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सिर्फ मौत के आंकड़ों से अपनी दुनिया को न समझें, कोरोना के दौर में कामू की रचना प्लेग पढ़िए और शेयर कीजिये
देश में इस समय कोरोना का भय आप हम सब पर हावी है। इस्ससे बचने के लिए सिर्फ हौसले और हिम्मत की आवश्यकता है देश में कोरोना पॉजिटिव केसों की संख्या 258 हो गई है। इनमें से 39 विदेशी हैं। चार की पहले ही मौत हो गई है।
बीबीसी के सौतिक विश्वास की एक रिपोर्ट के अनुसार 1918 में भारत में फ्लू का संक्रमण हुआ था। करीब दो करोड़ लोग मारे गए थे। उसके पचीस साल बाद 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा था। उसमें एक करोड़ लोग मारे गए थे। उसके चार साल बाद 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के वक्त तीन धर्मों के लोगों ने आपस में लाखों लोगों को मार दिया था। 75,000 औरतों के साथ बलात्कार हुआ था। संक्रमण, अकाल और दंगों में करीब तीन करोड़ लोगों के मारे जाने का हिसाब दिखता है। हम नहीं जानते कि इन मौतों के बाद के सदमों ने भारतीय मानस के भीतर स्मृतियों की संरचना का निर्माण किया और उसका असर बाद की पीढ़ियों में किस रूप में पड़ा।
2020 के साल में कोरोना वायरस के कारण मुल्क के मुल्क घरों में बंद किए जा रहे हैं। सामाजिक प्राणी को सामाजिक दूरी का पाठ पढ़ाया जा रहा है। मृत्यु के आंकड़ों के बीच उसके भयावह हो जाने की आशंका इतनी है कि संक्रमण के शिकार लोगों का आंकड़ा भी मरे हुए लोगों का आंकड़ा नज़र आ रहा है। जिसे कोरोना हो गया है वो मृत्यु के करीब पहुंच गया है। अफरा-तफरी मची है और इसी के बीच लापरवाही या बेपरवाही का दौर भी उसी खुशनुमा हवा की तरह शहरों में चल रहा है जिसकी आहट आल्बेयर कामू ने भांप ली थी। 1947 के साल में उनकी रचना प्लेग पढ़ते हुए लग रहा है कि मैं 2020 का भारत या 2020 का विश्व देख रहा हूं। कुछ पहले से बदला है और बहुत कुछ पहले की ही तरह है। रचनाकार ने जो सूरते हाल बयां किया है वो 72 साल बाद भी नज़र आ रहा है। कुछ नहीं बदला है। मैं चाहता हूं कि आप सभी इस वक्त प्लेग पढ़ें।
यह जानने के लिए पढ़ें कि कोरोना वायरस हमें आने वाले दिनों में किस तरह से उदासीन कर देगा। हम हर चीज़ से उदासीन हो जाएंगे। यहां तक कि उदास होने की प्रवृत्ति से भी। मरने वाले लोगों का आंकड़ा बड़ा होकर छोटा नज़र आने लगेगा। अमरीका में बंदूक खरीदने की लंबी लाइन कामू के उपन्यास में 1947 में ही दर्ज हो चुकी है। ऐसा लगता है कि बस कोई उसे पढ़ने के बाद दोहराना चाहता है। राष्ट्राध्यक्षों की शुरूआती बेपरवाही का कोई मतलब नहीं है। 30 जनवरी को भारत में कोरोना का पहला केस सामने आता है। 17 फरवरी को अहमदाबाद में ट्रंप और मोदी रैली करते हैं। उसके एक महीना बाद प्रधानमंत्री मोदी जब राष्ट्र के नाम संबोधित करने आते हैं तो उनके पास बताने के लिए कोई नई बात नहीं है। उनसे पहले कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपनी जनता को संबोधित कर चुके होते हैं। यह कहने से जनता का एक बड़ा हिस्सा उनकी लोकप्रियता की शान में गुस्ताख़ी समझ सकता है और नाराज़ हो सकता है।
पत्रकारों का फोकस इस बात पर नहीं है कि दिल्ली से लेकर राज्यों तक कोरोना से संक्रमित व्यक्ति को पकड़ने और उसके इलाज के प्रबंध का क्या हाल है। क्वारेंटिन की ख़राब हालत के वीडियो मरीज़ ही भेज रहे हैं जिन्हें कहीं चलाया जाता है कहीं नहीं। 20-3-2020 के दिन की खबर है। लंदन से आई गायिका कनिका गुप्ता को कोरोना हो गया है। वह लखनऊ में कई लोगों से मिलती हैं। वसुंधरा राजे से मिलती हैं उनके बेटे से मिलती हैं। संसद जाते हैं। वहां वे पत्रकारों से मिलते हैं। मगर सबका फोकस इस पर है कि प्रधानमंत्री के बोलने का तरीका कितना अच्छा था। वे लोगों को किस तरह प्रेरित कर रहे थे। 30 जनवरी को कोरोना की पहली घटना रिपोर्ट हुई। डेढ़ महीने बाद भारत का मीडिया प्रधानमंत्री के भाषण में प्रेरणा के स्वर ढूंढ कर आह्लादित है। प्रफुल्लित है। उसका फोकस व्यवस्था को जवाबदेह बनाने पर नहीं है। बिहार और कोलकाता जैसे राज्य में कोरोना से लड़ने की कितनी क्षमता है? बीमारी की जांच के टेस्ट किट कितने हैं, क्यों कम है। इन सब बातों के लिए मेहनत की ज़रूरत होगी, प्रधानमंत्री के भाषण की तारीफ कर मीडिया ने अपना काम आसान कर लिया है।
अल्बेयर कामू की रचना प्लेग पढ़ेंगे तो यही जानेंगे कि महामारी के वक्त आलोचना और सराहना का कोई मतलब रह नहीं जाता तब आप हम सभी मृत्यु के एक ही नाव पर सवार हों। मैंने इस उपन्यास के कुछ हिस्से आपके लिए नोट किए हैं। मैं चाहता हूं कि आप इसे पूरा ही पढ़ें। अंग्रेज़ी में पेंग्विन ने छापा है। हिन्दी में इसे राजकमल ने छापा है। मैंने हिन्दी की पीडीएफ फाइल पढ़ी है। इसका अनुवाद शिवदान सिंह चौहान और विजय चौहान ने किया है। 1961 में हिन्दी में प्रकाशित हुआ था। इसके लिए उस समय के संपादक और इन दोनों अनुवादकों का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने उस वक्त बिल्कुल सही सोचा था कि इस उपन्यास को भारतीय पाठकों तक पहुंचाना ज़रूरी है। इसका अनुवाद हिन्दी में होना चाहिए। मैं अनुवादको के बारे में न के बराबर जानता हूं फिर भी आज 2020 में उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं।
अल्जीरिया का एक शहर है ओरान। प्लेग से घिर जाता है। शुरू में लोगों का जीवन सामान्य रहता है। वे मरने वाले आंकड़ों से ख़ुद को महफूज़ समझते हैं। जैसे ही प्लेग महामारी का एलान होता है शहर बदलने लगता है। प्लेग से बचे हुए लोग अपने ही घरों को जलाने लगते हैं। मुर्दों को दफ़नाने की रस्मी औपचारिकताएं छोड़ दी जाती हैं। सारी कोशिश होती है किसी तरह दफ़ना दिए जाएं। सूचना का कोई मतलब नहीं रह जाता है। एक शहर जो मरने वाला है, मर रहा है, उसके भीतर ज़िंदा लोगों की दास्तां हैं प्लेग। कामू ने लिखा है कि प्लेग से दस करोड़ लोग मारे जा चुके हैं। ओरान की यह कहानी दिल्ली और मुंबई वालों को समझने का एक रास्ता देगी। तब आप इटली के मिलान और चीन के वुहान के बंद होने के मर्म को समझ पाएंगे। यही वक्त है प्लेग पढ़ने का। मैंने आज पूरी कर ली। कामू की रचना में भी कर्फ्यू का ज़िक्र था, कर्फ्यू का ज़िक्र आज भी है।
अब पेश है कि कामू के प्लेग के कुछ अंश।
- स्थानीय अख़बार जो चूहों के बारे में तो इतनी बड़ी-बड़ी सुर्ख़ियां देकर ख़बरें छापते थे अब बिल्कुल ख़ामोश हो गए थे क्योंकि चूहे सड़कों पर मरते हैं और आदमी अपने घरों में। और अख़बार सिर्फ सड़कों में ही दिलचस्पी रखते हैं।
- जब तक कि एक एक डॉक्टर के पास दो या तीन केस ही पहुंचे थे तब तक किसी ने इस बारे में कोई कदम उठाने की बात ही नहीं सोची। यह सिर्फ संख्याओं के जोड़ने का सवाल था, लेकिन जब ऐसा किया गया तो कुल संख्या हैरत अंगेज़ निकली। कुछ ही दिनों में मरीज़ों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ़्तार से बढ़ गई थी और इस विचित्र बीमारी के दर्शकों को इसमें ज़रा भी संदेह न रहा कि ज़रूर कोई महामारी फैल गई है।
- सब जानते हैं कि दुनिया में बार-बार महामारियां फैलती रहती हैं। लेकिन जब नीले आसमान को फाड़कर कोई महामारी हमारे सिर पर आ टूटती है तब न जाने क्यों हमें उस पर विश्वास करने में कठिनाई होती है। इतिहास में जितने बार युद्ध लड़े गए हैं उतनी ही बार प्लेग भी फैली है। फिर भी प्लेग हो या युद्ध दोनों ही जैसे लोगों को बिना चेतावनी दिए आ पकड़ते हैं।
- नोटिस के बाकी हिस्से में प्रीफेक्ट ने आम तौर पर एक बीमार के संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को सलाह दी थी कि वह सफाई के इंस्पेक्टर से जाकर मिले और उसकी दी हई सलाह पर पूरी तरह अमल करे।
- लेकिन अगले चार दिनों में ही बुखार में चौंकाने वाली प्रगति हुई थी। पहले दिन 16, फिर 24, फिर 28, और 32 मौतें हुई थीं। चौथे दिन शिशुओं के एक स्कूल के भीतर सहायक अस्पताल खोले जाने की घोषणा की गई थी। नगरवासी अब तक नुक्ताचीनी करके अपनी घबराहट को छिपाते आए थे लेकिन अब जैसे उनकी बोलती बंद हो गई थी और वे उदास चेहरे लिए अपने कामों पर जा रहे थे।
- फिर एकाएक मौतों की संख्या एकदम बढ़ गई। जिस दिन यह संख्या 30 तक पहुंची, प्रीफेक्ट ने डॉक्टर रियो को एक तार पढ़ने के लिए दिया और कहा " तो अब लगता है कि वे लोग भी घबरा उठे हैं-आख़िरकार।" तार में लिखा था " प्लेग फैलने की घोषणा कर दो। शहर के फाटक बंद कर दो।"
- प्लेग के तीसरे हफ्ते में 302 मौतें हो चुकी हैं। लोगों की कल्पना पर कोई आघात नहीं पहुंचा। शहर की आबादी दो लाख थी। मौत के ये आंकड़े क्या सचमुच इतने ज़्यादा थे, यह कोई नहीं जानता था। सारांश में यह कहा जा सकता था कि जनता के पास आंकड़ों का मुकाबला करने के लिए किसी मापदंड की कमी थी।
- कोई भी हमेशा के लिए प्यार नहीं करता। पर ऐसा वक्त आया जब मुझे 'जीन' को अपने साथ रखने के लिए कुछ शब्द कहने चाहिए थे। लेकिन मैं उन शब्दों को ढूंढ न सका।
- महीने के अंतिम दिनों में हमारे शहर के पादरी वर्ग ने अपने विशिष्ठ हथियारों से लैस प्लेग का मुकाबला करने का फैसला करके एक प्रार्थना सप्ताह मनाने का आयोजन किया। सार्वजनिक धर्म भीरूता के इन प्रदर्शनों का समापन रविवार के दिन प्लेग से पीड़ित होकर शहीने वाले संत रॉच के तत्वाधान में होने वाली विराट प्रार्थना सभासे होने वाला था और फादर पैनेलो से उस सभा में प्रवचन देने के लिए कहा गया था।
- इन इलाकों के लोग समझने लगे कि ये पाबंदियां ख़ास तौर पर उन्ही लोगों के लिए लागू की गई हैं इसलिए वे दूसरे इलाकों में रहने वाले लोगों से ईर्ष्या करने लगे क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत आज़ादी थी। दूसरे इलाके के लोग निराशा के क्षणों में अपना दिल खुश करने के लिए उन लोगों की दुर्दशा की कल्पना करने लगे जिन्हें उनसे कम आज़ादी मिली ती। उन दिनों लोगों के पास सान्तवना का एक ही साधन था। जो भी हो कइयों की हालत तो मुझसे भी गई गुज़री है।
- नागरिक अधिकारी इस दलील के आगे झुक गए और उन्होंने तय किया कि जो वॉर्डर अपना काम करते हुए मौत का शिकार हुए थे उन्हें 'प्लेग मेडल' दिए जाएं। ( जैसे हम थाली बजाएंगे) चूंकि पहले जिन लोगों को फौजी तमग़े मिले थे, उसका बुरा असर पड़ चुका था। उन तमग़ों को अब वापस लेने का सवाल नहीं उठता था। इसलिए फौजी क्षेत्रों में अभी भी अंसतोष छाया हुआ था। इसके अलावा प्लेग के तमग़े में एक और कमी थी क्योंकि उसका नैतिक असर फौजी पुरस्कारों से कहीं कम था, क्योंकि महामारी के ज़माने में लोगों को ऐसे तमग़े आसानी से ही मिल जाते थे, इसलिए कोई भी संतुष्ट नहीं था।
- " हां" रियो ने कहा। इस बार भी प्लेग में उतने ही लोग मर रहे हैं और दफनाए जा रहे हैं जितने की पुराने ज़माने की प्लेग में दफ़नाए जाते थे लेकिन अब हम मौत के आंकड़े रखते हैं। आपको मानना पड़ेगा कि इसी का नाम प्रगति है।
- इसमें शक नहीं कि प्लेग के शुरू के दिनों में मृतकों के संबंधियों की सहज-भावनाओं को इस तेज़ रफ़्तार की कार्यवाही से चोट पहुंची थी। लेकिन यह ज़ाहिर था कि प्लेग के ज़माने में ऐसी भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जा सकता, इसलिए कार्यकुशलता पर सब कुछ न्योछावर कर दिया गया, हालांकि दफ़नाने के इस संक्षिप्त तरीके से शुरू में लोगों का मनोबल डंवाडोल हो गया था। आम तौर पर लोगों को यह नहीं मालूम होता कि संबंधियों को अच्छी तरफ दफ़नाने की भावना कितनी प्रबल होती है। लेकिन ज्यों ज्यों वक्त गुज़रता गया हमारे शहर के लोगों का ध्यान अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं पर केंद्रित होने लगा। खाद्य समस्या गंभीर हो गई। उन्हें यह सोचने की फ़ुरसत नहीं थी कि उनके आस-पास लोग किस तरह मर रहे हैं औऱ किसी दिन वे खुद भी इसी तरह मर जाएंगे।
- इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्लेग ने धीरे धीरे हम सबमें न सिर्फ प्यार की बल्कि दोस्ती की क्षमता ख़त्म कर दी थी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि प्यार भविष्य की मांग करता है और हमारे पास वर्तमान के क्षणों की पंक्ति के सिवा कुछ नहीं बच रहा था।
- पत्रकार ने पूछा- क्या सचमुच नकाब बांधने से कोई फायदा होगा? तारो ने कहा- "नहीं", लेकिन दूसरों में विश्वास पैदा होता है।
- इस बात से इनकार न करते हुए भी वृद्ध डॉक्टर ने उसे याद दिलाया कि भविष्य अनिश्चित है। इतिहास यह साबित करता है कि महामारियां अनायास ही फिर ज़ोर पकड़ लेती हैं जबकि उनके ज़ोर पकड़ने की कोई उम्मीद नहीं होती।
कृपया कामू की प्लेग को पूरा पढ़ें। इस दौर में ख़ुद को समझने में काफी मदद मिलेगी।