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हिंदी दिवस आते ही हिंदी के नाम पर आत्म- गौरव में स्फीति आने लगती है। इसपर पहले से अधिक बढ़ चुके संकट पर नजर नहीं जाती। देखने की जरूरत है कि दूसरी भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी पर संकट कैसे ज्यादा है।
मुख्य संकट यह है कि हिंदी की ज्ञान- परंपरा को संकुचित किया जा रहा है। इसे उसकी उस ज्ञान-परंपरा से काटा जा रहा है, जिसका निर्माण संस्कृत साहित्य के साथ-साथ लोकभाषाओं, संतों- सूफियों- भक्ति आंदोलन तथा नवजागरण ने किया है। भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी, अज्ञेय, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, राही मासूम रजा जैसे लेखकों ने किया है। इन दिनों इस विरासत को नकारने या उपेक्षा करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
हिंदी लगभग 55 करोड़ लोगों की भाषा है और लगभग 1200 सालों के विकासों की देन है। इसे समावेशी भारतीय संस्कृति तथा विश्व के ज्ञान भंडार से अलग नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि इसपर जो लोग एकरेखीय ढांचा और संकुचित इतिहास थोप रहे हैं, वे हिंदी को 'कूप जल' बना रहे हैं!
हर राष्ट्रीय भाषा अपने देश की आत्मा को जानने का द्वार है! हमें कहना होगा कि अपने देश को विविध तरह से जाना जा सकता है। दूसरी तरफ, भारत जितना बड़ा देश है, उसे जानने के लिए उतना बड़ा दिल भी होना चाहिए। यदि कोई हिंदी को व्यक्तिवाद या अतीत की जड़ धारणाओं में सीमित करता है तो यह दृष्टि की संकीर्णता है। यह आत्मक्षय है। दरअसल किसी भाषा में जब स्मृति एक कुआं तथा कल्पना एक बड़े पत्थर में बदल जाती है तो इससे भाषा का दम फूलता है।
हिंदी राजभाषा के लेबल के कारण जितनी वह राजभाषा है उससे अधिक बदनाम है। दरअसल असली राजभाषा या सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है। ऊंचे पदों पर जाने वाली सारी शिक्षा अंग्रेजी में दी जा रही है। हिंदी पढ़ने वाले आमतौर पर सिर्फ मास्टर या अनुवादक बनते हैं! हिंदी पर गर्व करना किसी के पेशे का हिस्सा हो सकता है, पर उसकी वास्तविक हालत बहादुर शाह जफर की है जो नाममात्र का बादशाह था। हिंदी का दर्द भी जफर के दर्द- सा है!
हम हिंदी को चारागाह समझते हैं, इसमें जीते नहीं हैं। एक भाषा में जीने का अर्थ है, उसके उच्च मूल्यों और सुंदरताओं से जुड़ी संस्कृति में जीना। अपने 'मैं' के बाहर भी सोचना, सम्पूर्ण देश-दुनिया के बारे में सोचना। वस्तुतः तभी अपनी भाषा में विस्तार आता है। छोटा मन लेकर महान भाषा का निर्माण नहीं हो सकता।
आम निगाह में हिंदी को फिल्मों, नाच- गानों और टीवी सीरियल की भाषा से अधिक नहीं समझा जाता। हिंदी में जिस तरह वीर रसात्मक और हास्यास्पद कवि सम्मेलन होते हैं, दूसरी किसी भाषा में नहीं होते! जो लोग हिंदी नहीं समझते, वे सिर्फ हिंदी गानों और म्यूजिक की वजह से हिंदी को जानते हैं। कई बार लगता है कि हिंदी सिर्फ इसलिए सुरक्षित है कि यह मनोरंजन उद्योग की भाषा है। साहित्य की किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने की सबसे कम रुचि हिंदी लोगों में है। यदि नेताओं, मीडिया एंकरों और इधर की युद्धात्मक बहसों की हिंदी देखें तो अपशब्दों और कुतर्कों से सबसे अधिक प्रदूषित हिंदी भाषा हुई है!
यह सब हिंदी की दुखांत की है या इस भाषा के गौरव का चिन्ह, इसपर विचार करना चाहिए। हिंदी दिवस जरूर मनाइए, लेकिन सोचना ऐसी चीज नहीं है, जिसे हम भूल जाएं!!
(साभार)