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देश की प्रीमियर जांच एजेंसी सीबीआई का जन्म संविधान की कोख से नहीं हुआ। न ही संसद ने सीबीआई को जन्म दिया है। सीबीआई का जनक है डेल्ही स्पेशल पुलिस इस्टैबलिशमेंट एक्ट। गृहमंत्रालय के एक प्रस्ताव से जब सीबीआई 1963 में जन्म ले रही थी तब मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन महज छह साल के थे। आज वे देश में सबसे ज्यादा विश्वसनीय व्यक्ति हैं जो न्याय की मुख्य कुर्सी पर विराजमान हैं। इसी वजह से उनकी इस टिप्पणी ने पूरे देश को झकझोर दिया- सीबीआई अपनी साख खो चुकी है।
सवाल यह है कि क्या खुद सीबीआई अपनी साख बचा सकती है? क्या सीबीआई की गिरती साख के लिए केवल सीबीआई ही जिम्मेदार है? संवैधानिक संस्था का कवच नहीं होने की वजह से सीबीआई काम नहीं कर पाती। केंद्र सरकार का हस्तक्षेप और राज्य सरकारों का सीबीआई के लिए अछूत जैसा व्यवहार अब खुली सच्चाई है। इससे वर्तमान ढांचे में सीबीआई कैसे लड़ सकती है?
सीबीआई की असंवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट चुप क्यों?
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन जब सीबीआई की ओर उंगली उठाते हैं तो निश्चित रूप से कुछ उंगलियां उनकी ओर भी उठ जाती है। सीबीआई की संवैधानिकता का सवाल क्या सीबीआई की साख से जुड़ा नहीं है? और, अगर 'हां', तो क्यों सुप्रीम कोर्ट इस सवाल पर चुप्पी साधे बैठा है? गुवाहाटी हाईकोर्ट ने सीबीआई को असंवैधानिक करार दिया था, उस पर सुप्रीम कोर्ट के लिए स्टे लगाना छुट्टी वाले दिन भी जरूरी था, तो उसी मामले का निपटारा करना 9 साल बाद भी संभव क्यों नहीं हो पाया है?
सीजेआई न्यायमूर्ति एनवी रमन कहते हैं, "अगर आपको (सीबीआई को) फिर से क्रेडिबिलिटी हासिल करनी है तो सबसे पहले राजनेताओं से गठजोड़ तोड़ना होगा और साख वापसी के लिए फिर से काम करना होगा।" इस बयान के दो स्पष्ट मतलब हैं-
सीबीआई अपनी साख खो चुकी है
सीबीआई का राजनेताओं से गठजोड़ है।
नेताओं से सीबीआई के गठजोड़ की क्या है वजह?
सीबीआई का राजनेताओं से गठजोड़ की असली वजह क्या है? सीबीआई का संवैधानिक निकाय नहीं होना ही कमजोर कड़ी है। फिर भी हम सीबीआई से उम्मीद कर रहे हैं कि वह स्वतंत्र संवैधानिक निकाय की तरह आचरण दिखलाए। जब न्यायपालिका ऐसा आचरण नहीं दिखा पा रही है और न्यायमूर्तियों के फैसले रिटायरमेंट के बाद नियुक्तियों की उम्मीद से प्रभावित होकर सामने आ रहे हैं तो सीबीआई अपेक्षाओं पर खरा कैसे उतरे?
सीएजे रहते विनोद राय ने कहा था कि अगर आप वास्तव में यह चाहते हैं कि सीबीआई और सीवीसी कुछ करके दिखाएं तो आपको जोखिम उठाना होगा और साहस दिखाते हुए इन्हें संवैधानिक दर्जा देना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ही कह दिया था कि सीबीआई पिंजरे में बंद तोते के समान है। ऐसे तोते से उसकी साख के बारे में उसी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कुछ कह रहे हैं तो यह वक्त भूलकर पुरानी बातों का दोहराव ही है और इससे सीबीआई नहीं, समूची व्यवस्था असहाय नज़र आती है।
न्यायमूर्ति एनवी रमन सीबीआई को लेकर जो चिंता जता रहे हैं उस चिंता का समाधान बहुत पहले मद्रास हाईकोर्ट दे चुकी है। मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था- "सीबीआई को कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (सीएजी) जैसी स्वायत्तता मिलनी चाहिए जो कि सिर्फ संसद के प्रति जवाबदेह हो।"
सीबीआई की स्वतंत्रता का अपहरण किसने किया?
केंद्रीय गृहमंत्रालय के प्रति जवाबदेह सीबीआई सत्ता के प्रभावों से मुक्त होकर कैसे काम कर सकती है? अगर नहीं कर सकती है तो इसके लिए सीबीआई को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है? एक-दो नहीं 8 प्रांतीय सरकारें सीबीआई को अपने प्रांत में घुसने देने को तैयार नहीं हैं। इनमें शामिल हैं पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, केरल और मिजोरम हैं। केवल मिजोरम में ही एनडीए की सरकार है बाकी सभी जगह गैर बीजेपी-गैर एनडीए सरकार है।
बाकी प्रदेशों ने अगर सीबीआई के लिए दरवाजे खोल रखे हैं और उनमें से ज्यादातर में उस पार्टी का शासन है जिसकी केंद्र में सरकार है तो इसके मायने भी सीबीआई के लिए सुखद नहीं हैं। यह केंद्र में सरकार चला रही पार्टी और सीबीआई के बीच नाजायज रिश्ते की चुगली कर रहे हैं।
सीबीआई निष्पक्ष जांच के लिए देश की उम्मीद हुआ करती थी। उसकी निष्पक्षता पर उठते सवालों को वाजिब ठहराने का काम खुद सुप्रीम कोर्ट, गुवाहाटी हाईकोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट कर चुकी है। सीबीआई के अधिकारी अपने संगठन का स्वरूप नहीं बदल सकते। वे सीबीआई के मौजूदा ढांचे में ही काम करने को विवश हैं।
जब केंद्र सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर को जबरन हटाया...
सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा के साथ 2018 में क्या हुआ था, देश ने देखा है। उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया गया। यहां तक कि काम करने से भी रोक दिया गया। सीबीआई डायरेक्टर के विरोध के बावजूद स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को उनके समक्ष खड़ा कर दिया गया। विवाद बढ़ने पर केंद्र सरकार राकेश अस्थाना के बचाव में और आलोक वर्मा के खिलाफ में काम करती नज़र आयी थी। उस वक्त अगर सुप्रीम कोर्ट सीबीआई के बचाव में खड़ी हो पाती तब भी शायद आज सीबीआई के लिए उसकी नसीहत के मायने होते।
सीबीआई ने खास तौर से राजनीतिक मामलों की जांच में जिस तरह से केंद्र में सत्ताधारी दल की जरूरतों का ध्यान रखा है उससे उसकी साख लगातार गिरती चली गयी है। किसी मामले को तुरंत निपटाने में या लटकाए रखने के पीछे राजनीतिक मंशा हावी रही है। लंबित मामलों की संख्या से भी इसे समझा जा सकता है।
31 जनवरी 2022 को संसद में रखी गयी रिपोर्ट कहती है कि सीबीआई के पास 1025 मामले लंबित हैं। इनमें से 66 मामले तो पांच साल से लटके हुए हैं। पांच साल से अधिक समय तक सीबीआई किसी केस को हाथ ही न लगाए तो स्थिति की गंभीरता समझी जा सकती है।
प्रांतीय सरकार बनाम सीबीआई
लंबित मामलों पर अपनी निष्क्रियता पर सीबीआई चुप है। लेकिन, वह प्रांतीय सरकारों पर आरोप लगाने में पीछे नहीं है। सीबीआई का कहना है कि धोखाधड़ी के हाई प्रोफाइल करीब 100 मामले ऐसे है जिनमें केस इसलिए दर्ज नहीं किए जा सके क्योंकि संबंधित प्रांतीय सरकारों ने इसकी अनुमति नहीं दी। सीबीआई की शिकायत में ही उसके प्रति प्रांतीय सरकारों का घटता विश्वास व्यक्त हो रहा है।
देश की डबल इंजन की सरकारों में सीबीआई के लिए विश्वास बरकरार मिलता है और डबल इंजन की प्रांतीय सरकारें बहुत सहजता से सीबीआई जांच की मांग को स्वीकार कर अग्रसारित कर देती हैं। मगर, सिंगल इंजन और गैर बीजेपी की प्रांतीय सरकारें सीबीआई जांच की मांग को संदिग्ध नज़र से देखती हैं। राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर सीबीआई के लिए परस्पर विरोधी विचार स्पष्ट रूप से यह इंगित करते हैं कि सीबीआई की विश्वसनीयता गंभीर रूप से खतरे में हैं।
अब खुद संसद में भी सीबीआई के कामकाज पर सवाल उठने लगे हैं। संसद में मार्च 2022 को रखी गयी रिपोर्ट के मुताबिक मुताबिक तीन महीने के भीतर अभियोग चलाने की निश्चित अवधि बीत जाने के बावजूद सीबीआई 72 मामलों में मुकदमे नहीं चला पायी। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस किस्म की देरी आम घटना है। इसे रोकने के लिए सेंट्रल विजिलेंस कमीशन को सशक्त बनाना जरूरी है। यानी संसदीय समिति भी अब सीएजी और मद्रास हाईकोर्ट की बात पर हामी भरती दिख रही है। मगर, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लगता है कि सीबीआई खुद राजनीतिक गठजोड़ से बाहर निकल आएगी और अपनी विश्वसनीयता भी खुद ही बहाल कर लेगी।
साभार : सत्य हिंदी
Prem Kumar
प्रेम कुमार देश के जाने-माने टीवी पैनलिस्ट हैं। 4 हजार से ज्यादा टीवी डिबेट का हिस्सा रहे हैं। हजारों आर्टिकिल्स विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म पर प्रकाशित हो चुके हैं। 26 साल के पत्रकारीय जीवन में प्रेम कुमार ने देश के नामचीन चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है। वे पत्रकारिता के शिक्षक भी रहे हैं।