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चीन को लेकर PM मोदी से कैसे अलग थी अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति!

Shiv Kumar Mishra
18 Jun 2020 4:05 PM IST
चीन को लेकर PM मोदी से कैसे अलग थी अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति!
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पीएम नरेंद्र मोदी ने चीन के साथ रिश्ते सुधारने के लिए हरसंभव पहल की और 5 बार खुद वहां का दौरा किया. वहीं, अटल बिहारी वाजपेयी ने पीएम रहते हुए महज एक बार चीन का दौरा किया.

लद्दाख में गलवान घाटी के पास सोमवार की रात भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें देश के 20 जवान शहीद हो गए. इसके चलते भारत-चीन के संबंधों में एक बार फिर दरार पड़ गई है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के साथ रिश्ते सुधारने के लिए हरसंभव पहल की और 5 बार खुद वहां का दौरा किया है. वहीं, इससे पहले एनडीए की सरकार चलाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में महज एक बार चीन का दौरा किया था. चीन को लेकर उनकी अपनी अलग नीति थी, जिसके दम पर वह भारत-चीन संबंधों और सीमा संबंधी मसले का हल निकाल रहे थे.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के सीधे विरोध पर चुप रहा है भारत

पीएम नरेंद्र मोदी के मौजूदा कार्यकाल में चीन के साथ न केवल गलवान घाटी में विवाद हुआ है, बल्कि इससे पहले भी 2017 में डोकलाम को लेकर दोनों देशों में तनाव बढ़ गया था. इन दोनों मौकों के अलावा भी मौजूदा सरकार में चीन के साथ सीमा पर छिटपुट तनाव की घटनाएं होती रही हैं. यही नहीं, महामारी कोरोना के समय में भी चीन को अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के कुछ देशों का विरोध झेलना पड़ा. इसके अलावा अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर के चलते भी चीन सुर्खियों में रहा है. इन दोनों मौकों पर भारत ने विरोध या समर्थन का स्पष्ट रुख नहीं अपनाया. यही नहीं, पाकिस्तान की जमीन से भारतीय सीमा में आतंक को बढ़ावा देने के मौके पर भी चीन अक्सर भारत के विरोध में खड़ा रहा है.

दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं: वाजपेयी

पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने इंडिया टुडे में अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति को लेकर एक लेख लिखा था. इस में उन्होंने कहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी देश नहीं. वह हमेशा भारत के पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों की वकालत किया करते थे लेकिन सुरक्षा की कीमत पर किसी तरह का समझौता नहीं किया.

अटल बिहारी वाजपेयी 1979 में चीन के बीजिंग का दौरा करने वाले पहले भारतीय विदेश मंत्री थे. यह उस समय का उनका एक बेहद साहसिक फैसला था, जिसके बाद से ही भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरने की कवायद शुरू हुई. शिवशंकर मेनन कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की शख्सियत से चीन भी बेहद प्रभावित था, लेकिन वाजपेयी की अपनी अलग सोच थी.

वाजपेयी ने लिया था कड़ा रुख, दिया स्पष्ट संदेश

बता दें कि 1979 में चीन ने सीमा विवाद को लेकर वियतनाम पर हमला कर दिया था. वह वियतनाम को सबक सिखाना चाहता था लेकिन खुद उसकी ही फजीहत हो गई थी. इस युद्ध में भारत ने वियतनाम का का खुलकर पक्ष लिया था. अटल बिहारी वाजपेयी उस समय विदेश मंत्री थे. फरवरी 1979 में चीन ने वियतनाम पर हमला किया तो उस समय वाजपेयी चीन की यात्रा पर थे. भारत ने चीन के हमले का विरोध किया और वाजपेयी चीन की यात्रा बीच में छोड़ कर भारत लौट आए थे.

मेनन लिखते हैं कि 1993 में जब हमने चीन के साथ सीमा पर शांति और सुलह बहाल करने के लिए बातचीत शुरू की तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मुझसे कहा था कि आप नियमित रूप से कुछ अटल बिहारी वाजपेयी को इस संबंध में जानकारी देते रहिएगा, जो उस समय विपक्ष का नेतृत्व कर रहे थे. वाजपेयी को जब भी महसूस होता कि कोई बातचीत भारत के हित में है तो उस संबंध में उपयुक्त और सार्थक सुझाव देने से वे परहेज नहीं करते थे. चीन को लेकर उनका नजरिया एक दम साफ था.

परमाणु परीक्षण के तनाव के बीच सीमा विवाद पर नया सुझाव

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भारत ने 1998 में पोखरण-2 का परिक्षण किया तो चीन ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी. वहीं, तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए विशेष प्रतिनिधि (एसआर) प्रणाली का गठन कर दिया था. परमाणु परीक्षण के पांच साल बाद 2003 में वाजपेयी ने चीन का दौरा किया. इस दौरान वह बीजिंग गए तो शक और आशंकाओं से घिरे चीनी नेताओं के सामने उन्होंने सीमा संबंधी सवालों पर विशेष प्रतिनिधियों को बहाल करने का नया विचार पेश किया था.

मेनन कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने दो दिवसीय दौरे में हरेक चीनी नेता से बात की. इस दौरान जैसे-जैसे वह यह साफ करते गए कि सीमा संबंधी सवालों पर बनने वाला विशेष प्रतिनिधि समूह क्या-क्या कर सकता है, भारत-चीन संबंधों और सीमा संबंधी मसले पर प्रधानमंत्री वाजपेयी के नए राजनैतिक दृष्टिकोण पर स्वीकृति और सहमति बनती गई.

सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने पर किया राजी

इसी दौरान वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का क्षेत्र माना, लेकिन बदले में वह चीन से सिक्कम को भारत का सूबा स्वीकार कराने ही नहीं बल्कि इसकी मान्यता दिलाने में भी सफल रहे. शिवशंकर मेनन अपने लेख कहते हैं कि मैं चीन से लौटने पर वाजपेयी से मिलने पहुंचा तो उन्होंने एक सवाल किया, 'चीन ने इतनी छलांग कैसे मारी.' इसके बाद अगले 40 मिनट उन्होंने मुझे चीन के विकास, भारत कैसे चीन से भिन्न है और मुझे चीन में क्या देखना चाहिए, पर एक ट्यूटोरियल भी दिया. इस पर जब सोचते हैं तब आपको एहसास होता है कि आपको बहुत गहन जानकारी थमाई गई है जिसे देते समय उनके रुख में सिखाने का नहीं बल्कि सलाह का भाव छिपा रहता था.

चीन की सीमा नीति के नए वास्तुकार थे वाजपेयी

चाइना रिफॉर्म फोरम में सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक स्टडीज के निदेशक मा जियाली ने 2018 में अपने लेख में बताया कि कैसे पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को 1998 में परमाणु परीक्षण से लेकर 2003 में नई सीमा वार्ता प्रक्रिया शुरू करने तक भारत की चीन नीति का वास्तुकार माना जाता है. वो कहते हैं कि 2003 में वाजपेयी की चीन यात्रा से द्विपक्षीय संबंधों में काफी स्थिरता आई. वाजपेयी के शासनकाल के दौरान भारत-चीन के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी सुधार हुआ था.

कड़ा संदेश देने में पीछे नहीं रही अटल सरकार

हालांकि, अटल बिहारी सरकार में जॉर्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री हुआ करते थे. 1998 में पोखरण परीक्षण पर चीन ने प्रतिक्रिया जाहिर की थी. इसी दौरान जॉर्ज फर्नांडिस ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि जिस तरह से चीन पाकिस्तान को मिसाइलें और म्यांमार के सैनिक शासन को सैनिक सहायता दे रहा है और भारत को जमीन और समुद्र के ज़रिए घेरने की कोशिश कर रहा है, उससे तो यही लगता है कि चीन हमारा दुश्मन नंबर वन है. जॉर्ज के इस बयान को लेकर बीजेपी सहित कांग्रेस नेताओं तक ने एतराज जताया था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ नहीं कहा था. इस तरह से माना गया था कि वाजपेयी का जॉर्ज को मौन समर्थन है.

अपनी देखरेख में सीमा विवाद का हल चाहते थे वाजपेयी

भारत के साथ सीमा विवाद में लंबे समय तक वार्ताकार रहे चीन के दाई बिंगुओ ने 2016 में अपने संस्मरण में लिखा कि वाजपेयी चीन-भारत सीमा विवाद को जल्द सुलझाने के लिए इच्छुक थे, लेकिन 2004 के आम चुनावों में हारने के कारण यह अवसर खत्म हो गया. दाई ने अपनी किताब में लिखा कि वाजपेयी चाहते थे कि वर्तमान सीमा समझौते से एसआर खुद को अलग कर ले और अपने प्रधानमंत्री को प्रगति के बारे में सीधा रिपोर्ट दे ताकि 'राजनीतिक स्तर पर' इसका समाधान निकाला जा सके.

जब चीन नीति पर नेहरू सरकार को घेरा

बता दें कि अटल बिहारी वाजपेयी ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेहरू सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ा दी थीं. वाजपेयी उस समय राज्यसभा के सदस्य हुआ करते थे। 9 नवंबर 1962 को आहूत संसद के विशेष सत्र में उन्होंने राज्यसभा में अपने लंबे भाषण के दौरान सरकार की विदेश और रक्षा नीति को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू पर तीखे हमले किए. कांग्रेस के पास उस समय दोनों सदनों में बहुमत था लेकिन बिना किसी टोका-टाकी के वाजपेयी और अन्य विपक्षी नेताओं को सुना गया था. वाजपेयी के उस वक्तव्य के काफी समय तक चर्चे रहे थे.

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