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देश में आदिवासियों की नियति बन गया है विस्थापन - ज्ञानेन्द्र रावत
बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने 13 फरवरी को 21 राज्यों के 11.8 लाख वनवासियों और आदिवासियों को बेदखल किये जाने सम्बंधी आदेश पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि जंगल की जमीन पर इन वनवासियों के दावे को अधिकारियों द्वारा खारिज कर दिये जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी उसे मान्यता दे दी गई थी। अब न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और एम.आर.शाह की पीठ ने 11.8 लाख आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों की संभावित बेदखली पर रोक की मांग करने वाली केन्द्र सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि वे वनवासियों के दावे अस्वीकार किए जाने के बाबत अपनायी गई प्रक्रिया के विवरण के साथ कोर्ट में हलफनामे दायर करें। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि अब वह इस मामले की सुनवाई आगामी 10 जुलाई को करेगी। कोर्ट इस बाबत नाराज थी कि 13 फरवरी के निर्देश के बाद उसे अब कोर्ट आने की सुध कैसे आई। यहां यह जान लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को दिये अपने पहले आदेश में कहा था कि वे कानून के अनुसार वहां आदिवासियों से जमीनें खाली करायें। इसके बाद ही केन्द्र ने राज्य सरकारों से प्रभावितों की जानकारी मांगी थी। अब जनजाति विकास मंत्रालय के सचिव दीपक खांडेकर कहते हैं कि अबतक जंगल में 19 लाख पट्टेदारों को कायम रखा गया है। इस बाबत राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर मांग की है कि केन्द्र सरकार वन अधिकार कानून 2006 में आवश्यक संशोधन करे ताकि वन क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों को उनके कानूनी अधिकार दिलाने में आ रही बाधाओं को दूर किया जा सके ताकि आदिवासी-वनवासी विस्थापन की मार से बच सकें। यह सच है कि इस कानून के तहत आदिवासियों और वन क्षेत्र में रहने वालों को जल, जंगल और जमीन के अधिकार दिये गए हैं। लेकिन अब उन्हें उसी से बेदखल किया जा रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि आर्य संस्कृति यानी अरण्य संस्कृति इसे यदि स्वदेशी जीवन शैली भी कहें तो गलत नहीं होगा, वह हमारी पहचान रही है। अरण्य संस्कृति का अक्षुण्ण रहना ही हमारी संस्कृति और स्वदेशी जीवन शैली की पहचान है। लेकिन आज वही संकट के दौर से गुजर रही है। असलियत में आज विविधता में एकता का जीवन सिद्धांत खतरे में है। नतीजन जैव विविधता, आदिवासियों, वनों और वन्य जीवोें को ही नहीं, सभी को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। वन्य जीवों का आदिवासियों से और आदिवासियों का वृक्षों और वनों से जो पारंपरिक आपसी सम्बन्ध था, उसमें बिखराव और टकराव नजर आ रहा है, वन्य जीवों की असंख्य प्रजातियों का विलुप्त होना और वनों का विनाश यह सब उसी की परिणति है। आज देश की आबादी में आठ फीसदी हिस्सा रहने वाले आदिवासी आजादी के 71 साल बाद भी शोषित, पीडि़त और उत्पीडि़त हैं। इसमें एक तो भारत के वन एवं वन्यजीव संरक्षण से जुड़े औपनिवेशिक सरकारी कानूनों जो पश्चिम की उस अवधारणा पर आधारित हैं जिसमें कहा गया है कि मानव और मानवेत्तर प्रजातियां एक साथ कदापि नहीं रह सकतीं लिहाजा जंगल में मनुष्यों का वास नहीं रहना चाहिए। उसके अनुसार जैव विविधता तभी सुरक्षित रह सकती है जबकि जंगल में मानवीय हस्तक्षेप न हो, की अहम् भूमिका है और दूसरी उन बाहरी व्यावसायिक शक्तियों की जिन्होंने इन तीनों यानी जंगल, जंगल में रहने वाले जंगली जीव और आदिवासियों का भरपूर शोषण-दोहन किया है, का भी महत्वपूर्ण योगदान है। फिर हमारी सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की खातिर बिना वनों और पर्यावरण की क्षति का सही आकलन किए जिस तेजी से विकास यज्ञ में वनों के कटान और वहां रह रहे आदिवासियों को हटाने की अनुमति दी,उसका सबसे बड़ा खामियाजा वन, वनवासी और वन्य जीवों को उठाना पड़ा। गौरतलब यह है कि ऐसी स्थिति में न संस्कृति, न उसकी पहचान, न जंगल, जंगली जीव और आदिवासियों-वनवासियों की रक्षा की बात कैसे की जा सकती है। यदि आदिवासी नहीं रहेंगे तो जंगल भी तो नहीं बचेंगे। उस हालत में वन्य जीवों आदि के संरक्षण की बात सोचना तो दीगर है, मानव जीवन की रक्षा की बात सोचना भी बेमानी है। जबकि संरक्षण आधारित आर्थिक जीवन-यापन की वजह से ही आदिवासी और जंगल बचे हैं।
दरअसल आज उन्हीं जंगल के वासियों पर जंगल से बेदखली की तलवार लटक रही है। क्योंकि बीती 13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी आदेश के तहत जंगलों में रहने वाले आदिवासियों-वनवासियों को निकालने के लिए कहा गया था जिनका जंगल की जमीन पर दावा नहीं बनता। आदेश में कहा गया है कि वे अपने को जंगल का वासी होने का दावा साबित करने में नाकाम रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों में रहने वाले तकरीब 11 लाख से भी ज्यादा लोगों की जंगल की जमीन पर दावेदारी को खारिज कर दिया है। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों से कहा है कि इस मामले की अगली 27 जुलाई को होने वाली सुनवाई से पहले इन जंगलों को इनमें रहने वाले आदिवासियों-वनवासियों से खाली करवा लिया जाये। यदि इसके बाद भी वे वहां काबिज रहते हैं तो उन्हें अनधिकृत कब्जेदार माना जायेगा। दरअसल इन्हें 'आदिवासी तथा अन्य वनवासी, जंगल के अधिकार की मान्यता एक्ट-2006 के तहत अपना दावा सिद्ध करना था। अपने आदेश में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इन्द्रा बनर्जी की पीठ ने उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, मणिपुर और पश्चिम बंगाल समेत 20 राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा है कि वे आदेश की अनुपालना रिपोर्ट जुलाई में पेश करें। साथ में वह यह भी बतायें कि वनवासियों को यानी दावे खारिज होने के बाद अभी तक इन घुसपैठियों को क्यों नहीं निकाला गया है। यदि दावा खारिज होने वालों को अब भी नहीं निकाला गया तो इसे गंभीरता से लिया जायेगा।
गौरतलब है कि वनाधिकार कानून दो किस्म के लोगों को जंगल में रहने का अधिकार देता है। एक तो वह जो आदिवासी हैं और जंगल में रहते हैं और दूसरे वह जो वनवासी हैं और जंगल के उत्पादों पर पिछले 75 सालों से निर्भर हैं। यह कानून 2006 में बना था जो वनवासियों को जंगल में रहने का अधिकार देता है। यह अंग्रेजों के जमाने में बने वन कानून की जगह लेने के लिए बनाया गया था। उस समय कई संगठनों ने इस कानून की वैधता को ही चुनौती दी। उनके विरोध के बाद उन लोगों की पहचान का काम शुरू हुआ जिनकी जंगलों पर दावेदारी बनती थी। बीते साल नवम्बर महीने तक तकरीब 42 लाख लोगों ने अपनी दावेदारी पेश की थी जिसमें से समीक्षा किये जाने के बाद 19 लाख लोगों की दावेदारी खारिज कर दी गई। जबकि 18 लाख की दावेदारी को वैध माना गया। दावेदारी खारिज होने वालों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक 27 जुलाई तक देश के 17 राज्यों को जंगल की जमीन खाली करानी है। देखा जाये तो राज्यों ने 40 लाख परिवारों की तीन स्तरों पर वैरीफिकेशन कराया था। उनमें से इन 11 लाख आदिवासियों-वनवासियों का जंगल की जमीन पर मालिकाना हक नहीं पाया गया। ये वैरीफिकेशन में 13 जरूरी दस्तावेजों में से एक भी पेश करने में नाकाम रहे।
हकीकत यह है कि ये बेचारे दस्तावेज लाये ंतो लायें कहां से। सदियों से ज्रगलों को अपना घर मानने वाले और वहीं अपनी जिंदगी गुजारने, उसे खत्म कर देनेे वाले इन वनवासियों के पास तो कुछ है ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सबसे ज्यादा असर मध्य प्रदेश, कर्नाटक और ओडिसा में होगा। जैसा दावा किया जा रहा है उसके अनुसार वनभूमि पर सबसे ज्यादा अतिक्रमण मध्य प्रदेश और ओडिसा के जंगलों में है जहां क्रमशः साढ़े तीन लाख और डेढ़ लाख लोगों के वनाधिकार दावे खारिज हुए हैं। इन लोगों को घुसपैठिया या अतिक्रमणकारी साबित करना बेहद आसान है क्योंकि इनके भूमि अधिकार का मालिकाना हक रिकार्ड में है ही नहीं। इनको उनके घरों से बेदखल करना कोई नई बात नहीं है। 2002 से 2004 के बीच तकरीब 3 सवा तीन लाख आदिवासियों को उनके घरों से बेदखल किया जा चुका है। अब फिर वही स्थिति बन रही है। ऐसा लगता है विस्थापन इनकी नियति बन चुका है। सच यह भी है कि इनसे किसी को कोई नुकसान तो है ही नहीं, जबकि सभ्य कहे जाने वाले समाज ने सदैव ही इनका शोषण-उत्पीड़न-दमन किया है और ये हमेशा उनके स्वार्थ के शिकार होते रहे हैं। हमेशा की तरह ही इस बार भी इनको बसाने की चिंता किसी को नहीं है। इसके लिए कानून कब बनेगा, यह भविष्य के गर्भ में है।
वैसे हाल-फिलहाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने 13 फरवरी के आदेश पर रोक का आदेश वनवासियों के लिए फौरी राहत जरूर है लेकिन स्थायी नहीं। अब तक,ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी कि 27 जुलाई तक आदेश की अनुपालना में मध्य प्रदेश, कर्नाटक और ओडिसा जैसे राज्यों में अफरातफरी का माहौल न बन जाये। एक अनुमान के मुताबिक मौजूदा समय में देश के जंगलों में कुल मिलाकर 10 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं। इनमें से 40 लाख आदिवासी संरक्षित वन क्षेत्र में रहते हैं। यह क्षेत्र देश के कुल क्षेत्रफल का 5 फीसदी यानी असम राज्य के बराबर है। और सच यह भी है कि आजतक कभी औद्योगिक विकास, कभी रेल लाइनों के बिछाने के,, कभी अभयारण्य बनाने और कभी नदी-जोड़ के नामपर जानवरों की तरह,ये हमेशा अपनी जमीन से खदेड़े ही जाते रहे हैं। इतिहास इसका प्रमाण है कि आजतक किसी भी सरकार ने इनके पुर्नवास के सवाल पर सोचना तक गवारा नहीं किया। अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसपर रोक नहीं लगायी जाती तो इतना तय था कि इस चुनावी साल में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए खतरे की घंटी साबित होता। इस बारे में एडवोकेसी ग्रुप कंपेन फॉर सर्वावाइवल एंड डिग्निटी का आरोप है कि 'खुद केन्द्र सरकार इस मामले में कानून का बचाव करने में नाकाम रही है। भारी संख्या में गलत तरीके से दावों को खारिज किया गया है। जहां तक वन अधिकारियों का सवाल है, उन्होंने जानबूझकर अवैध रूप से लोगों के अधिकारों को मान्यता देने से रोकने का काम किया है।' इतना तो सच है कि यदि 13 फरवरी का सुप्रीम कोर्ट का आदेश आगे भी बरकरार रहा तो जंगलों को अपना सब कुछ मानने वाले ये आदिवासी-वनवासी वहां से बेदखल होने के बाद कहां जायेंगे। सरकार के लिए इस समस्या से निपटना आसान नहीं है।