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तेरी मर्जी के मुताबिक नजर आएं कैसे?

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24 Oct 2019 7:54 AM GMT
तेरी मर्जी के मुताबिक नजर आएं कैसे?
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वर्ष 2010-11 में जहां जीडीपी के मुकाबले राजस्व प्राप्तियां 10.1 फीसदी पर थी, वह 2018-19 में 8.2 फीसदी पर आ गयी है। कमाई गिरने की वजह डिमांड कम होना है।

प्रो. दिग्विजय नाथ झा

जैसे ही गत 30 अगस्त, 2019 को मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 19) के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी हुए तो गत वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 18) में अर्थव्यवस्था में आयी सुस्ती के आहट की चिंताजनक हकीकत से इनकार करने वाले घोर आशावादी भी हक्का-बक्का रह गये। मुझे यहां यह कहने में बिल्कुल भी हिचक नहीं कि लगातार छठी तिमाही में भारत की जीडीपी वृद्धि दर गोता लगा गयी और सकल घरेलू उत्पाद की वैश्विक रैकिंग में भारतीय अर्थव्यवस्था पांचवें स्थान से फिसलकर सातवें नंबर पर आ गयी है। विश्व बैंक के वर्ष 2018 के आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था की जीडीपी 2.65 ट्रिलियन डॉलर पर थी, जिसने एशिया की तीसरी सबसे बड़ी उभरती इकोनॉमी को विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया था और उस दौरान ब्रिटेन की जीडीपी 2.64 ट्रिलियन डॉलर एवं फ्रांस की जीडीपी 2.50 ट्रिलियन डॉलर पर थी, जबकि कारोबारी साल 2018 में अमेरिका की जीडीपी 20.5 ट्रिलियन डालर, चीन की जीडीपी 13.6 ट्रिलियन डालर, जापान की जीडीपी 5.00 ट्रिलियन डालर, जर्मनी की जीडीपी 4.0 ट्रिलियन डॉलर, ब्रिटेन की जीडीपी 2.8 ट्रिलियन डॉलर, फ्रांस की जीडीपी 2.8 ट्रिलियन डॉलर एवं भारत की जीडीपी 2.7 ट्रिलियन डालर दर्ज की गयी है, बावजूद इसके कि नरेंद्र दामोदर दास मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 तक दोगुना करने के सपने दिखा रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के ही वरिष्ठ नेता व प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी 5.0 ट्रिलियन डॉलर की इंडियन इकोनॉमी के सपने साल 2024 तक नहीं देखने की भारतीयों से अपील कर रहे हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार खुलेआम कह रहे हैं कि भारत सत्तज्ञर सालों के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा हैएवं भारतीय बाजार कैश की किल्लत से जूझ रहा है।

सर्वाधिक दुःखद दिलचस्प तो यह है कि गत 30 अगस्त, 2019 को जिस समय केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण प्रेस कांफ्रेंस में दस सरकारी बैंकों के विलय का एलान कर रही थी और कह रही थी कि इस विलय से कर्ज की उपलब्धता तथा खपत बढ़ेगी, उसी समय केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की ओर से बेहद ही बुरी खबर आयी कि जीडीपी ग्रोथ रेट में जारी गिरावट का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रही है। वित्तीय वर्ष 2017-18 के आखिरी तिमाही (जनवरी -मार्च 18) में भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट 8.1 फीसदी थी, जो कि गिरकर वित्तीय साल 2018-19 की पहली तिमाही (अप्रैल -जून 19) में 7.9 फीसदी, दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर 18) में 7.0 फीसदी, तीसरी तिमाही (अक्तूबर-दिसंबर 18) में 6.6 फीसदी, चौथी तिमाही (जनवरी -मार्च 19) में 5.8 फीसदी और मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 2019) में 5.0 फीसदी पर पहुंच गयी है, बावजूद इसके कि मौजूदा प्रधानमंत्री के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मणयम ने अपने रिसर्च पेपर में साक्ष्यों पर आधारित यह दावा किया है कि बीते पांच सालों में भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट को संभवतः 2.5 फीसदी के करीब बढ़ाकर दिखाया गया है और श्री सुब्रह्मणयम के इस रिसर्च पेपर को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रकाशित किया गया है।

यद्यपि, जीडीपी ग्रोथ रेट में आयी गिरावट के कुप्रभाव को जानने के लिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की डिग्री की जरूरत नहीं है। इंडियन इकोनॉमी का एबीसीडीजानने वाले भी इससे भली-भांति वाकिफ है कि यदि भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट में एक फीसदी की गिरावट आती है तो प्रतिव्यक्ति की सालाना आय में 1264 रुपये की कमी आ जाएगी। इकोनामी के मोर्चे पर मोदी की रणनीति ने भारत की अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। स्वयं देश की मौजूदा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के पति पर कला प्रभाकर ने देश की अर्थव्यवस्था की नरेंद्र मोदी की समझ पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं और नेहरू मॉडल की आलोचना नहीं करने की नसीहत दे डाली है। आकस्मिक व लक्ष्यविहीन नियमों में 60 से अधिक बदलावों वाले नोटबंदी, 300 से अधिक बदलावों वाले जीएसटी और तीन वर्षों के भीतर एक दर्जन से ज्यादा संशोधनों वाले दिवालियापन (आईबीसी) कानून, 2016 को नहीं भूलना चाहिए। मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में आर्थिक नीतियों की अनिश्चिशतता इंडियन इकोनॉमी की सबसे बड़ी मुसीबत है। नोटबंदी के पीएम के फैसले से सरकारी कोषागार में ब्लैकमनी वापस नहीं लोटी, वस्तु व सेवा कर प्रावधानों के लागू होने के बाद जीडीपी ग्रोथ रेट की रफ्तार धीमी पड़ गयी और आईबीसी एक्ट के प्रभाव से बैंकों के मिजाज नहीं बदले।

इंडियन इकोनॉमी में नीतियों की अनिश्चितता और उसके नतीजे का आलम यह है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 के बजट पेश किये जाने के महज सौ दिन भी पूरे नहीं हुए कि निर्मला सीतारमण ने यू-टर्न ले ली तथा उम्मीद जतायी कि अब इकोनॉमी पटरी पर लौटेगी। बकायदा प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश यात्रा पर रहते हुए ट्वीट किया और भरोसा जताया कि अब कारोबार करना आसान होगा बाजार में मांग बढ़ेगी, क्रेडिट बढ़ेगा व अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन तीस दिनों बाद भी हकीकत यही है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के बढ़े पांच नये कदम (सुपर रईसों पर बढ़ा है टैक्स हटाना, एंजेल टैक्स खत्म करना, बैंकों को घाटे से उबारने के लिए 70 हजार करोड़ देना, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को राहत देते हुए इलेक्ट्रिक वाहन की गति धीमी करना एवं मकान -वाहन कर्ज में 0.3 फीसदी बयाज दर की कमी करना) से अर्थव्यवस्था के मिजाज परिवर्तित नहीं हुए हैं और ऐसा सिर्फ व सिर्फ इसलिए कि तकरीबन 1.5 लाख करोड़ रुपये के तोहफे जिन चुनिंदा कंपनियों को मिले हैं, उनमें से अधिकांश इसे ग्राहकों में नहीं बाटेंगी, बल्कि सौ फीसदी स्वयं निगल जाएंगी। सच यह है कि इस खुराक से बाजार में मांग नहीं बढ़ेंगी। कंपनियों पर टैक्स को लेकर मौजूदा सरकार के काम करने का तरीका अनोखा है, मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कंपनियों पर जमकर टैक्स थोपा।

शेयर बाजार में सूचीबद्ध शीर्ष कंपनियों की कमाई पर टैक्स की प्रभावी दर (रियायतें आदि काटकर) वर्ष 2014 में 27 फीसदी थी, जो बढ़ते हुए वर्ष 2019 में 33 फीसदी पर आयी, अब इसे घटाकर 27.6 फीसदी पर किया गया है। कौन जवाब देगा कि औद्योगिक निवेश तो वर्ष 2014 से गिर रहा है तो टैक्स क्यों बढ़ा अथवा कि नये बजट में कंपनियों की कमाई पर सरचार्ज क्यों बढ़ाया गया? लेकिन हमें यह पता है कि ताजा टैक्स रियायत भारत के इतिहास का सबसे बढ़ा कार्पोरेट तोहफा है। क्रिसिल रिसर्च के दावे पर यकीन करें तो 1074 ब़ड़ी कंपनियों (वर्ष 2018 में कारोबार 1000 करोड़ रुपये से ऊपर) को इस रियायत में सबसे ज्यादा यानी कि 37 हजार करोड़ रुपये का सीटा फायदा पहुंचेगा, जो कुल कार्पोरेट टैक्स संग्रह में 40 फीसदी हिस्सा रखती है। इन पर लगने वाला टैक्स अन्य कंपनियों से ज्यादा था। ये कंपनियां करीब 80 उद्योगों में फैली है तथा नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के बाजार पंूंजीकरण में 70 फीसदी की हिस्सेदार है, इस लिए शेयर बाजार में तेजी का बुलबुला बना था।

वर्ष 2018 में करीब 25 हजार कंपनियों ने मुनाफा कमाया, जो सरकार के कुल टैक्स संग्रह में 60 फीसदी योगदान करती है। इंडियन इकोनॉमी के कुछ बुनियादी तथ्यों की रोशनी में बाजार व निवेश खुद से ही यह पूछ रहे हैं 1074 कंपनियों को टैक्स में छूट से भला मांग कैसे लौटेगी और अर्थव्यवस्था में छाई सुस्ती कैसे दूर होगी? रोनाल्ड रीगन के ये कथन नरेंद्र मोदी की सरकार पर पूरी तरह सटीक बैठती है कि सरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करती, बल्कि नये क्रम में पुनर्गठित कर देती है। बहरहाल, अर्थशास्त्र में नोबल अबार्ड से सम्मानित अमर्त्य सेन व अभिजीत बनर्जी समेत डॉ. मनमोहन सिंह, डॉ. रघुराम राजन, डॉ. अरविंद सुब्रह्मण्यम, डॉ. शंकर आचार्य और पुलापरे बालाकृष्णन सरीखे वित्त विशेषज्ञों ने जहां इंडियन इकोनामी के मोर्चे पर प्रधानमंत्री मोदी की रणनीति को भारत के लिए अक्षरशः अनिष्टकारी करार दिया है, वहीं अर्थव्यवस्था की सेहत से सभी सूचकांक सुस्ती के गहराने की ओर इशारा कर रहे हैं। अतर्राष्ट्रीय मुद्रकोष की नयी प्रमुख क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने भारतीय अर्थव्यवस्था में छाई सुस्ती को बेहद ही चिंताजनक बताया है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन लघु उद्योग भारतीय का मानना है कि अर्थव्यवस्था में छाई सुस्ती छद्म आंकड़ों के जरिए आर्थिक नाकामियों को ढ़कने की स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की कोशिश का नतीजा है।

इसे बेशर्मी की हद ही कहेंगे कि तमाम लानत-मलामत के बावजूद वित्तमंत्रालय ने सीएजी को जीएसटी के अखिल भारतीय आंकड़े का आडिट करने की छूट नहीं दी और अब जबकि आरबीआई व मूडीज से लेकर दुनिया की सभी प्रमुख एजेंसियों ने मौजूदा वित्त वर्ष के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर को लेकर अपने अनुमान छटा दिये हैं तो सहज ही समझ में आ रही है इकोनामी साइक्लिक स्लोडाउन से स्ट्रक्चर एलोडाउन में पहुंच गयी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने जहां वर्ष 2019-20 के लिए 6.9 फीसदी रहने का अनुमान जताया है। यानी कि आने वाले दिनों में भी स्थिति में बहुत सुधार की गुंजाइश नहीं दिख रही है तथा तमाम क्षेत्रों की आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती शीशे की तरह साफ-साफ नजर आ रही है। कृषि, वानिकी व मछली पालन वर्ष 2018-19 में 2.9 फीसदी की दर से बढ़ा, जबकि एक साल पहले 5.0 फीसदी की दर से बढ़ा था। खनन क्षेत्र पिछले साल के 5.1 फीसदी के मुकाबले 1.3 फीसदी की दर से बढ़ा। बिजली, गैस, जलापूर्ति और दूसरी उपयोगी सेवाएं वर्ष 2017-18 के 8.6 फीसदी के मुकाबले 7.0 फीसदी की दर से वर्ष 2018-19 में बढ़ी। नब्बे के दशक से अर्थव्यवस्था की चमकती तस्वीर पेश करने वाले वाहन उद्योग की वृद्धि दर जुलाई 2019 में 15.3 फीसदी के निगेटिव रेट पर आ गयी है, जबकि वर्ष 2018 के जनवरी माह तक भारत का ऑटो मोबाइल सेक्टर 31 फीसदी की दर से ग्रोथ कर रहा था। ऑटोमोबाइल सेक्टर में आयी सुस्ती की वजहों से दो लाख से अधिक नौकरियां अब तक खत्म हो गयी है तथा दस लाख से ज्यादा नौकरियां संकट में है।

तकरीबन एक करोड़ भारतीयों को रोजगार देने वाले जेम्स एंड ज्वैलरी सेक्टर में 75 फीसदी तक बिजनेस बीते तीन महीनों में गिर गया है और इसकी सबसे बड़ी वजह गोल्ड पर इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाया जाना है। करीब 150 अरब डॉलर का कारोबार करने वाला टेक्सटाइल सेक्टर भी सुस्ती की मारझेल रहा है। मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में कॉटन यार्न का निर्यात 33 फीसदी तक गिर चुका है और डॉलर के मुकाबले कमजोर रुपये ने इस सेक्टर की हालत ज्यादा ही बिगाड़ दी है, जिससे दस करोड़ भारतीयों के रोजी-रोटी खतरे में है। वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर पांच साल के निचले स्तर (5.0 प्रतिशत) पर रही और बेरोजगारी की दर (6.1 प्रतिशत) 45 साल में सबसे ज्यादा। ऐसे में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला (वर्ष 2017-18 की सबसे ताजा सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 11,1 करोड़) एमएसएमई सेक्टर की जैसे रीढ़ ही टूटती जा रही है। कहीं कारखाने बंद होने का सिलसिला जारी है तो कहीं खपत घटने में उत्पादन सिकुड़ रहा है और रोजगार छिन रहे हैं। खपत में आयी गिरावट के कारण बीते तीन महीनों में पारल, ब्रिटानिया व हिंदुस्तान यूनिलीवर सरीखे एमएसएमई सेक्टर के प्रतिष्ठित कंपनियों को अपने-अपने यहां से 8 से 10 हजार वर्करों की छुट्टी करनी पड़ी है।

खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में एमएसएमई सेक्टर का सबसे बड़ा योगदान है, पर इकोनॉमी में छाई सुस्ती का हाल यह है कि इस समय भारत की बड़ी आबादी पांच रुपये का बिस्कुट खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है, बावजूद इसके कि गत 15 अक्तूबर , 2019 को वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) ने भूखमरी से जूझ रहे जिन 117 देशों की सूची जारी है, उनमें भारत 102 वें नंबर पर हैं, जबकि पड़ोसी देश पाकिस्तान 94 वें, बांग्लादेश 88वें, नेपाल 73वें, श्रीलंका 66वें पायदान पर है और भारत से बेहतर स्थिति में है। जीएसआई ने वर्ष 2019 के अपने विस्तृत रिपोर्ट में यह चौंकाने वाली शर्मनाक खुलासा किया है कि भारत में 19 करोड़ लोग प्रतिदिन रात को भूखे सोते हैं तथा 21 फीसदी बच्चे कुपोषण हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स उन देशों को अपनी सूची में शामिल करते हैं जिन देशों में प्रतिदिन बच्चों को भरपेट खाना नसीब नहीं है। मसलन, माननीय प्रधानमंत्री श्रीयुत्त नरेंद्र मोदी को दीवार पर लिखी इबारत को स्वीकारने में महाराष्ट्र व हरियाणा विधानसभा के चुनावी नतीजे तक इंतजार नहीं करना चाहिए, अन्यथा मुझे तो यहां उर्दू के बेहतरीन शायर वसीम बरेलवी के मशहूर शेर याद आ रही है,

अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपाएं कैसे,

तेरी मर्जी के मुताबिक नजर आएं कैसे।

दरअसल, सुस्त भारतीय अर्थव्यवस्था के मंदी के भंवर में फंस जाने के भय को इसलिए भी बल मिल रहा है कि किसान सम्मान निधि योजना के बावजूद इकोनॉमी में अहम भूमिका निभाने वाला कृषि क्षेत्र मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 2.0 फीसदी की ग्रोथ रेट पर आ गया है, जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 5.1 फीसदी था। इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग का पहिया लगभग थम-सा गया है। वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 2018-19 के 12.1 फीसदी की तुलना में 0.6 फीसदी पर आ गया है, जबकि इकोनॉमी में तेजी लाने के लिए सरकार ने मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने की बात कही थी। इसके जरिए वर्ष 2022 तक मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की जीडीपी में 22 फीसदी हिस्सेदारी करने का लक्ष्य रखाा गया। लेकिन वर्ष 2014 से अभी तक इस हिस्सेदारी में बढ़ोतरी नहीं हुई है और यह 16 फीसदी के करीब ही टिकी हुई है, जबकि चीन में यह 29 फीसदी और थाइलैंड में 27 फीसदी पर पहुंच चुकी है। यहां तक कि बांग्लादेश भी 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों के अनुसार जून 2018 में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सूचकांक (आईआईपी) 6.9 फीसदी के स्तर से गिरकर जून 2019 में 1.2 फीसदी पर आ गया है। निवेश की दर में भी हम अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे हैं। जीडीपी का हम 31 फीसदी पूंजी निर्माण में खर्च कर रहे हैं, जबकि चीन में यह 44 फीसदी, इंडोनेशिया में 34 फीसदी और बांग्लादेश में यह 31 फीसदी से अधिक है।

इसमें बिल्कुल भी दो राय नहीं कि इंडियन इकोनॉमी में सरकार से लेकर निजी क्षेत्र का निवेश लगातार घट रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार केंद्र सरकार का कुल खर्च वर्ष 2010-11 में जहां जीडीपी के मुकाबले 15.4 फीसदी था, वह वर्ष 2018-19 में गिरकर 12.2 फीसदी पर आ गया है। इसी तरह सेंटर फारमॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार निजी क्षेत्र द्वारा नये प्रोजेक्ट पर किया जाने वाला निवेश 14 साल के निम्नतम स्तर पर दिसंबर 2018 की तिमाही में पहुंच गया है। इस अवधि में केवल 50 हजार करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आये। असर यह है कि कंपनियों ने बैंकों से कर्ज लेना कम कर दिया है। क्रेडिट ग्रोथ भी गिर रही है। अगस्त 2018 में यह जहां 14.17 फीसदी पर थी, वह अगस्त 2019 में गिरकर 12.18 फीसदी पर है। निवेश गिरने की बड़ी वजह यह है कि सरकार और निजी कंपनियों की कमाई लगातार गिर रही है। सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियां आठ साल के निचले स्तर पर है। वर्ष 2010-11 में जहां जीडीपी के मुकाबले राजस्व प्राप्तियां 10.1 फीसदी पर थी, वह 2018-19 में 8.2 फीसदी पर आ गयी है। कमाई गिरने की वजह डिमांड कम होना है।

यानी कि लोगों ने खरीददारी कम कर दी है। इसकी एक प्रमुख वजह यह है कि लोगों की बचत कम हो गयी है। आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार घरेलू बचत दर 2011-12 में जहां जीडीपी के मुकाबले 23.6 फीसदी थी वह 2018-19 में गिरकर 17.2 फीसदी पर आ गयी है। जाहिर है, जब पैसा नहीं बचेगा तो लोगों के खर्च करने की क्षमता घट जाएगी। एसबीआई की ताजा रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी दर में बढ़ोतरी वर्ष 2018-19 में केवल 1.1 फीसदी थी, जो वर्ष 2013-14 में 14.6 फीसदी के दर से बढ़ रही थी। जाहिर है कि अगर देश की 65 फीसदी आबादी की इनकम में बढ़ोतरी केवल एक फीसदी की दर से होगी, तो वह अपने खर्च में कटौती करेगा ही। असर यह हुआ है कि ग्रामीण इलाकों में लोगों ने पांच रुपये के बिस्कुट जैसी चीज की भी खरीददारी रोक दी है। शहरी क्षेत्रों में भी आय में बढ़ोतरी दहाई अंकों से गिरकर इकाई में आ गयी है। महज कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैं।

बार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया है। अगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढ़े (जो कि मुश्किल है) तो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसदी तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई(जो कि तय लग रहा है) तो कार्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसदी तक जाएगा। यानी कि करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये के तोहफे के बदले छह फीसदी की ग्रोथ भी दुर्लभ है। रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी है। लघु उद्योगों व बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसदी (7.7 फीसदी की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबर) बढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा। नतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गये।

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