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23 जनवरी, जयंती पर विशेष: देश का नेतृत्व नेताजी का मूल्यांकन करने में नाकाम रहे - ज्ञानेन्द्र रावत
जंगे आजादी के सर्वशक्तिमान पुरोधा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के राष्ट्र्ीय आंदोलन में दिए गए योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने न केवल गांधीजी को चुनौती दी बल्कि उनके विरोध के बावजूद वे कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर निर्वाचित भी हुए। जब उन्होंने यह समझ लिया कि अहिंसा के रास्ते चलकर आजादी हासिल नहीं हो सकती तो उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की खातिर न केवल देश छोड़ा बल्कि जर्मन व जापानी मित्रों के सहयोग से भारतीय सैनिक बंदियों व सैनिक शक्तियों को संगठित कर 'आजाद हिंद फौज' की स्थापना की। भले ही जापान के सहयोग-समर्थन से उनकी आजाद हिंद फौज बर्मा के मोर्चे पर बरतानिया हुकूमत की फौजों से लोहा न ले सकी और उनका लाल किले पर झंडा फहराने का सपना पूरा नहीं हुआ लेकिन आजादी की लड़ाई में उनका और उनके हजारों वीर सैनिकों का अकथनीय योगदान भारतीयों के लिए मात्र एक प्रेरणाप्रद अध्याय नहीं है, बल्कि वह अमूल्य थाती भी है जिस पर हरेक देशवासी को गर्व है। यहां यह गौरतलब है कि यदि आजाद हिंद फौज भारतीय नागरिकों के विशाल समर्थन के बलबूते लालकिले पर झंडा फहराने में कामयाब हो जाती तो 15 अगस्त 1947 को सौदेबाजी और मुल्क के बंटवारे की कीमत पर मिली आजादी शानदार आजादी होती और मुल्क का नक्शा ही कुछ और होता। यहां इस बात पर भी मतभेद हो सकते हैं कि यदि उस समय हिटलर-तोजो-मुसोलिनी की तिकड़ी कामयाब हो जाती तो क्या हिंदुस्तान की संप्रुभता सुरक्षित रह पाती? लेकिन महान सेनानी, देशभक्त सुभाष बाबू के चरित्र, उनकी दृड़ता एवं स्वतंत्रता की श्रीदेवी के चरणों में स्वयं को उत्सर्ग करने की उत्कट अभिलाषा को देखकर बिना शक इस बात को कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर नेताजी किसी भी कीमत पर जर्मनी या जापान के आगे नतमस्तक न होते। वह बात दीगर है कि देश की सत्ता पर काबिज रहा नेतृत्व उनका मूल्यांकन करने में नाकाम रहा लेकिन देश की जनता ने उनका मूल्यांकन जरूर किया और उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया।
आज देश उनकी 121वीं जयंती मना रहा है लेकिन विडम्बना कहें या देश की राजनीति की त्रासदी कि आज भी सुभाष बाबू की मौत का रहस्य अनसुलझा है और अब सरकार इस मुद्दे पर ज्यादा माथा-पच्ची करना नहीं चाहती। उसने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर अपना मंतव्य जाहिर कर दिया है। लेकिन नेताजी के एक समय ड्र्ायवर और अंगरक्षक रहे उत्तर प्रदेश के शहाबुद्दीनपुर गांव निवासी निजामुद्दीन ने 11 साल पहले इस बात का खुलासा कर दिया था कि नेताजी तो उस विमान में थे ही नहीं, जो ताइपेह में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। क्योंकि अंतिम समय में नेताजी ने विमान में सवार होने का अपना इरादा बदल दिया था। निजामुद्दीन के अनुसार 1946 में थाईलैंड में एक नदी के पुल पर उनकी नेताजी, जिन्हें वह प्यार और आदर से 'बाबू' कहा करते थे, से उनके भाई शरतचन्द्र बोस के साथ भेंट हुयी थी। उस दौरान उनकी नेताजी के बीच, नेताजी की 'कथित मौत' पर भी चर्चा हुयी थी। तब नेताजी ने उन्हें बताया था कि किस तरह भारतीय नेता उनकी मौत के नाम पर राजनीति कर रहे हैं। इसमें ब्रिटेन और अमरीकी सरकारों का भी हाथ था। उस समय भारतीय नेताओं से बेहद दुखी नेताजी ने कहा था कि-' जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा।' यह मुलाकात नेताजी से उनकी आखिरी मुलाकात थी। निजामुद्दीन के अनुसार नेताजी को साहब कहलाना कतई पसंद नहीं था और सभी उन्हैं बाबू कहा करते थे। वह मलय के एक शासक द्वारा नेताजी को भेंट में दी गई 12 सिलेंडर वाली कार के ड्र्ायवर थे। बाद में उन्हैं नेताजी का अंगरक्षक भी बना दिया गया था। नेताजी से इस मुलाकात के बाद बर्मा में ही बस गए निजामुद्दीन बर्मावासियों के व्यवहार से दुखी होकर 1969 में ढकुआ लौट आए और यहीं रहने लगे।
इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि नेताजी प्रख्यात बांग्ला लेखक, साहित्यकार एवं उपन्यासकार शरत चन्द्र से बहुत प्रभावित थे, बल्कि उनका बहुत सम्मान भी करते थे। सच में शरत चन्द्र उनके आदर्श थे और प्रख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस उनके प्रेरणा पुरुष। शरतजी की बात उनके दिलोदिमाग में बैठ गई थी कि -'जब भीख मांगकर पेट भरना संभव नहीं, तब भीख मांगकर स्वतंत्रता प्राप्त करना कहां तक संभव है? इसमें दो राय नहीं कि सुभाष बाबू के राजनीतिक मतवाद पर शरत चन्द्रजी की तेजस्वी व भाव प्रवण विचार धारा का बहुत ही असर पड़ा और यह सच भी है कि नेताजी के विप्लवी विचार शरतजी की प्रेरणा से ही जन्मे थे। और जब अंग्रेजों ने सुभाष बाबू को प्रेसीडेंसी जेल में डाल दिया और वहां उन्होंने अनशन कर दिया। उससे वह काफी कमजोर हो गए थे और लाख कोशिशों के बाद भी वह अनशन तोड़ने पर राजी नहीं थे। तब इसकी जिम्मेवारी शरतजी पर डाली गयी। शरतजी सुभाष बाबू के पास गए और कहा कि -'' खून की होली खेलने वाला वीर जीवन से क्यों मुंह मोड़ रहा है। मरना है तो वीरों की तरह मरो। कायरों की तरह नहीं। सारा देश तुम्हारी तरफ देख रहा है। आज मैं तुम्हारा व्रत तोड़ूंगा। मुझे निराश नहीं करना।'' यह सुनकर सुभाष बाबू चुप हो गए और शरतजी के हाथ से संतरे का जूस पीकर अनशन तोड़ा। इसके कुछ ही दिन बाद समाचार पत्रों में यह समाचार प्रकाशित हुआ कि 26 जनवरी 1941 को सुभाष अपने देश को स्वतंत्र कराने के उद्देष्य से देश के बाहर जा चुके हैं। यह सच है कि सुभाष बाबू भी रास बिहारी बोस, मौलाना बरकतउल्लाह खान की तरह एक बार देश की आजादी और उसके लिए अपना सर्वस्व होम करने का सपना लेकर देश से बाहर जाने के बाद फिर दोबारा देश वापस नहीं लौट सके और शरतजी का सपना भी वह खुद साकार नहीं कर सके । लेकिन लक्ष्य और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किए गए उनके संघर्ष को देशवासी कभी नहीं भुला पायेंगे। भारतीय इतिहास में उनका नाम स्वर्णाच्छरों में लिखा रहेगा।