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12 अप्रैल को सायं 5.45 पर देश की राजधानी दिल्ली के पूर्वी अंचल में 3.5 रिएक्टर स्केल के आये भूकंप से भले ही जानमाल का नुकसान न हुआ लेकिन इतना तय है कि देश पर भूकंप का खतरा हर समय मंडराता रहता है। भूगर्भ विज्ञानियों की यह सर्वसम्मत राय है कि इस भूकंप का केन्द्र भले जमीन से 8 किलोमीटर नीचे रहा, इसलिए जानमाल का नुकसान कम हुआ लेकिन भारत में भूकंप के खतरे कम नहीं हैं। इसे किसी भी कीमत पर दरगुजर नहीं किया जा सकता। इस बारे में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया का कथन कि '' कोरोना क्या कम था जो भूकंप ला दिया देवाः '' उनकी भूकंप से उत्पन त्रासदी की वेदना और चिंता को ही जाहिर करता है। दावे कुछ भी किये जायें असलियत यह है कि भूकंप के खतरे से निपटने की तैयारी में हम बहुत पीछे हैं।
इस बारे में भूगर्भ विज्ञानी श्री प्रभु नारायण की स्पष्ट राय है कि ''निस्संदेह यह बहुत ही हल्के प्रभाव का भूकंप है ! लेकिन इससे जुड़ा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इसका केन्द्र जमीन के भीतर 8 किलोमीटर नीचे बताया गया है, यह इस बात का भी सूचक है कि जमीन के अंदर गंभीर हलचल की संभावना भी है क्योंकि दिल्ली और इसके आसपास का क्षेत्र भूकंप संभावित जोन 4 में आता है। यह किसी गंभीर खतरे की आहट दे रहा है। इसलिए हमें सतर्क रहना होगा। मैंने 2007 में नवरात्रि के आस-पास के काल में भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में आने वाले भूकंपों के बारे में भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आपदा विभाग को एक सूची दी थी जिसमें उल्लेख किया गया था कि यह पृथ्वी के अंदर का इलैक्ट्र्ोमैग्नेटिक लाइन का क्षेत्र है जो तारापीठ कोलकाता से होकर देश के पश्चिमोत्तर क्षेत्र से लेकर जालंधर पीठ को क्रास करता हुआ हिंदूकुश पहाड़ी से होकर इस्तांबूल तक जाता है। इसलिए हमें इस संकट से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।''
दरअसल भूकंप के गुजर जाने और उससे जान माल के किसी नुकसान के न होने से न केवल जनता बल्कि सरकार ने भी राहत की सांस ली है। चूंकि कोरोना नामक महामारी के चलते वैसे ही देश संक्रमणकाल से गुजर रहा है और यदि भूकंप की तीव्रता रिएक्टर स्केल पर पांच से अधिक होती तो उससे उपजी त्रासदी का सामना करना और मुश्किल हो जाता। क्योंकि भूकंप! एक ऐसा नाम है जिसके नाम से ही रोंगटे खड़े हो जाते हंै, उसकी विनाश लीला की कल्पना से दिल दहलने लगता है और मौत सर पर मंडराती नजर आती है। गौरतलब है कि आज से आठ-नौ बरस पहले संप्रग सरकार के तत्कालीन केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा था कि इस आपदा का कभी भी सामना करना पड़ सकता है और अभी स्थानीय प्रशासन-सरकार उसका पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है, ने देशवासियों की नींद हराम कर दी थी। तब से देशवासी हरपल यही सोचते रहते हैं कि यदि एैसा हुआ तो उन्हें कौन बचायेगा? जाहिर सी बात है कि बीते सालों में मौजूदा सरकार भी इस बारे में ऐसा कुछ खास कर पाने में नाकाम रही है।
यह कटु सत्य है कि मानव आज भी भूकंप की भविष्यवाणी कर पाने में नाकाम है। अर्थात भूकंप को हम रोक नहीं सकते लेकिन जापान की तरह उससे बचने के प्रयास तो कर ही सकते हैं। जरूरी है हम उससे जीने का तरीका सीखें। हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि लोगों को भूकंप के बारे में बहुत कम जानकारी है। फिर हम भूकंप को दृष्टिगत रखते हुए विकास भी नहीं कर रहे हैं। बल्कि अंधाधुंध विकास की दौड़ में बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। दरअसल हमारे यहां सबसे अधिक संवेदनशील जोन में देश का हिमालयी क्षेत्र आता है। हिन्दूकुश का इलाका, हिमालय की उंचाई वाला और जोशीमठ से उपर वाला हिस्सा, उत्तरपूर्व में शिलांग तक धारचूला से जाने वाला, कश्मीर का और कच्छ व रण का इलाका भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील जोन-5 में आते हैं। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, जम्मू और महाराष्ट्र् तक का देश का काफी बड़ा हिस्सा भूकंपीय जोन-4 में आता है जहां हमेशा भूकंप का काफी खतरा बना रहता है। देखा जाये तो भुज, लातूर और उत्तरकाशी के भूकंप के बाद यह आशा बंधी थी कि सरकार इस बारे में अतिशीघ्र कार्यवाही करेगी। लेकिन हुआ क्या? देश की राजधानी दिल्ली सहित सभी महानगरों में गगनचुम्बी बहुमंजिली अट्टालिकाओं की श्रृंखला शुरू हुई जिसके चलते आज शहर-महानगरों-राजधानियों और देश की राजधानी में कंक्रीट की आसमान छूती मीनारें ही दिखाई देती हैं। यह सब बीते पंद्रह-बीस सालों के विकास का नतीजा है।
जाहिर सी बात है कि हमारे यहां दो प्रतिशत ही भूंकप रोधी तकनीक और नियम-कायदे से बनायी गई इमारतें हैं। यही बहुमंजिली आवासीय इमारतें आज भूकंप आने की स्थिति में हजारों मानवीय मौतों का कारण बनेंगी। फिर पुरानी दिल्ली के संकरे इलाके जहां की गलियों की चैड़ाई कुलमिलाकर तीन-चार फीट या अधिक से अधिक पांच फीट है, और वहां सौ-सवा साल पुराने तीन-चार मंजिले मकान-हवेलियां हैं, वहां फायर ब्रिगेड या राहत पहुंचाना टेड़ी खीर है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि भूकंप नहीं मारता, मकान मारते हैं। इसलिए भूकंप से बचने की खातिर ऐसे मकानों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे यहां जहां अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बढ़ती आबादी, आधुनिक निर्माण सम्बंधी जानकारी, जागरूकता व जरूरी कार्यकुशलता का अभाव है, इससे जनजीवन की हानि का जोखिम और बढ़ गया है। खतरों के बारे में जानना व उसके लिए तैयार रहना हमारी सोच का हिस्सा ही नहीं है। ऐसी स्थिति में भूकंप से हुए विध्वंस की भरपाई की कल्पना ही बेमानी है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि देश ही नहीं दुनियां में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक बचाव नियमों का पालन नहीं हो पा रहा है और देशवासी मौत के मुहाने पर खड़े हैं। इसलिए हमें खुद कुछ करना होगा, सरकार के बूते कुछ नहीं होने वाला, तभी भूकंप के साये से कुछ हद तक खुद को बचा सकेंगे। स्थिति की भयावहता को तो सरकार खुद स्वीकार कर ही चुकी है। निष्कर्ष यह कि भूकंप से बचा जा सकता है लेकिन इसके लिए समाज, सरकार, वैज्ञानिक और आम जनता सबको प्रयास करने होंगे।
ज्ञानेन्द्र रावत वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद्अध्यक्ष, राष्ट्र्ीय पर्यावरण सुरक्षा समिति,