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मार्च के पहले हफ़्ते में चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के लिए दूरदर्शन और आकाशवाणी पर प्रसारण के लिए आवंटित समयावधि को इस दृष्टि से बढाकर दुगना कर दिया था कि कोरोना लहर की तीव्रता के बढ़ते प्रकोप के चलते इन पार्टियों को आम मतदाता से निकटता के संपर्क के अवसर नहीं मिलेंगे। बिहार चुनाव के समय भी यही प्रक्रिया अपनायी गयी थी। राजनीतिक दलों ने बिहार के चुनाव में भी 'डबल ब्रॉडकास्ट' का इस्तेमाल करके कोविड प्रोटोकॉल को धता बताई थी और ऐसा ही इस बार भी किया गया।
सभी राजनीतिक दलों को 9 अक्टूबर को जारी अपने प्रपत्र में चुनाव आयोग ने निर्देश दिया था कि अपने जनसम्पर्क समय उन्हें स्वास्थ्य 'प्रोटोकॉल' का कड़ाई से पालन करना होगा ताकि महामारी के प्रसार में वे कोई कारक न बने। इस प्रोटोकॉल में स्वयं के अलावा मतदाता को अवश्यम्भावी रूप से मास्क धारण करना, सेनिटाइज़र का उपयोग और 'सोशल डिस्टेंसिंग' का कड़ाई से पालन करने के निर्देश थे। लेकिन हालिया चुनावी सभा और रैलियों तथा रोड शो को देखने पर प्रतीत होता है जैसे सभी राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी थी कि इस 'प्रोटोकॉल' को तोड़ने में कौन अव्वल रहेगा। सबसे अधिक दुखद तो उन रैलियों और रोड शो को देखना था जिन्हें देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सम्बोधित कर रहे थे, जिनके कंधों पर देश की संवैधानिक संस्थाओं के दिशा-निर्देशों की अनुपालना के भार का दायित्व माना जाता है।
बेशक़ 3 राज्यों और 1 केंद्र शासित राज्य में मतदान संपन्न हो चुके हों लेकिन प० बंगाल में अभी भी 5 चरणों की वोटिंग होनी है, 5 चरणों के विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी रैलिया होनी हैं, 5 चरणों में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सहित तृणमूल की स्टार प्रचारक ममता बनर्जी सहित पार्टी के अन्य नेताओं को अपना शक्ति प्रदर्शन करना है, इन्ही 5 चरणों में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी वढेरा के अलावा लेफ़्ट के नेताओं को भी भीड़ भरी रैलियों को सम्बोधित करना है। और कोई डरे तो डरे, बैलेट बॉक्स कोरोना से बेख़ौफ़ है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों चुनाव आयोग की इच्छा शक्ति मृतप्राय हो गयी है। टीवी पर दिन भर चलने वाले न्यूज़ बुलेटिन क्यों उसे नहीं दिखते ? सख्ती से इन्हें रोकने की कोशिश में नहीं दिखता ? जैसा कि बीते 3 फ़ेज़ के चुनावों में हुआ है, आगे भी पार्टी और समर्थक महामारी से बेख़ौफ़ होकर कोरोना के सभी प्रोटोकॉल को धता बताते रहेंगे, आगे भी चुनाव आयोग इसी तरह गाँधी की त्रिमूर्ति बना कोविड को सिंगट्ठा दिखाता रहेगा।
अलबत्ता केरल में ज़रूर राजनीतिक दलों के चुनावी खेल में इस बार कोरोना कबाब में हड्डी साबित हुआ है। स्थानीय मलयाली भाषा में 'कोट्टिकलशम' कहे जाने वाले इस खुला खेल फ़रक्काबादी चनाव अभियान पर एक और जहाँ राज्य के चुनाव अधिकारी के अनुरोध पर चुनाव आयोग ने सख्ती से रोक लगा दी है वहीँ राज्य सरकार और ज़िलों के प्रशासनिक अधिकारियों ने भी एक और आधी रात तक आयोजित होने वाली 'बाइक रैलियों' को बाक़ायदा रोक दिया है वहीँ चुनावी रैलियों में बाँटने वाले खाद्य पैकेट और 'गिफ्ट आयटम' को भी पूरीतौर पर रोक दिया है। आज़ादी के बाद का यह पहला चुनाव है जहाँ 'कोट्टिकलशम' कहीं नज़र नहीं रहा। सवाल यह है कि जब यह एक राज्य में चुनाव आयोग को कोरोना से रोकथाम का इल्हाम हो गया तो देश के अन्य भागों में क्यों नहीं हुआ? क्या इसलिए कि केरल की राजनीतिक और प्रशासनिक संस्कृति अन्य राज्यों से अलहदा है या इसलिए कि देश का सत्तारूढ़ दल केरल में चुनाव की विजय पताका से बेखबर है और ऐसा माना जाता है कि चुनाव आयोग उसकी रुचियों का ख़्याल पूरी शिद्दत से रखता है?
बीते सप्ताह मद्रास हाई कोर्ट की डबल बेंच ने ज़रूर चुनाव आयोग को सख़्त हिदायत देते हुए कहा था कि मतदान के समय क़तार में खड़े लोगों को कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने के लिए बाध्य किया जाय। कोर्ट ने राज्य सरकार को भी इस मामले में 'आयोग' को समुचित मदद करने का आदेश दिया था। इसके बावजूद न तो मद्रास हाईकोर्ट ने और न देश के किसी अन्य हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने 4 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव आयोग से ऐसी 'अराजक' चुनावी रैलियों और रोड शो को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया है जहाँ कोविड प्रोटोकॉल को ध्वस्त किया जा रहा है।
सिर्फ़ चुनाव ही नहीं, कुम्भ भी कोरोना वायरस से बेख़ौफ़ बना रहा। हरिद्वार के प्रमुख पर्व और मथुरा और प्रयागराज के आंशिक पर्व में न मास्क लगाए लोग दिखते थे, न सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए। सेनिटाइज़र के उपयोग पर तो जैसे उन्हें शर्मिंदगी होती थी। राज्य सरकार और पुलिस भी ऐसी धार्मिक हो गयी थी कि उसने न तो किसी से जुरमाना वसूला और न किसी को जेल भेजा जबकि देश के दूसरे स्थानों पर साल भर में सरकार और नगर निगमों की जुर्माने की माध में कई सौ करोड़ रुपये की आमदनी हो चुकी है। ।