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सरकार ना तो पेगासस के उपयोग से इनकार कर रही है ना स्वीकार कर रही है
पेगासस मामले में आज के अखबारों में एक प्रमुख खबर है। मेरे पांचों अखबारों में लीड है। कुछेक अखबारों के शीर्षक से आपको इस खबर की महत्ता चाहे न समझ में आए पर खबर यही है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताने से मना कर दिया है कि उसने या उसकी किसी एजेंसी ने पेगासस का (गैर कानूनी) उपयोग किया या नहीं। वह इसका खुलासा नहीं करेगी। यानी सरकार पेगासस का उपयोग करने से इनकार नहीं कर रही है। स्वीकार तो नहीं ही कर रही है। दूसरे मामलों से इस बात की पूरी आशंका है कि पेगासस का उपयोग नागरिकों के खिलाफ किया गया है और मुमकिन है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में झूठ नहीं बोलना चाहती हो इसलिए अस्वीकार नहीं कर रही है और यही स्वीकारोक्ति है। मामला अदालत में है, फैसला सरकार और सुप्रीम कोर्ट को करना है इसलिए मैं सिर्फ शीर्षक और खबर की बात करूंगा और कहूंगा कि आज की खबर सबसे अच्छी तरह हिन्दुस्तान टाइम्स ने छापी है। शीर्षक है, "सरकार नहीं बताएगी कि उसने पेगासस का उपयोग किया या नहीं, सुप्रीम कोर्ट से कहा गया"। इस खबर का उपशीर्षक है, "सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नागरिकों के खिलाफ जासूसी वाले सॉफ्टवेयर का उपयोग किया गया कि नहीं इसका खुलासा करने वाला शपथपत्र दाखिल करने से सरकार के इनकार करने पर वह अंतरिम आदेश पास करेगी"।
कहने की जरूरत नहीं है कि अदालत का आदेश चाहे जो हो सरकार ने जासूसी करवाई है और वह अवैध है तभी वह स्वीकार नहीं कर रही है और मना भी नहीं कर रही है। मामला सुप्रीम कोर्ट को देखना है पर मेरे पास साधन होते और मैं अदालत से अपील कर पाता तो यही कहता कि जो सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा तो छोड़िए अवैध जासूसी करवाती है उसे सत्ता में रहने का हक नहीं है और यह सरकार जैसे काम कर रही है उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को पहचानना मुश्किल नहीं है और उसे हटाया ही जाना चाहिए। मुझे नहीं पता कानूनन ऐसी मांग संभव है कि नहीं और मांग की जाए तो क्या होगा पर जो आदमी बड़ी-बड़ी बातें करके सत्ता में आया वह अगर नागरिकों की जासूसी करवाए, उसके राज में लोगों के कंप्यूटर में सबूत प्लांट कर गिरफ्तार करने के आरोप लगें और विरोधियों से निपटने का इतना अनैतिक तरीका अपनाया जाए तो कानून का शासन कहां रह जाता है और कोर्ट भी कहां-कहां नजर रखेगी, ऐसे व्यक्ति (या सरकार को) तुरंत हटाया जाना चाहिए।
मेरे जैसे लोगों की इस भावना को सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचाने का काम अखबारों का था पर अखबार यह काम नहीं करते हैं। मैं पिछले कुछ महीने से बताता रहा हूं कि सरकार और सरकार समर्थक मीडिया हेडलाइन मैनजमेंट करते हैं। अखबार अमूमन सरकार का समर्थन करते हैं और आज यह नहीं लिखा कि सरकार पेगासस का उपयोग करना स्वीकार नहीं कर रही है पर अस्वीकार भी नहीं कर रही है तो इसका क्या मतलब होता है। द टेलीग्राफ ने इस खबर का शीर्षक लगाया है, "पेगासस पर सरकार के लिए डेडलाइन" (अंतिम समय)। फ्लैग शीर्षक है, "सुप्रीम कोर्ट ने (सरकार को) तीन दिन दिए कि वह फालतू बातें छोड़कर मुद्दे की बात करे" (स्टॉप बीटिंग अराउंड द बुश)। इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक यही है, "इधर-उधर की बातें छोड़िए, क्या सरकार ने पेगासस का अवैध उपयोग किया : सुप्रीम कोर्ट"। फ्लैग शीर्षक है, "सरकार ने अंतरिम आदेश सुरक्षित रखा"। उपशीर्षक है, "नागरिकों ने हमारे समक्ष आरोप लगाया है कि उनकी निजता का उल्लंघन हुआ है : सुप्रीम कोर्ट पीठ"; "सरकार ने कहा कि कोई नया शपथपत्र नहीं देगी, पैनल आरोपों की जांच कर ले"।
कहने की जरूरत नहीं है कि इंडियन एक्सप्रेस के इस शीर्षक से लग रहा है कि सरकार निर्दोष है और उसे जांच का कोई डर नहीं है। पर मुद्दा यह है कि वह निर्दोष है तो कह क्यों नहीं रही है और नहीं कह रही है तो क्यों माना जाए कि वह निर्दोष है। पर अखबार का संपादकीय विवेक उसे सच को साफ-साफ कहने से रोकता है तो यह याद दिलाया जाना चाहिए कि गलती करके माफी मांगने का भी एक विकल्प होता है और सरकार ने अभी तक वह भी नहीं किया है। ऐसे में सरकार किस और कैसी जांच की बात कर रही है क्या सरकार के नहीं चाहने पर भी किसी जांच से सच साबित हो सकता है और सरकार ऐसे मामलों में किसका फैसला मान लेगी। क्या विरोधियों के कंप्यूटर में सॉफ्टवेयर डालकर फर्जी सबूत प्लांट करने के मामले की शीघ्रता से जांच नहीं होनी चाहिए। वह मामला क्यों लटका हुआ है। ऐसी स्थिति में जब सरकार खुद ही गैर कानूनी काम कर रही लगती है, क्या उसे सत्ता में बने रहने का हक है। पहले जिसपर आरोप लगते थे उसका इस्तीफा ले लिया जाता था (या वह दे देता था) ताकि जांच निष्पक्ष हो सके और दोषी या अपराधी जांच को अपने प्रभाव से प्रभावित नहीं कर सके। लेकिन भाजपा राज में ऐसा नहीं होता है - यह पहले कहा जा चुका है।
द हिन्दू में इस खबर का शीर्षक है, "सुप्रीम कोर्ट पेगासस मामले में अंतरिम आदेश जारी करेगी"। उपशीर्षक है, "सरकार ने जासूसी के आरोपों पर विस्तृत शपथपत्र दाखिल करने से इनकार किया"। मुझे लगता है कि यह मामला महत्वपूर्ण है और सुरक्षा की आड़ में नागरिकों की जासूसी से संबंधित मामलों का विवरण नहीं देना सत्ता में होने का दुरुपयोग है। इतना हंगामा होने के बाद कायदे से सरकार को बताना चाहिए कि किन नागरिकों पर क्या आरोप थे, किनकी जांच हुई और जांच में क्या मिला या नहीं मिला। अगर सरकार ऐसे विवरण नहीं देगी तो साफ है कि वह सुरक्षा के नाम पर असीमित अधिकार चाहती है। इसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है और ऐसे अधिकार मांगने या चाहने का ठोस आधार नहीं है। द हिन्दू ने सरकारी अधिवक्ता का पक्ष प्रमुखता से छापा है। इसमें उन्होंने कहा है कि वे जांच के खिलाफ नहीं हैं। साथ ही मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी भी है। इसमें उन्होंने कहा है, "आरोपों के मद्देनजर हमारी चिन्ता सिर्फ यह है कि नागरिकों के खिलाफ किसी सॉफ्टवेयर का उपयोग किया गया है कि नहीं और किसी सरकारी एजेंसी ने इसके लिए किसी गैर कानूनी तरीके का उपयोग किया है कि नहीं"। पर मुख्य मुद्दे को अखबारों ने कैसे छापा है वह आप देख ही रहे हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इस खबर को लीड तो बनाया है पर शीर्षक गोल-मोल ही है। "पेगासस विवाद में जांच के तरीके पर फैसला इस हफ्ते : सुप्रीम कोर्ट"। हालांकि, अखबार ने मुख्य न्यायाधीश और सरकारी वकील तुषार मेहता की बातों के साथ कपिल सिब्बल को भी प्रमुखता से छापा है। उन्होंने कहा है, "लगता है कि केंद्र ने पेगागस का उपयोग किया है। इसीलिए उसने एनएसओ या इसका उपयोग करने वाली किसी भी एजेंसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है ना ही एफआईआर करवाई है जबकि उसने संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में स्वीकार किया है कि उससे जासूसी की जानकारी थी।" इसके बाद इस मामले में सरकार की भूमिका को लेकर कुछ रह नहीं जाता है और ना जांच से कुछ निकलने की उम्मीद है। वैसे भी, तुषार मेहता ने कहा है कि याचिकाकर्ता जांच के लिए अपने फोन समिति के समक्ष जमा कराएं। पर कंप्यूटर में हार्डवेयर प्लांट करने के मामले में जो जांच रिपोर्ट आ चुकी है उसपर किसी को कुछ याद नहीं है।
संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार