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इस वजह से भारत में नहीं बन रहा जलवायु परिवर्तन एक सियासी मुद्दा!
निशान्त
कभी सोचा है कोई मुद्दा सियासी कब बनता है? बात आगे बढे उससे पहले ज़रा समझ लेते हैं कि सियासत या राजनीति का मतलब होता क्या है और आख़िर मुद्दा किसे कहते हैं।
तो जनाब ऐसा है कि जब किसी बात से सत्ता हासिल की जाये और फिर उस सत्ता का इस्तमाल उसी बात से किया जाये, तो उसे राजनीतिक या सियासी बात कहते हैं। अब नज़र डालते हैं मुद्दा शब्द पर। एक मुद्दा दरअसल वो बात या टॉपिक होता है जिसके बारे में लोग बहस कर रहे हों, चर्चा कर रहे हों, और उस सबसे अपने विचार बना रहे हों।
आगे बात जलवायु परिवर्तन या क्लाइमेट चेंज की कर ली जाये। अब जब पहले दो शब्दों का मतलब जान लिया, तो चलिए इन दो शब्दों से बने एक शब्द का मतलब भी समझ लीजिये।
तो माजरा ये है कि पृथ्वी का औसत तापमान अभी लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। हालाँकि भूगर्भीय प्रमाण बताते हैं कि पहले ये या तो बहुत अधिक या फिर कम रहा है। लेकिन अब इधर पिछले कुछ सालों से जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है। मौसम की यूँ तो अपनी खासियत होती हैं, लेकिन अब इसका रंग-ढंग काफ़ी बदल रहा है। गर्मियां लंबी होती जा रही हैं, और सर्दियां छोटी और अचानक तीव्र सी होने लगी हैं, वो भी कुछ समय के लिए। हाल ये है कि पहले बच्चों के स्कूल बस रेनी डे के लिए बंद होते थे, मगर अब तो सख्त सर्दी और गर्मी की वजह से भी बंद होने लगे हैं।
अब प्राकृतिक आपदाएं न सिर्फ़ बड़ी जल्दी-जल्दी हो रही हैं, बल्कि पहले से ज़्यादा भीषण भी होने लगी हैं। पूरी दुनिया में ऐसा कुछ हो रहा है और अब बढ़ता ही जा रहा है। बस यही है जलवायु परिवर्तन।
अब आप सोच रहे होंगे कि जलवायु परिवर्तन का हम पर क्या असर होता है। तो सच्चाई ये है असर तो इतना हो रहा है कि हम सोच भी नहीं सकते। सरल शब्दों में कहें तो ये समझ लीजिये कि इस मौसमी बदलाव की वजह से आने वाले समय में पीने के पानी की और कमी हो सकती है, फल-सब्जी-अनाज की उपज में भी और कमी आ सकती है, बाढ़, तूफ़ान, सूखा और गर्म हवाएं चलने की घटनाएं बढ़ती जाएँगी। वैसे ये प्राकृतिक आपदाएं तो बढ़ ही रही हैं और हम और आप देख भी रहे हैं।
लेकिन अमूमन हम इस सब को मामूली सी बातें मान आगे बढ़ लेते हैं। और ऐसी सोच उन लोगों में सबसे ज़्यादा होता है जो मैदानी इलाकों में रहते हैं। वो इलाके जो समन्दर और पहाड़ों से दूर हैं। क्योंकि इन इलाकों में तो फ़िलहाल बटन दबाने से धरती का पानी मिल जाता है और बटन दबाने से उजाला हो जाता है। बटन दबाने से एसी ठण्डी हवा देने लगता है और बटन दबाने से ही ड्रायर गीले कपड़े सुखा देता है। बल्कि अब तो बटन दबाने से गाड़ियाँ, रेल, और हवाई जहाज़ तक काम करने लगे हैं। और बटन तो दूर की बात हुई—अब तो छूने भर से दुनिया की सैर हो जाती है महज़ पांच इंच की फोन स्क्रीन में, जिसमें शायद आप इस वक़्त ये लेख पढ़ रहे हैं।
जब हर काम बटन दबाने या स्क्रीन टच करने से हो जा रहा है तो भला किसी को क्या ज़रुरत कुछ और सोचने की? कोई भला क्यों सोचे जलवायु-वलवायु जैसे फ़ालतू टॉपिक्स के बारे में। आख़िर बटन दबाते ही सबमर्सिबल पम्प पीने का पानी दे रहा है, एसी ठण्डी हवा दे रहा है, वाशिंग मशीन का ड्रायर बरसात में भी कपड़े धो कर सुखा कर दे रहा है। न बादल फटते दिख रहा है, न बाढ़ आ रही है, न सुनामी, और न यहाँ बर्फ पिघलती दिख रही है, तो आखिर वजह क्या है जलवायु परिवर्तन वगैरह की सोचने की?
खैर, बात सियासत की हो तो पहले धर्म, जाति, महंगाई, आरक्षण, विकास, जैसे ज़रूरी मुद्दों पर ध्यान दें कि इस फ़ालतू के जलवायु परिवर्तन वाली बकवास पर?
अरे, बात सियासत तक आ गयी और पता भी नहीं चला। शायद नियति थी, इसीलिए इस लेख ने ये रुख़ लिया। बाहरहाल, हमने बात राजनीतिक मुद्दे और जलवायु परिवर्तन से शुरू की थी और बटन दबाते, टच करते हुए यहाँ तक आ गये।
तो चलिए अब बात भारत की राजनीति कर लें। वैसे बात भारत की राजनीति कि हो और उसमें यहाँ की राजनीति के लिए मशहूर यूपी-बिहार का ज़िक्र न हो, ऐसा भला कैसे हो सकता है? सिर्फ़ यूपी-बिहार नहीं, सोचने बैठिये और कुल लोक सभा की सीटों पर नज़र दौड़ाइए, तो पाएंगे कि भारत की राजनीति की दशा और दिशा भारत के सभी हिंदी-भाषी प्रदेश ही निर्धारित करते हैं। और ऐसा इसलिए क्योंकि लोक सभा की लगभग आधी सीटें अकेले हिंदी भाषी प्रदेशों में हैं।
आगे, आप इन राज्यों की भौगोलिक स्थिति पर ध्यान दें तो पाएंगे कि ये सभी प्रदेश न तो समुद्र तट के पास हैं और न ही हिमालय के पहाड़ों के पास।
जैसा कि पहले बताया गया कि इन प्रदेशों में तो बटन दबा कर सर्दी, गर्मी, बरसात से निपट लिया जाता है, इसलिए कोई भला यहाँ क्यों सोचे जलवायु-वलवायु जैसे मुद्दों के बारे में? यहाँ कौन सा सुनामी आती है या ग्लेशियर पिघल कर तबाही मचाते हैं? इन इलाकों में इसी वजह से जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण के लिए मूलभूत संवेदनशीलता नहीं।
अब वापस बात सियासत की। जैसा कि शुरू में ही बताया गया कि सियासी मुद्दा वो मुद्दा होता है जिसके बारे में जनता इतनी चर्चा कर रही हो कि नेता उस मुद्दे के ज़रिये चुनाव जीत कर सत्ता हासिल कर लें और फिर सत्ता में बने रहने के लिए उसी मुद्दे को जनता के बीच घुमाते रहें।
अब ज़रा सोचिये, जब राजनीति के एक बड़े हिस्से में जलवायु मुद्दा ही न दिखे, तो भला उसको ले कर नेतागिरी क्यों होगी? और जब इस बड़े हिस्से में इसे ले कर शान्ति है, तो भला समुद्री और पहाड़ी राज्य क्यों इसे लेकर क्रांति करेंगे? जो क्रांति करना भी चाहेंगे, वो धर्म, जाति, महंगाई, वगैरह के मुद्दों की रज़ाई ओढ़ सो जायेंगे। क्योंकि भारत में फ़िलहाल इस रज़ाई में राजनीति की बढ़िया नींद आती है।
आप सोच रहे होंगे कितना सरलीकरण कर दिया मुद्दे का। न कोई आंकड़े बताये न कोई राजनीति शास्त्र की परिभाषा दी। मानने को दिल नहीं करता न कि ऐसा भी कुछ हो सकता है?
जैसे डॉक्टर अगर दवाई न दे और इलाज के नाम पर बोल दे कि "जाओ जा कर अच्छे से आराम करो, खाना पीना ठीक से लो, तबियत दो-चार दिन में ठीक हो जाएगी" तो वो डॉक्टर संदिग्ध लगता है। उसके पास अगली बार जाने से पहले दस बार सोचने का मन करता है। इन्सानी फ़ितरत है जटिलता में सफलता तलाशने की। सरलता को स्वीकारना मुश्किल होता है।
शायद आपको भी ऐसा ही कुछ लग रहा होगा।
बाहरहाल, यहाँ ये मत सोचियेगा कि हिन्दी भाषा की आलोचना हो रही है। ऐसा सोचना बड़ा सतही होगा। यहाँ हिंदी-भाषी राज्यों की भौगोलिक स्थिति और उससे जुड़ी स्वाभाविक मानसिकता और विचार धारा के आस पास बात हो रही है।
अब आप सोच रहे होंगे कि आख़िर इसका हल क्या है फिर। तो हल ये है कि अगर आप चाहते हैं कि कल को आपका बच्चा और फिर उसके बच्चे जो सांस लें, जो पानी पीयें, और जो ख़ुराक खायें, वो स्वच्छ हो और स्वास्थ्यवर्धक हो तो जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण को सियासी मुद्दा बनाइये। और ये सियासी मुद्दा तब बनेगा जब आप बेहतर हवा, बेहतर जलवायु, और एक स्वस्थ भविष्य की मांग करेंगे। ये मुद्दा तब बनेगा जब आप इस विषय के लिए संवेदनशीलता लायेंगे, जब आप समझने लगेंगे कि बाज़ारवाद आपके भविष्य के लिए सही नहीं, जब आप जानेंगे कि पेट्रोल कीमती इसलिए है क्योंकि आप उसकी मांग में इज़ाफ़ा कर रहे हैं और उस पेट्रोल का धुआं हमारी जान ले रहा है। और मुद्दा ये तब बनेगा जब आप समझ जायेंगे कि आपको बिजली की बर्बादी नहीं करनी क्योंकि वो फ़िलहाल जीवाश्म ईंधन से बन कर आप तक आ रही है।
पोलिटिक्स में भी डिमाण्ड और सप्लाई का खेल है। आप अपने मुद्दे की डिमाण्ड बनाइए, उससे जुड़ी सियासत की सप्लाई होने लगेगी। उम्मीद है आप अब समझ रहे होंगे कि ये मुद्दा कैसे बनेगा।
और आपसे इस मुद्दे तो सियासी मुद्दा बनाने की अपील इसलिए है क्योंकि आप इस वक़्त इस लेख को पढ़ रहे हैं। पढ़ इसलिए रहे हैं क्योंकि ज़ाहिर है आप किसी हिन्दी-भाषी राज्य से हैं या जुड़े हुए हैं या इस भाषा से जुड़े समाज से जुड़े हैं।
और सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य, फ़िलहाल भारत की राजनीति हिन्दी बोलने वाले तय कर रहे हैं।
निशान्त लखनऊ से हैं और जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे को हिंदी मीडिया में प्राथमिकता दिलाने के लिए प्रयासरत हैं।