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एनर्जी ट्रांजिशन का उसकी मूल आत्मा में लागू होना ज़रूरी : विशेषज्ञ
एनर्जी ट्रांज़िशन या ऊर्जा रूपांतरण का अर्थ सिर्फ बिजली व्यवस्था के स्वरूप में आमूल-चूल बदलावों से नहीं है, बल्कि यह एक बहुत व्यापक संदर्भ है। विशेषज्ञों का मानना है कि ऊर्जा रूपांतरण के लिये ऐसे बहुत से जटिल सवालों के जवाब ढूंढने होंगे, जो सीधे तौर पर हमारी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से जुड़े हैं।
क्लाइमेट ट्रेंड्स और आर्थन द्वारा गुरुवार को 'जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के समागम के लिये शासन और संस्थागत कार्ययोजनाओं को मजबूत करना' विषय पर आयोजित वेबिनार में भारत में सतत विकास और जलवायु संरक्षण सम्बन्धी कदमों के परस्पर सम्बन्धों को समझने और भारत में समावेशी शासन को मजबूत करके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक असमानताओं का साझा हल निकालने पर चर्चा की गयी।
प्रयास एनर्जी ग्रुप के सीनियर फेलो अशोक श्रीनिवास ने ऊर्जा रूपांतरण की व्यापकता और उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ''एनर्जी ट्रांज़िशन के अनेक आयाम और तत्व हैं। अगर हम ऐसा चाहते हैं कि उनका संचालन सुचारू रूप से हो और वह नागरिकों की वास्तव में मदद करें तो हमें उन्हें समझना ही होगा। जब हम स्वच्छ ऊर्जा में रूपांतरण की बात करते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आमतौर पर इसका मतलब स्वच्छ बिजली रूपांतरण से लगाया जाता है लेकिन यह ऊर्जा रूपांतरण का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। देश की 70% ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली के रूप में नहीं किया जाता, लिहाजा ऊर्जा रूपांतरण एक बहुत बड़ा सवाल है।''
उन्होंने कहा ''यह अच्छी बात है कि हम बिजली के रूपांतरण की बात कर रहे हैं लेकिन बड़ी तस्वीर काफी अलग है। जलवायु परिवर्तन ने कुछ समस्याओं पर हमारा ध्यान केंद्रित किया है। कुछ नयी समस्याओं की तरफ भी हमारा ध्यान गया है। जलवायु परिवर्तन के बारे में एक अच्छी बात यह है कि उद्योग जगत तथा वैज्ञानिक बिरादरी ने इस समस्या से निपटने के लिए शोध और अनुसंधान कार्यक्रम शुरू किए हैं। अब हमारे पास ऐसे समाधान आए हैं जिनसे हम अन्य समस्याओं का हल भी निकाल सकते हैं। जब तक हम ऐसे समाधान नहीं निकालते जिनसे देश और यहां के लोगों की ऊर्जा सेवाओं को हासिल करने, रोजगार शिक्षा और आजीविका प्राप्त करने में मदद हो, तब तक निश्चित रूप से ऊर्जा रूपांतरण बहुत मुश्किल है।''
लाइफ संस्था के संस्थापक ऋत्विक दत्ता ने ऊर्जा रूपांतरण को मूर्त रूप देने के लिये अधिक स्वीकार्य तंत्र विकसित करने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ''अगर आप ऊर्जा रूपांतरण की बात कर रहे हैं तो उसे सिर्फ डिस्कॉम एप्रोच तक ही सीमित नहीं रखना होगा बल्कि एक ऐसा तंत्र बनाना होगा जिसकी ज्यादा से ज्यादा स्वीकार्यता हो। अगर हम भारत में नियामक तंत्र पर नजर डालें तो पर्यावरण नियमन एजेंसियां समाज द्वारा उठायी जाने वाली आपत्तियों को सुलझाने का काम नहीं करती हैं। सच्चाई यह है कि इन दोनों पहलुओं का आपस में कोई तालमेल ही नहीं है। तंत्र में अभी यह समझ ही विकसित नहीं हुई है कि लोग किसी बदलाव का खामियाजा किस तरह भुगतेंगे।
वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के निदेशक (ऊर्जा) भरत जयराज ने ऊर्जा रूपांतरण की कवायद के दौरान उठने वाली समस्याओं का पूर्वानुमान लगाने वाले संस्थान विकसित करने की जरूरत बताते हुए कहा ''हम लगातार जस्ट ट्रांजिसन की बात सुनते रहते हैं लेकिन इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि मौजूदा प्रणाली या व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है और अगर आप इसकी जगह पर किसी दूसरी व्यवस्था को लाना चाहें तो उसी अन्याय को और आगे बढ़ाएंगे। अगर हम भारत के कोयला उत्पादक राज्यों को देखें तो वे न सिर्फ खनन और वायु प्रदूषण से बेतरतीब ढंग से प्रभावित हैं बल्कि वे विकास की दौड़ में भी पीछे रह गए हैं। देश के बाकी हिस्सों को ईंधन उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्कूल और अस्पताल बगैर बिजली के रह जाते हैं।''
उन्होंने कहा कि ऊर्जा रूपांतरण एक बहुत व्यापक चीज है और मौजूदा विषम परिस्थितियों के मद्देनजर देखें तो क्योंकि विभिन्न राज्य विकास के अलग-अलग चरणों में हैं इसलिए यह रूपांतरण और अधिक टकराव उत्पन्न करेगा। हमें इससे जुड़े तमाम सवालों के जवाब ढूंढने के लिए विभिन्न तरीकों से सोचना होगा। जब हम ऊर्जा रूपांतरण के इस व्यापक मुद्दे को देखते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि हमें ऐसे सजग संस्थान विकसित करने होंगे जो इन समस्याओं का पूर्वानुमान लगा सके और प्रभाव का आकलन कर सकें।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का असर इतना अव्यवस्थित और गहरा होता जा रहा है कि अमेरिका के एक हिस्से में जंगलों में आग और दूसरी तरफ बाढ़ आती है। एक के बाद एक चक्रवाती तूफान आए इसके अलावा और भी पर्यावरणीय घटनाएं हुई हैं जिनसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब बिल्कुल जाहिर हो चुके हैं। मूलभूत आर्थिक गतिविधियों, जैसे कि बिजली उत्पादन, परिवहन और कृषि पर इसके सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि कदम उठाना बहुत जरूरी है। मगर, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कदमों में समानता होनी चाहिए क्योंकि किसी को भी एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरमेंट एण्ड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने सतत विकास और ऊर्जा रूपांतरण के अंतर्सम्बंधों का जिक्र करते हुए कहा कि ऊर्जा रूपांतरण सबसे महत्वपूर्ण पहलू है जिसका सरोकार सिर्फ कार्बन न्यूनीकरण से नहीं है बल्कि इसका ज्यादातर संबंध जलवायु के प्रति सतत अर्थव्यवस्था और सतत लोगों से है। दो महत्वपूर्ण कारक हैंा इनमें से एक है बाजार और दूसरा है संस्थाएं। हम ऐसी संस्थाओं की बात कर रहे हैं जो बाजार को सहयोग करती हों। जलवायु परिवर्तन इन बाजारों के नाकाम होने का एक बहुत बड़ा उदाहरण है। यह कार्बन न्यूनीकरण सम्बन्धी बहस और अनुकूलन संबंधी चर्चा दोनों को ही प्रभावित करता है। हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि हम ऊर्जा रूपांतरण की व्याख्या किस तरह से करते हैं। जापान में सोचा जाता है कि पर्यावरण पर चर्चा दरअसल एक आर्थिक रूपांतरण है जबकि भारत में हम इसे सहलाभ संबंधी चर्चा के तौर पर देखते हैं।
वेबिनार के एक सत्र के दौरान महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अवसर के विषय पर भी चर्चा की गयी।
इस दौरान जस्ट जॉब्स नेटवर्क की अध्यक्ष सबीना दीवान ने कहा ''जब श्रम शक्ति में लैंगिक समानता की बात आती है तो निश्चित रूप से यह असमानतापूर्ण है। महिला श्रमिकों की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। वर्ष 2018-19 के लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक श्रम में महिलाओं की भागीदारी में लगभग 18% की कमी आई है। हम जानते हैं कि आर्थिक भागीदारी पहले से ही काफी असमानतापूर्ण है। इसके अलावा महिलाओं को मेहनताना भी पुरुषों के बराबर नहीं मिलता है। कोविड-19 का सबसे ज्यादा प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी मार भी महिलाओं पर ही पड़ी है। हम ऐसे समाज में रह रहे जहां महिलाओं के प्रति असमानतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। मगर, सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि ऊर्जा क्षेत्र के अक्षय ऊर्जा में रूपांतरण से महिलाओं के सामने कई अवसर भी हैं।
इंडिया एमपॉवर की निदेशक डॉक्टर निशा धवन ने पर्यावरणीय परिस्थितियों के बारे में महिलाओं की विशेषज्ञता की अनदेखी का पहलू उठाते हुए कहा कि चूंकि महिलाएं पानी समेत विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों को बेहद करीब से सबसे पहले देखती हैं इसलिए उनके पास इस बात की जानकारी होती है कि बदलती हुई पर्यावरणीय परिस्थितियों में किस चीज की जरूरत है और उनका समाधान कैसे होना चाहिए, लेकिन उनकी इस समझ को आमतौर पर अहमियत नहीं दी जाती है। भारत के पास हजारों ग्रेटा थनबर्ग है लेकिन अनेक ढांचागत विषमताओं की वजह से वे सामने नहीं आ पाती हैं।
ऑक्टस ईएसजी की उपाध्यक्ष स्मिता हरि ने कहा कि हमारा समाज लड़कियों के मुकाबले लड़कों को और महिलाओं के मुकाबले पुरुषों को शिक्षा, स्वास्थ्य और सशक्तिकरण के मामले में तरजीह देता है। सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन से मिलने वाले झटकों से महिलाओं को कैसे उबारा जाए। इसके लिए महिलाओं के वास्ते रोजगार के अवसर तैयार करने होंगे ताकि जलवायु परिवर्तन से लगने वाले झटकों से उत्पन्न अनिश्चितता से निपटा जा सके। भारत में रूफटॉप सोलर सेगमेंट महिलाओं के लिए रोजगार के बड़े अवसर उपलब्ध कराता है। खासतौर पर ग्रामीण औरतों को रूफटॉप सोलर सेगमेंट में। इस वक्त इस क्षेत्र में लगी श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी महज 11 प्रतिशत है जो 32 फीसद के वैश्विक औसत से बहुत कम है। इसलिए महिलाओं को अक्षय ऊर्जा से जोड़ना बहुत महत्वपूर्ण है।
द सस्टेनेबल ट्रेड इनीशियेटिव, आईडीएच में सीनियर प्रोग्राम मैनेजर जसमेर ढींगरा ने कहा कि पर्यावरण को संरक्षित रखने, कृषि की नई टेक्नोलॉजी अपनाने और पर्यावरण संरक्षण संबंधी अन्य उपायों को गांव के स्तर तक पहुंचाना और उसे व्यवहार में शामिल करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। सवाल यह भी है कि कैसे एक समावेशी सुशासन स्थापित किया जाए, जहां पर सभी हितधारकों की आवाज को महत्व मिले। इसके लिये हमें एक बहुहितधारक हितैषी रवैया अपनाना होगा।