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एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया: मणिपुर में जातीय हिंसा की मीडिया रिपोर्टिंग पर तथ्यान्वेषी मिशन की रिपोर्ट
2 सितंबर 2023: मणिपुर की हिंसा पर एडिटर्स गिल्ड की फैक्ट फाइंडिंग टीम की 2 सितंबर की 24 पेज की रिपोर्ट के शुरुआती तीन पन्ने का हिन्दी अनुवाद जो 3 मई से पहले की कहानी है। गिल्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि मामले को समझने के लिए इसे समझना जरूरी है और मुझे लगता है कि इससे यह समझ में आ जायेगा कि हिंसा रुक क्यों नहीं रही है। इसमें जातीय हिंसा तो है ही नशे का कारोबार भी है।
रिपोर्ट के शुरू के तीन पन्ने इस प्रकार हैं
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (ईजीआई) को कई प्रतिवेदन मिले कि मणिपुर में मीडिया बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और कुकी-चिन अल्पसंख्यक के बीच चल रहे जातीय संघर्ष में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 12 जुलाई 2023 को जब इस विवाद के दो महीने से ज्यादा हो चुके थे तब ईजीआई को भारतीय सेना के थर्ड कॉर्प्स हेडक्वार्टर से एक लिखित शिकायत भी मिली, जिसमें मणिपुर में मीडिया के विशिष्ट उदाहरणों का हवाला देते हुए संकेत दिया गया था कि जुनून जगाने और स्थायी शांति नहीं आने देने में इसकी भूमिका हो सकती है"।
इन शिकायतों और प्रतिवेदनों में दावा किया गया था कि इम्फाल घाटी के मीडिया आउटलेट "तथ्यों की पूरी तरह से गलत बयानी" कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में यह संभव है कि मीडिया का एक समुदाय के पक्ष में पूर्वाग्रह आगे की हिंसा भड़काने के प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक हो क्योंकि उनकी रिपोर्ताज में पूर्वग्रह स्पष्ट रूप से उभर कर आता है।
ईजीआई ने मणिपुर में जातीय झड़पों के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की थी, लेकिन स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की असमान और पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद, उसने मणिपुर में एक तथ्यात्मक टीम भेजने का फैसला किया। ईजीआई यह जांच करना चाहता था कि मीडिया की गलत रिपोर्टिंग, गलत तथ्य पेश करने और फर्जी खबरें फैलाने की अन्य घटनाएं भी थीं या नहीं।
सुश्री सीमा गुहा, श्री भारत भूषण और श्री संजय कपूर की तीन सदस्यीय टीम को राज्य में मीडिया रिपोर्टों की जांच के लिए मणिपुर भेजा गया था। इस टीम ने 7 से 10 अगस्त तक मणिपुर का दौरा किया।
इसका काम मीडिया की पक्षपातपूर्ण और विभाजक रिपोर्टिंग की जांच करना था। इसके तहत इस बात की जांच की जानी थी कि क्या मीडिया वास्तव में 'पक्षपाती और विभाजनकारी' था, जैसा कई स्टेक धारकों ने आरोप लगाया है। इसके साथ ही मीडिया के कवरेज ने किस तरह दरार को गहरा किया और इंटरनेट शटडाउन का मीडिया के काम करने की योग्यता पर जो असर पड़ा उन सब को समझना और उसे रिकार्ड करना भी था।
टीम ने पत्रकारों (रिपोर्टर्स), संपादकों, एडिटर्स गिल्ड ऑफ मणिपुर के प्रतिनिधियों, ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, जाने माने बुद्धिजीवियों, हिंसा से प्रभावित महिलाओं, आदिवासी प्रवक्ताओं और सुरक्षा बलों के प्रतिनिधियों के भिन्न वर्गों से मुलाकात की।
मणिपुर में जातीय संघर्ष के कारणों की जांच करना ईजीआई टीम का कार्य नहीं था। हालाँकि, उस समग्र सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ को समझे बिना, मीडिया के उस व्यवहार को समझना मुश्किल होगा जिसमें जातीय हिंसा हुई थी।
3 मई को हिंसा भड़कने से बहुत पहले, मणिपुर के आदिवासी तनाव, विशेष रूप से बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी-चिन-ज़ो समुदाय के बीच, पहले से ही अपने चरम बिंदु पर पहुंच रहे थे। ऐसा लगता है कि राज्य सरकार ने कई पक्षपातपूर्ण बयानों और नीतिगत उपायों के माध्यम से कुकी के खिलाफ बहुमत के गुस्से को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के लिए, राज्य के नेतृत्व ने बिना किसी विश्वसनीय डेटा या सबूत के कुकी-ज़ो आदिवासियों के पूरे समुदाय को "अवैध आप्रवासी" और "विदेशी" करार दिया। इस तथ्य के बावजूद कि 1901 से 2011 तक हर 10 साल पर होने वाली जनगणना में गैर-नागा (अन्य अल्पसंख्यक आदिवासी समुदाय) जनजातीय आबादी में कोई असामान्य वृद्धि नहीं देखी गई है।
तथ्य यह है कि म्यांमार में एक सैन्य तख्तापलट हुआ था जिसके कारण मिजोरम में लगभग 40,000 शरणार्थी आए और बताया जाता है कि इनमें से करीब 4,000 का उपयोग मणिपुर में सभी कुकी-ज़ो को अवैध आप्रवासी घोषित करने के लिए किया गया था। इसे संसाधनों पर भार के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन यह राजनीतिक स्थान के लिए युद्ध भी था। सरकार के मैतेई नेतृत्व ने अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए बाहरी लोगों के डर का उपयोग किया था।
इसके अलावा, 1972 के हिल्स एरिया कमेटी अधिनियम में निर्धारित उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना, एन. बीरेन सिंह की सरकार ने पहाड़ (हिल्स) के कुछ हिस्सों को "आरक्षित" और "संरक्षित" वन और "वेटलैंड रिजर्व" घोषित कर दिया। इन क्षेत्रों के भीतर सभी भूमि स्वामित्व दस्तावेजों को रद्द कर दिया गया और दिसंबर 2022 में उन्हें बेदखल करने के लिए एक अभियान शुरू किया गया।
इससे इन गांवों में रह रहे राज्य के अधिकारियों और कुकी-ज़ो समुदाय के बीच हिंसक टकराव हुआ। कुकी-बहुल क्षेत्र कांगपोकपी जिले में शुरू हुआ तोड़-फोड़ (डिमोलिशन) अभियान फरवरी 2023 तक चुराचांदपुर और तेंगनौपाल जिलों में भी बढ़ा दिया गया जहां कुकी-ज़ो समुदाय की बहुतायत भी थी।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वन सर्वेक्षण, जांच, बेदखली और तोड़फोड़ का काम केवल गैर-नागा आबादी वाले आदिवासी क्षेत्रों में किए गए, जिससे कुकी समुदाय को एक बार फिर यह विश्वास हो गया कि उन्हें अलग करके या छांट कर परेशान किया जा रहा है।
समझ में नहीं आने वाले एक कदम के तहत 10 मार्च 2023 को बिरेन सिंह सरकार ने एक मंत्रिमंडल निर्णय लिया जो परिचालनों के त्रिपक्षीय निलंबन (सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस - एसओओ) से अलग होने का था। यह कुकी हमलावर समूहों के साथ एक तरह का संघर्ष विराम समझौता था। यह समझौता कुकी नेशनल, जोमी रिवोल्यूशनरी और कुकी रिवोल्यूशनरी के साथ था और इनके साथ केंद्र सरकार शांतिपूर्ण बातचीत चाहती थी।
दो हफ्ते बाद, 24 मार्च को, राज्य सरकार ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) को केवल इंफाल घाटी से हटा दिया, वह भी तब जब कुकी विद्रोही समूह केंद्र के साथ शांति वार्ता में थे, जबकि इंफाल घाटी में सक्रिय मैतेई विद्रोही शांति के लिए बातचीत की किसी भी प्रक्रिया से बाहर थे। पीछे मुड़कर देखने पर, कुकी-ज़ो आदिवासियों ने इसे कुकियों के ख़िलाफ़ हिंसा की तैयारी में एक पक्षपातपूर्ण कदम के रूप में देखा, जो कुछ सप्ताह बाद आया।
इसके साथ-साथ, मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य सरकार की एक समिति ने 3 अप्रैल 2023 को निर्दिष्ट आरक्षित और संरक्षित वन क्षेत्रों के भीतर गांवों की सभी भूमि/संपत्ति डीड और मान्यता को रद्द कर दिया। यह सब बेदखल आदिवासी आबादी के लिए किसी पुनर्वास योजना के बिना किया गया था।
19 अप्रैल को यह पता चला कि मणिपुर उच्च न्यायालय ने 27 मार्च को एक असामान्य आदेश था कि राज्य सरकार मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की सिफारिश केंद्र से करे। नागाओं के साथ-साथ कुकी-ज़ो आदिवासियों द्वारा इसे मैतेई भूमि-हथियाने के कदम के रूप में देखा गया, क्योंकि एक बार जब उन्हें एसटी का दर्जा मिल गया तो वे हिल्स के आदिवासी क्षेत्रों में जमीन खरीद सकते थे, जो इस समय निषिद्ध है।
बीरेन सिंह सरकार ने इस मामले में तुरंत अपील नहीं की, वह भी तब जब आदेश राज्य या आदिवासी हितधारकों को सुने बिना जारी किया गया था। इसने एक बार फिर आदिवासियों को नाराज कर दिया है और राज्य सरकार की मंशा पर संदेह खड़े हुए।
जटिल मुद्दे की एक और परत बीरेन सिंह का तथाकथित "ड्रग्स के खिलाफ युद्ध" था। इसमें कुकी-ज़ो को उन खलनायकों के रूप में चित्रित किया गया था जो पहाड़ियों में अवैध पोस्त (पॉप्पी) की खेती में लिप्त थे। मणिपुर की सीमा म्यांमार से लगती है और यह इसके सीमावर्ती शहर मोरेह के जरिये नशीली दवाओं की तस्करी होती है।
विशेषज्ञों का दावा है कि पुराने समय का 'स्वर्ण त्रिभुज' म्यांमार-थाईलैंड-लाओस से म्यांमार, भारत और बांग्लादेश की सीमाओं तक स्थानांतरित हो गया है। तस्करी की जाने वाली पसंदीदा दवाएं हैं: हेरोइन, ब्राउन शुगर, पर्ची पर मिलने वाली दर्द निवारक दवाइयां, कफ सिरप और याबा या डब्ल्यूआईवाई (यानी वर्ल्ड इज योर्स या "दुनिया आपकी है") गोलियां। बीरेन सिंह सरकार का ध्यान नशीली दवाओं के व्यापार के अन्य घटकों, म्यांमार में सिंथेटिक पदार्थों की तस्करी और मणिपुर के माध्यम से दवाओं की तस्करी और उनके वितरण को नुकसान पहुंचाने वाली पोस्ता की खेती पर केंद्रित है।
नशीली दवाओं के माफिया द्वारा उर्वरक और कीटनाशकों के लिए एडवांस राशि (वित्तीय अग्रिमों) देकर सबसे गरीब किसानों से करवाई जाने वाली पोस्ता की खेती भी म्यांमार से मणिपुर की ओर स्थानांतरित हो गई है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम द्वारा की जाने वाली अवैध फसल की निगरानी म्यांमार में व्यापक हो गई है। भारत में इसे कवर नहीं किया जाता है (क्योंकि देश में पोस्ता उगाने का लाइसेंस मिलता है)।
अवैध पोस्ते की खेती कुकी-ज़ो, नागा और मेतेई सभी करते हैं। फिर भी बीरेन सिंह ने केवल कुकी-ज़ो के लिए "अफीम की खेती करने वाले" और "नार्को-आतंकवादी" विशेषणों को लोकप्रिय बनाया। सरकार की यह खतरनाक कार्रवाई तब सार्वजनिक रूप से स्पष्ट हुई जब एक उच्च पदस्थ आईपीएस अधिकारी, थउनजम बृंदा ने अदालत में हलफनामा दायर कर कहा कि मुख्यमंत्री और राज्य के शीर्ष पुलिस अधिकारियों ने उन्हें एक ऐसे व्यक्ति को छोड़ने के लिए मजबूर किया, जिसके परिसर से उनकी टीम ने 27 करोड़ रुपये बरामद हुए थे।
नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं का दावा है कि मणिपुर में नशे के व्यवसाय से वार्षिक राजस्व लगभग 50,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है, जबकि राज्य का वार्षिक बजट केवल 30,000 करोड़ रुपये है। इसका तात्पर्य यह है कि नशीली दवाओं का नेटवर्क व्यापक है और राजनीतिक समर्थन के बिना पनप नहीं सकता।
इन जटिल कारकों ने मिलकर मैतेई-कुकी जातीय तनाव को तब तक भड़काया जब तक कि 3 मई को वे उस मुकाम तक नहीं पहुंच गए।