत में गैर-बराबरी और अरबपतियों के फैलते राज पर एक रिपोर्ट के हैं जिसे अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने जारी किया है। वर्ल्ड इनीक्वालिटी लैब से जारी इस रिपोर्ट को पिकेटी के साथ नितिन कुमार भारती, लुकास चैन्सल और अनमोल सोमंची ने मिलकर लिखा है।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले दस वर्षों के दौरान भारत में अरबपतियों का राज कायम हो गया है और उदारीकरण के बाद से लेकर अब तक शीर्ष एक प्रतिशत अरबपतियों को हुए लाभ का सबसे ज्यादा नुकसान मध्यवर्ग को उठाना पड़ा है, जो लगभग लापता होने के कगार पर आ चुका है।
अरबपतियों का राज
2022-23 में शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी 39.5 प्रतिशत थी जिनमें से 29 प्रतिशत शीर्ष 0.1 प्रतिशत का हिस्सा हो गए, 22 प्रतिशत 0.01 प्रतिशत में चले गए और 16 प्रतिशत लोग 0.001 प्रतिशत में चले गए।
1991 के बाद से शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में जो लगातार इजाफा हुआ, वह नीचे के 50 प्रतिशत और बीच के 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी की कीमत पर हुआ।
नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी 1961 से 1981 के बीच 11 प्रतिशत पर स्थिर रही, 1991 में वह गिरकर 8.8 प्रतिशत पर आ गई और 2002 में 6.9 प्रतिशत पर आ गई। इसके बाद अगले दो दशक तक यह 6-7 प्रतिशत के बीच मंडराती रही जिसमें बहाली के कोई संकेत नहीं थे।
1961 में नीचे के 50 प्रतिशत और बीच के 40 प्रतिशत का हिस्सा समान था। 2022-23 तक शीर्ष 1 प्रतिशत का हिस्सा नीचे के 50 प्रतिशत के मुकाबले पांच गुने से ज्यादा हो गया। यह निश्चित रूप से बहुत बड़ा अंतर है, लेकिन नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी को तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो 2022 में चीन में यह 6 प्रतिशत, यूके में 5 प्रतिशत और फ्रांस में 5 प्रतिशत था, जबकि अमेरिका में यह 1 प्रतिशत था जो भारत से काफी कम है।
उच्च वृद्धि और बढ़ती असमानता वाले उदारीकरण के बाद के वर्षों में बीच के 40 प्रतिशत यानी मध्यवर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। इसकी आंशिक वजह यह हो सकती है कि चूंकि नीचे वाले 50 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी उदारीकरण की शुरुआत में इतनी कम थी (1991 में 9 प्रतिशत) कि बाद के वर्षों में शीर्ष 10 प्रतिशत की झोली में जो भी गया, वह बीच के 40 प्रतिशत की कीमत पर ही आ सकता था।
1961 से 1981 के बीच मध्यवर्ती 40 प्रतिशत और ऊपर के 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी तकरीबन समान थी (40 से 45 प्रतिशत के बीच), लेकिप बाद के तीन दशकों में ऊपर वाले 10 प्रतिशत का हिस्सा तेजी से चढ़ा जबकि बीच वाले 40 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी उनके चलते 2012 में गिरकर 31 प्रतिशत पर आ गई। 2018 में यह मामूली 1 प्रतिशत बढ़कर 32 प्रतिशत हुई, फिर बीते पांच साल में लगातार गिरते हुए 2023 में 29 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है।
बढ़ती असमानता
रिपोर्ट कहती है कि अमीरों और गरीबों के बीच नरेंद्र मोदी के राज में असमानता लगातार फैली है। असमानता के संदर्भ में मोदी के शासनकाल को तीन चरणों में बांटा जा सकता है: 2014-2017, 2018-2020 और 2021 के बाद का समय। पहले चरण में अर्थव्यवस्था मध्यम गति से बढ़ रही थी और आय तथा संपत्ति दोनों की गैर-बराबरी भी लगातार बढ़ रही थी। दूसरे चरण में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार काफी कम हो गई और 2020 में गोता मार गई।
तीसरे चरण में जब लॉकडाउन को हटा लिया गया और कोविड-19 के आर्थिक प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगे, हम पाते हैं कि अर्थव्यवस्था में शीर्ष तबके की हिस्सेदारी 2021 और 2022 में अपने उच्चतम रुझान की ओर वापस लौटती है जबकि निचले तबकों की हिस्सेदारी वापस गिर कर 2014 के स्तर पर पहुंच जाती है। 2014 से 2022 के बीच आय और संपत्ति की वृद्धि का कर्व देखें, तो हम पाते हैं कि हाल के वर्षों में असली लाभार्थी सबसे अमीर लोग रहे यानी शीर्ष के 1 प्रतिशत और उसके आसपास के लोग। यानी सबसे ऊपर के तबके में धन का संकेंद्रण होता गया।
एक और दिलचस्प आयाम जो ध्यान देने योग्य है, कि आय और संपत्ति दोनों के ही मामले में इस अवधि में बीच की 40 प्रतिशत आबादी ने ऐसा लगता है कि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के मुकाबले धीमी वृद्धि की है। संभव है कि यह ‘भारत के लापता मध्यवर्ग’ की परिघटना में तेजी आने का संकेत हो।
अर्थव्यवस्था मंद
रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मोदी के शासन के वर्षों में आर्थिक वृद्धि बहुत सुस्त रही है- आय में साल-दर-साल वृद्धि की दर 2015 के 6 प्रतिशत से घटकर 2016 में 4.7 प्रतिशत, 2017 और 2018 में 4.2 प्रतिशत और नाटकीय रूप से 2019 में 1.6 प्रतिशत रह गई। यह आंकड़े कोविड-19 महामारी के आने से पहले के हैं। अगले साल 2020 में आय सीधे 9 प्रतिशत गोता मार गई।
सरकारी आंकड़ों पर आधारित अनुमान बताते हैं कि 2017-18 तक बीते एक दशक के दौरान बचत और निवेश की दर स्थायी रूप से घटती रही थी। निर्यात 2014-15 से ही गिरने लगा था और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण और उद्योग का हिस्सा 2013 से 2018 के बीच गतिरोध का शिकार रहा। बेरोजगारी की दर, खासकर युवाओं में (15 से 29 वर्ष) 2011-12 से 2017-18 के बीच जबरदस्त रूप से बढ़ी। विभिन्न क्षेत्रों में वेतन-भत्ते पिछले एक दशक के दौरान कमोबेश स्थिर रहे हैं।
आर्थिक मंदी का एक अन्य संभावित कारण ‘नोटबंदी’ का कड़ा झटका था जो नवंबर 2016 में अर्थव्यवस्था को लगा, जब करीब 86 प्रतिशत मुद्रा रातोरात बेकार हो गई। यह कदम कथित रूप से ‘काले धन’ के खिलाफ उठाया गया था लेकिन माना जाता है कि इसका असमान रूप से कहीं ज्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र, लघु और मझोले कारोबारों व गरीबों पर पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक लघु आवधिक जीडीपी 2 प्रतिशत गिर गई।
मोदी सरकार ने बेशक आवास, शौचलय, बिजली और बैंकिंग जैसे बुनियादी ढांचा लाभों को विस्तारित करने के लिए निवेश किया, जिसे कुछ लोगों ने ‘भारत के दक्षिणपंथ का नया कल्याणकारी’ मॉडल कहा है लेकिन यह साफ नहीं है कि इन निवेशों ने बाजार में क्रय शक्ति को सुधारने का काम किया या नहीं। इसके अलावा, हाल के वर्षों में एनएसएसओ के उपभोग सर्वेक्षण के अभाव में यह भी अस्पष्ट है कि भारत ने अत्यधिक गरीबी को कम करने में कितनी प्रगति की है।
उपभोग-व्यय सर्वेक्षण 2022-23 का एक प्राथमिक तथ्यपत्रक हाल ही में सार्वजनिक किया गया था, हालांकि इसमें की गई तुलनाओं और अनुमानों को लेकर संदेह कायम है।