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"डिजिटल-कृषि" बनाम बैलगाड़ी में टेस्ला का डिस्प्ले, केवल 2% किसान हैं कंप्यूटर-साक्षर कैसे होगी "डिजिटल कृषि क्रांति" ?
देश की 84% सीमांत किसानों के लिए डिजिटल खेती दूर की कौड़ी,
केवल 2% किसान हैं कंप्यूटर-साक्षर कैसे होगी "डिजिटल कृषि क्रांति" ?
* 270 रुपए बोरी की यूरिया खरीदने को किसान बैंक से लेता है लोन; बेचारा कैसे खरीदेगा लाखों का द्रोन?*
* मृदा हेल्थ कार्ड योजना: कार्ड बनाने वाली कंपनियां हुई लाल , खाद बिना किसान और खेत दोनों बदहाल,*
* एपीडा का डिजिटल 'ट्रेसनेट' जैविक किसानों के लिए मकड़जाल,; व्यापारी हो रहे मालामाल*
"प्रथम डिजिटल-कदम" के रूप में जीएसटी डिजिटल कर संग्रहण की भांति ही 'एमएसपी पर हो सुनिश्चित हो शतप्रतिशत अनिवार्य डिजिटल खरीदी
इन दिनों भारतीय "कृषि क्षेत्र के डिजिटलाइजेशन" की चर्चा बड़े जोरों पर है।
भारत सरकार के कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय ने दस कंपनियों (अमेज़ॅन, जियो, माइक्रोसॉफ्ट, पतंजलि, पीएसआरआई इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और एग्री बाजार इंडिया प्राइवेट लिमिटेड सहित 10 कंपनियों के साथ के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं। इन कंपनियों के अलावा माना जाता है कि डिजिटलाइजेशन का सबसे ज्यादा फायदा आईटी सेक्टर से जुड़ी कंपनियों को होने जा रहा है जिनमें स्टरलाइट टेक्नोलॉजीज,टेक महिंद्रा,रेलटेल,नेल्को, आईटीआई (भारतीय टेलीफोन उद्योग), टाटा कंसल्टेंसी आदि मुख्य हैं।
इसलिए देश के किसानों को और देशी विदेशी कंपनियों को इससे किसको कितना फायदा मिलने जा रहा है इस पर विचार विमर्श जरूरी है।
क्योंकि 2024 तक देश के किसानों की आय दुगनी करने का ढोल मंजीरे बजाकर किया गया सरकारी वादा कब जुमला बन गया यह ना सरकार को पता चला और ना किसानों को। अब जबकि सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है कि 2024 तक किसानों की आय दोगुनी करना उसके लिए संभव नहीं है तो यह पूरा मसला किसानों के लिए क्रूर प्रहसन बन कर रह गया है।
अबकी बार सरकार ने किसानों की आय दुगनी करने हेतु देश की खेती, खलिहानों और किसानों का डिजिटलीकरण करने की ठानी है। इसके लिए सरकार एक नए "आईडीईए" पर काम करने वाली है । यह नया आईडिया है "इंडिया डिजिटल इकोसिस्टम ऑफ एग्रीकल्चर" (IDEA)। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु सरकार एक *नई डिजिटल कृषि नीति" भी लाने वाली है वाली । यह देखने वाली बात होगी कि क्या इस बार भी सरकार पिछले तीनों कृषि कानूनों को लागू करने के गलत तौर तरीकों को ही फिर दोहराएगी या इस बार इसके असली स्टेकहोल्डर्स, इसके 'बेनेफिशरी और विक्टम्स' होने वाले देश की असली किसानों और किसान संगठनों के साथ मिल बैठकर एक ठोस 'डिजिटल कृषि नीति' बनाएगी।
सरकार को * "नई डिजिटल कृषि नीति" * बनाने से पहले कुछ महत्वपूर्ण बुनियादी बिंदुओं पर ध्यान देना होगा।
1- भारतीय खेती आज आईसीयू में पड़ी है। खेती के लिए जरूरी डीजल, खाद, बीज, दवाई,मजदूरी, बिजली आदि की बढ़ती कीमतों के कारण लगातार बढ़ती कृषि लागत ने खेती को लगातार घाटे का सौदा बना दिया है।
2- वैश्विक डिजिटल-कृषि क्रांति की ध्वजा वाहक नई कृषि तकनीकें, नये नये साफ्टवेयर, खेती की हाइटेक मशीनें, ड्रोन, कृषि रोबोटिक्स आदि अमेरिका व पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिकों द्वारा अपने देशों के हजारों एकड़ के बड़े बड़े फार्मो की मशीनीकृत कृषि के अनुरूप विकसित की गई हैं। जबकि हमारे देश के 84% किसान छोटे और सीमांत किसान है जिनकी जमीन पांच एकड़ से कम है। अर्थात 4-5 एकड़ वाले हमारे छोटे और सीमांत किसानों के लिए ये सॉफ्टवेयर ये तकनीकें, हाइटेक मशीनें और एग्रोरोबोटिक्स कितने और कैसे आर्थिक व्यावहार्य हो पाएंगे यह विचारणीय प्रश्न है।
यहां मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। हाल के दिनों में दिल्ली की एक कृषि प्रदर्शनी में एक स्टार्टअप कंपनी के द्वारा बहुउपयोगी हाइटेक नवीनतम तकनीक से लैस ड्रोन प्रदर्शित किया गया था। कुछ देर पहले ही उस स्टाल पर पधारे मंत्री जी /कृषि उच्चाधिकारी गण आदि द्रोन के साथ फोटो खिंचवा कर और कंपनी के मालिकों की पीठ थपथपा कर गए थे, अतएव उत्साह से लबरेज कंपनी का युवा तकनीकी एक्सपर्ट मालिक कम सेल्समैन इस ड्रोन की खूबियों के बारे में बड़े उत्साह से बता रहा था। सुनकर सचमुच हमें भी यह द्रोन बड़ा उपयोगी लगा। हममें से एक किसान ने पूछ लिया कि इसे काम करने हेतु कम से कम कितना बड़ा खेत चाहिए ? तकनीकी विशेषज्ञ ने कहा कम से कम 2-दो एकड़ का खेत तो होना ही चाहिए। ज्यादातर किसानों के चेहरे उतर गए क्योंकि किसी का भी खेत 2 एकड़ के सिंगल टुकड़े का नहीं था। जमीनें तो 2 एकड़ से ज्यादा है, पर अलग-अलग जगह पर टुकड़ों टुकड़ों में हैं । खैर अब जैसे कि हम भारतीयों की आदत है,भले कोई चीज चाहे खरीदना हो या नहीं खरीदना हो पर दाम पूछने से हम बाज नहीं आते, तो चलते चलते और कुछ डरते डरते उनके इस हाइटेक द्रोन का दाम भी पूछ ही लिया। उन्होंने इसके दाम लगभग 20 लाख रुपए बताए। सुनकर हमारे पैरों तले की जमीन खिसकने लगी। हमारे बुझे चेहरों को देखकर सेल्समैन ने बताया कि सरकारें इस पर अच्छी सब्सिडी भी देने वाली है अगर आप के ग्रह नक्षत्र ठीक रहे और आपको सब्सिडी मिल गई तो यह मात्र 12 लाख रुपए में आपको मिल जाएगा। सब्सिडी पर मिलने वाला यह 12 लाख का द्रोन भी हमारे 99% किसानों के लिए आकाश कुसुम ही है।
3- डिजिटल-क्रांति में किसानों की सहभागिता हेतु किसान का सर्वप्रथम शिक्षित होना जरूरी है।आज भी हमारे गांवों में किसानों का शिक्षा का स्तर बहुत कम है।असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि सीमांत किसानों के बीच साक्षरता दर मात्र 48 प्रतिशत है, जोकि राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर 74% से बहुत कम है।
4- कंप्यूटर की साक्षरता दर पूरे देश में महज 7% प्रतिशत है। जबकि गांवों के किसानों में यह मात्र 2% प्रतिशत ही है।
5- डिजिटल सेवा मुख्यत: इंटरनेट आधारित है देश के एक चौथाई जाने केवल 25% गांवों तक ही इंटरनेट की पहुंच है। अबाध इंटरनेट सेवा का दावा भी केवल 16% क्षेत्रों का ही है। बहुसंख्य गांवों में इंटरनेट की गति लगभग शून्य है।
6-- घाटे में डूबे देश के किसान और कर्ज माफी की संजीवनी तथा किसान सम्मान निधि की कमजोर बैसाखियों के सहारे रेंगने वाली उनकी खेती इन महंगी तकनीकों की कीमत अदा करने की स्थिति में बिल्कुल ही नहीं है।
7- डिजिटल क्रांति की शुरुआत हुई 7 साल हो चुके हैं, कृषि क्षेत्र में उसके प्रभावों को समझने हेतु एक उदाहरण देना चाहूंगा। छोटे किसानों को तीन समान किस्तों में 6,000 रुपये "प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि" सालाना देने की व्यवस्था की गयी। कृषि मंत्रालय की 'पीएम किसान' वेबसाइट के अनुसार, योजना के तहत कुल चिन्हित 8.80 करोड़ लाभार्थियों में से *8.35 करोड़ छोटे किसानों को पहली किस्त के रूप में दो-दो हजार रुपये की राशि दी गयी। वहीं दूसरी किस्त में यह संख्या घटकर *7.51 करोड़, तीसरी में *6.12 करोड़ और चौथी किस्त में केवल *3.01 करोड़ (29 जनवरी तक) रह गयी है।
यहां हम बिहार का भी जिक्र करना चाहेंगे जहां कि चिन्हित 54.58 लाख किसानों में से जहां पहली किस्त 52.19 लाख किसानों को मिली ,जोकि तीसरी किस्त में कम होकर 31.41 लाख रह गयी, यानि कि साल भर में ही चिन्हित किए गए बिहार के लगभग आधे किसान लिस्ट से बाहर हो गए वंचित सम्मान निधि से वंचित या किसान तो यही कहेंगे कि आग लगे ऐसे डिजिटल प्रोग्राम को जो पहले तो चिन्हित करके बैंक खाते खुलवाती है, ढोल मजीरा बजा कर 1 दो 2 किस्तें देकर वाहवाही लूटती है फिर डिजिटल कमियां निकाल कर डिजिटल लिस्ट से बाहर कर देती है। ऊपर से बैंकें इसुविधा शुल्क का ट्रांजेक्शन शुल्क आदि के दाम पर हर महीने इनकी जेब काट रही हैं। बैंकों में धरा सुरक्षित समझे जाने वाला पैसा धीरे-धीरे बैंक की दीमकें ही चट किए जा रही है। यह वही हालात हैं कि "रामजी की चिड़िया रामजी का खेत, खाओ चिड़िया भर भर पेट। इस डिजिटल मकड़जाल को भारत के किसान कैसे और कितना समझ पाएंगे तथा इसे कैसे निकल पाएंगे यह भी मुख्य चिंता का विषय है।
8- जीएसटी,आयकर आदि विभिन्न टैक्स के डिजिटलाइजेशन से देश का राजस्व तो लगातार बढ़ रहा है। लेकिन पिछले कई सालों से जीएसटी और अन्य करों के के ऑनलाइन मकड़जाल में उलझे छोटे खुदरा व्यापारी अपना सिर धुन रहे हैं, छोटे उद्योग ,काम धंधे सिरे समाप्त होते जा रहे हैं।
क्या इसी कड़ी में अगली बारी देश के किसानों की है ? सवाल यह जरूरी भी है, और जायज भी।
डिजिटलाइजेशन का एक उदाहरण पेश है , जैविक खेती के निर्यात बढ़ावा हेतु सरकार के एपीडा विभाग द्वारा जैविक निर्यात सुविधा हेतु बनाये गये "ट्रेसनेट" के डिजिटल-जाल को आज 10 साल बाद भी असल स्टेकहोल्डर जैविक किसान ना तो समझ पाते हैं ना उसका लाभ उठा पाते हैं, अगर उसका लाभ कोई उठा रहा है तो वह है इनके बिचौलिए, दलाल, एक्सपोर्टर्स। अगर आपको यकीन ना हो तो इस डिजिटल जाल ट्रेसनेट के जैविक कृषि उत्पादों के निर्यात के आंकड़े और सभी निर्यात कंपनियों कीलेनदेन की जांच परख कर लीजिए। आप पाएंगे कि इसका 10% फायदा भी असल जैविक किसानों को नहीं हो पा रहा है।
अब जरा देश की खेती के डिजिटलाइजेशन पर विचार करें। कृषि क्षेत्र की वर्तमान बदहाल हालातों को देखते हुए यहां अभी डिजिटल क्रांति अवधारणा लगभग उसी तरह है जैसे कि किसान के मरियल बैलों वाली *बैलगाड़ी में टेस्ला का आधुनिकतम डिस्प्ले लगाया जाए जो कि बैलगाड़ी की वर्तमान गति, अधिकतम गति, भार वाहन क्षमता, मौसम के आंकड़े, हवा की गति, आदि की सही सटीक जानकारी अनपढ़ गाड़ीवान किसान को क्षण प्रतिक्षण देता रहेगा। पर इससे भला किसान को क्या फायदा इससे तो बेहतर है कि आप पहले उसकी बैलगाड़ी की डिजाइन पर काम कर उसे और हल्की बनाया जाए उसके पहियों में उचित बाल बेरिंग लगाएं, आकस्मिक स्थितियों में बैलगाड़ी के सक्षम नियंत्रण हेतु एक ब्रेक की व्यवस्था करें।*
* इस संदर्भ में एक और ताजा उदाहरण पेश है " मृदा हेल्थ कार्ड योजना"* का। कहने सुनने में यह एक अच्छी अवधारणा है।2020 तक इस पर 751.42 करोड रुपए सरकार खर्च कर चुकी है, खर्चा जारी है,आगे भी बहुत कुछ खर्च होगा। इसके तहत किसान की जमीन की जांच कर नाइट्रोजन ,फास्फोरस,पोटाश, सल्फर तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की जांच कर जमीन के अनुसार उचित फसल के चयन तथा उर्वरकों की उपयुक्त मात्रा डालने की सलाह दी जाती है। इस नेक सलाह का क्या फायदा यदि देश के किसानों को समुचित यूरिया और अनुपूरक तत्व मिल ही नहीं पा रहे हों? तो किसानों की जमीन का स्वास्थ्य तो इससे नहीं सुधरा पर मृदा हेल्थ कार्ड बनाने वाली चुनिंदा कंपनियों का स्वास्थ भरपूर बेहतर हो गया। यूरिया और डीएपी तथा पैसों की कमी से सालों साल जूझ रहा किसान क्या अपने खेतों को ये हेल्थ कार्ड दिखाएं अथवा खेतों में "जैविक खेती मिशन" के नाम का बिना तेल का चिराग जलाएं ?
इधर डिजिटल-कृषि क्रांति के नाम पर आने वाले संभावित बजट को हजम करने को लालायित सक्षम कंपनियों ने पहले से अपनी फील्डिंग जमा ली है। उनके लिए लॉबिंग करने वाली संस्थाएं सक्रिय हो गई हैं। सरकार के अनुषंगी ,जेबी किसान संगठन और कंपनियों के पालतू एनजीओज़,एजेंट,लाबिस्ट अभी से यह सुनिश्चित करने में लग गए हैं कि सदा की तरह भारतीय कृषि-डिजिटलाइजेशन की भी नीतियां इन कंपनियों के हड़प नीति के अनुरूप ही बनाई जाएं। यह सब मिलकर यह सुनिश्चित कर देंगे की कृषि-डिजिटलाइजेशन के लिए आबंटित बजट के केक का कितना बड़ा टुकड़ा किसे मिलेगा । और यह भी पहले ही सुनिश्चित हो जाएगा कि खेती की अब तक की ज्यादातर योजनाओं की तरह ही इस नये योजना रूपी केक का एक टुकड़ा भी वास्तविक और सूखी रोटी खाने वाले किसानों के मुंह तक नहीं पहुंचने वाला।
क्या हो कृषि क्षेत्र में पहला "डिजिटल कदम" :-
बैलगाड़ी में टेस्ला का डिस्प्ले लगाने को उतारु सरकार को अपने प्रथम डिजिटल-कदम के रूप में देश के सभी किसानों के समस्त कृषि उत्पादों की "न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीदी को सुनिश्चित बनाने हेतु किसानों के साथ मिलबैठकर तत्काल एक सक्षम कानून बना कर GST की डिजिटल वसूली की भांति ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कहीं पर भी, किसी भी किसान का कोई भी उत्पाद कोई भी व्यापारी,आढतिया, एजेंसी, कंपनी अथवा सरकार द्वारा अगर खरीदा जाता है, कोई भी ई-बिल बनाया जाता है अथवा कोई भी ई वे बिल/परमिट बनाया जाता है तो किसी भी दशा में यह तय किए गए "समुचित न्यूनतम समर्थन मूल्य" से कम ना हो। और यदि निर्धारित एमएसपी से कम मूल्य पर कोई लेन देन हुआ है तो तत्काल ऐसे मामलों पर संबंधित जिम्मेदार क्रेता के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो और कठोर विधि कार्यवाही कर संबंधित किसान को उचित अनुतोष/ मुआवजा दिलाया जाए। परमशक्तिशाली माननीय मोदी जी के लिए यह भला कौन सा कठिन कार्य है?
दरअसल आज जरूरत है कि सरकारें एक अरब 40 करोड़ की जनसंख्या का पेट भरने वाले किसानों और कृषि के नाम पर शोशेबाजी,खोखली बयान बाजी, विज्ञापन बाजी और जुमलेबाजी के जरिए किसानों के वोट कबाड़ कर चुनाव की बाजी जीतने की रणनीति छोड़कर देश की खेती की अधोसंरचना निर्माण पर ध्यान दें, और इस पर दूरगामी नीति बनाकर पर्याप्त निवेश कर इसे मजबूत बनाएं। कृषि अधोसंरचना पर पर्याप्त बजट के साथ लंबे समय तक ठोस जमीनी कार्य करने की आवश्यकता है। और इस कार्य में देश के किसानों तथा किसान संगठनों को भी केवल हर सरकारी नीति की आलोचना करना छोड़कर सरकारी सरकारी योजनाओं के निर्माण तथा क्रियान्वयन में अपनी सक्रिय सकारात्मक अनिवार्य भूमिका निभानी चाहिए।
लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक: अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) तथा "एमएसपी गारंटी मोर्चा" के राष्ट्रीय प्रवक्ता,