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इतिहास संकट का : कोविड 19 के सबक, इस खबर की न पढ़कर आप बहुत बड़ा गुनाह कर रहे है
स्कन्द शुक्ला
वे नयी एंटीबायटिकों और टीकारण के 'अभिमानी' दिन थे , जब मूर्धन्य माइक्रोबायलॉजिस्टों मैकफ़ार्लेन बर्नेट और डेविड ह्वाइट ने सन् 1972 में भविष्यवाणी की थी : 'संक्रामक रोगों का भविष्य बहुत ही सुस्त होने वाला है।' उन्होंने यद्यपि यह माना कि कुछ नवीन अनसोचे और खतरनाक संक्रामक रोगों के मानव-समाज में उभरने का ख़तरा बना रहेगा , पर पिछले पचास सालों में ऐसा कुछ हुआ नहीं। महामारियाँ ऐसे में केवल इतिहासकारों के रुचि का विषय बन कर रह जाएँगी।
समय बदला। सन् 1970 में हर्पीज़ और लेजियोनायर्स रोग से लेकर आगे फिर एड्स , इबोला , सार्स और अब कोविड 19 --- मानव-समाज पर संक्रामक रोगों के ख़तरे एक-के-बाद-एक आते गये हैं। महामारियों के इतिहासकारों के पास ऐसे में हमें सिखाने के लिए बहुत कुछ है। जब भी उनसे पूछा जाता है , तब वे स्थानीय परिस्थितियों पर सबसे पहले बात करते हैं। लेकिन इसका एकदम एक विरोधी पहलू भी वे हमें बताते हैं : उन वैश्विक सत्यों को पहचाना जाए , जो तब सामने आते हैं जब कोई संक्रामक महामारी समाज में फैलती है।
चार्ल्स रोज़नबर्ग चिकित्सा-इतिहासकार हैं। उनके अनुसार महामारियाँ ( सामाजिक तौर पर ) नाटकीय अंदाज़ में तीन चरणों में खुलती हैं। आरम्भिक चरण अत्यधिक मद्धिम होते हैं। लोग स्वयं को समझाते हैं , दिलासा देते हैं। वे अपने आर्थिक हितों की रक्षा में लग जाते हैं। वे बीमारी की तीव्रता और उसके कारण होने वाली मौतों को समझ न पाने के कारण उन पर ध्यान दे नहीं पाते।
फिर दूसरा चरण आता है , जब वे रोग को समझने लगते हैं। तब वे उत्तरदायित्व और दोषारोपण करने में जुटते हैं। कारण और वजह गिनाते हैं , ये दोनों तरह की हो सकती हैं। वैज्ञानिक ( मेकैनिस्टिक ) वजहें और नैतिक वजहें भी। उन्हें समझाया जाता है। समझाने पर जनता की प्रतिक्रिया आती है। इसके बाद तीसरा चरण आरम्भ होता है , जब अकुलाहट और नाटकीयता अपने चरम पर पहुँच जाती है और तन्त्र अस्तव्यस्त हो जाता है।
सम्यक् सामाजिक प्रतिक्रिया अथवा नये रोगी शरीर न मिल सकने के कारण महामारियाँ अन्ततः बीत जाती हैं। पर वे जिस समाज से होती हुई गुज़रती हैं , उस पर बेतहाशा दबाव बनाती हैं। समाज के वे हिस्से जो अब-तक अदृश्य थे , अब सबको नज़र आने लगते हैं। महामारियाँ इस तरह से सामाजिक अन्वेषण की सैम्पलिंग करने में मदद करती हैं : यह बताते हुए कि जनसंख्या के लिए क्या, कितना और क्यों महत्त्वपूर्ण है।
महामारी-प्रतिक्रिया का एक नाटकीय पहलू उत्तरदायित्व तय करना है। बीमारी से ढेरों बीमार पड़ रहे और मर रहे हैं , दोषी कौन है ! किसी पर तो दोष जाएगा ही ! दोष डालते समय धर्म , जाति , नस्ल , वर्ग , लिंग के विभेदों को ध्यान में रखकर निर्णय किया जाएगा। सरकारें अपनी सत्ता का प्रयोग करती हैं : दबाव के साथ क्वारंटाइन अथवा टीकाकरण के दौर चलाये जाते हैं। इस दौरान भी तरह-तरह के सामाजिक संघर्ष देखने को मिलते हैं।
महामारियों के ऐतिहासिक अन्वेषण के बाद एक बात और खुलती है कि स्वास्थ्य-प्रतिरोध बहुधा वह कर नहीं पाते , जिसकी आशा जगाते हैं। स्मॉलपॉक्स यानी चेचक का टीका सन् 1798 में बना लिया गया था लेकिन इस रोग का उन्मूलन होने में एक सौ अस्सी साल लगे। सन् 1900 में जब सैन फ्रेंसिंस्को में जब प्लेग फैला , तब चायनाटाउन को चारों ओर रस्से से बाँधा गया और केवल गोरों को हर जगह जाने की अनुमति दी गयी। यह कोशिश ज़ाहिर है , प्लेग को रोकने में नाक़ामयाब रही ( क्योंकि चूहे अपनी मर्ज़ी से पूरे शहर में हर जगह जाने को स्वतन्त्र थे )।
आरम्भिक बीसवीं सदी का अभिशाप सिफ़िलिस नामक रोग ख़त्म हो सकता था , अगर हर व्यक्ति यौन के मामले में एक-सम्बन्धी होता अथवा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता। लेकिन जैसा कि एक अमेरिकी सेना के मेडिकल अफ़सर का कहना था , "सेक्स को अलोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता।" फिर जब बाज़ार में पेनिसिलिन आयी और सिफ़िलिस के रोगी घटने लगे, तब डॉक्टरों ने चेतावनी दी कि इसके कारण मानव-समाज और यौन के मामले में बहुसम्बन्धी हो जाएगा। सन् 1980 में एचआईवी आया और फिर नब्बे के दशक में एंटीरेट्रोवायरल दवाओं के आने के बाद एड्स के कारण होने वाली मौतों में कमी आयी , यद्यपि पूरी तरह से यह महामारी नहीं रुक सकी।
महामारियों की दो सामाजिक प्रतिक्रियाएँ दुःखद हैं। पहली यह कि कीटाणु का मूल ढूँढ़ते हुए लोग किसी ख़ास नस्ल , देश , धर्म , जाति , लिंग के लोगों के प्रति वैमनस्य-भाव से भर जाते हैं। चीन के खिलाफ़ ऐसे भाव आज पहली बार नहीं उभरे हैं। सन् 1900 में सैन फ्रांसिस्को में ऐसा हो चुका है। फिर सन् 2003 में सार्स के दौरान और फिर अब कोविड-19 के दौरान इसे फिर देखा जा रहा है। दूसरी कि महामारियाँ स्वास्थ्य-कर्मियों के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं। कई महामारियों में उनकी मौतें भी ख़ूब होती हैं। मध्यकालीन प्लेग और फिर पीतज्वर व इबोला-जैसे रोगों के दौरान ढेरों डॉक्टर अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। यद्यपि डॉक्टर स्वयं को जोखिम में डालकर रोगियों की सुश्रूषा करते हैं , पर यह सरकारों का उत्तरदायित्व है कि वे डॉक्टरों को हर तरह से कामकाज का सुरक्षित माहौल मुहैया कराएँ।
इतिहासकार महामारियों के अतीत के बारे में जितना बेहतरीन ढंग से बताते हैं , उतना वे महामारियों के भविष्य के बारे में नहीं बताते। वहाँ वे असहज हो जाते हैं। कोविड 19 का भविष्य क्या है ? कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि साल के अन्त तक आधी दुनिया इस विषाणु से संक्रमित हो चुकी होगी और लगभग सौ मिलियन मौतें होंगी। क्या हम कालचक्र के उन विषम क्षणों से गुज़र रहे हैं , जब ऐसी मृत्युकारक त्रासदियाँ होती हैं ? बढ़ती मानव-जनसंख्या , बढ़ता शहरीकरण , जंगल की अन्धाधुन्ध कटान , वैश्विक यात्राएँ , सामाजिक विषमताएँ --- इतनी सारी बातें हमें इतिहास के सबसे स्याह समय-बिन्दुओं पर खड़ा कर देती हैं।
लेकिन यह समय अतिशय अकुलाहट भी लाता है , जो ग़ैरज़रूरी है। पैनिक से महामारियों से नहीं लड़ा जा सकता। ऐसा कई बार हुआ है कि लोगों ने छोटे संक्रामक ख़तरों पर पैनिक मचाया और बड़े ख़तरों पर ध्यान ही नहीं दिया ! यह समय बहुत ध्यान से सोचने और प्लानिंग करके प्राथमिकताएँ तय करने का है।
अन्तिम बात महामारियों के राजनीतिक प्रभाव के उदाहरणों की। स्वाइन फ़्लू का भय सन् 1976 के अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव में व्याप्त हुआ , तब गेराल्ड फोर्ड ने तीव्रता के साथ सर्वजन-टीकाकरण कराना आरम्भ किया। टीके से लोगों को साइड-एफ़ेक्ट होने लगे और कुछ मृत्यु भी हुईं। जब महामारी उतनी विभीषक नहीं निकली , तब फोर्ड का प्लान धोखा दे गया और वे चुनाव हार गये। इसके विपरीत जब सन् 1981 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रोनल्ड रीगन ने एचआईवी-एड्स पर वैसा ध्यान नहीं दिया और वे बहुमत से चुनाव जीते।
महामारियों का इतिहास बहुत सारा परामर्श देता है। पर केवल उन्हें जो विवेकपूर्ण ढंग से इतिहास पढ़ना जानते हैं।
--- स्कन्द।
( न्यूइंग्लैण्ड जनरल ऑफ़ मेडिसिन में डेविड एस-जोन्स के विचार पढ़ते हुए। )