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"...वह बहुत पहले की बात है / जब कहीं किसी निर्जन में / आदिम पशुता चीख़ती थी और / सारा नगर चौंक पड़ता था / मगर अब / अब उसे मालूम है कि कविता / घेराव में / किसी बौखलाए हुए आदमी का / संक्षिप्त एकालाप है"
कविता हमेशा से संक्षिप्त एकालाप रही है। कवि हमेशा घेराव में बौखलाया हुआ आदमी रहा है। कविता उसकी बौखलाहट की ही अभिव्यक्ति है। धूमिल की कविता की आखिरी पंक्ति लिखे जाने के वक्त भी सही थी। लिखे जाने से पहले भी सच थी। आज भी है। बस एक बात झूठ है- आदिम पशुता के निर्जन में चीखने का काल दरअसल कभी था ही नहीं। अपनी बात पर वज़न रखने के लिए धूमिल ने झूठ कहा है। इस प्रकल्पित अतीत से सुख खींचना संभव नहीं है। इसलिए कवि जब लिख रहा हो, लगातार लिख रहा हो, बौखलाया हुआ हो, तो उसे छेड़ा नहीं जाना चाहिए। यह पहली बात है।
दूसरी बात। बौखलाहट नपुंसक होती है। कविता भी। कवि से बेहतर इस सच को कोई नहीं जानता। कविता लिखने के तुरंत बाद उसकी व्यर्थता का बोध हर कवि में आ जाता है। बस, हर कवि ऐसा कह नहीं पाता। दूसरा कह दे तो बिदक जाता है। इसलिए कभी भी किसी कवि के कवि-कर्म पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। कविता उसका आखिरी आलंबन है। इकलौता भी हो सकता है। जिसका इकलौता है, कविता उसकी बैसाखी है। इस पर आप सवाल कैसे उठा सकते हैं। यह अमानवीय है। अनैतिक है। आस्था का प्रश्न है।
तीसरी बात। कविता कवि का अपना खोल है। क्लोज़्ड स्पेस है। वह दुनिया भर की बुराइयां देखकर घोंघे की तरह अपने खोल में घुस जाता है। इसका मतलब कि कविता, कवि से स्वायत्त नहीं है। कविता में कवि बसता है। कविता का अपमान कवि का अपमान है। कविता का छिद्रान्वेषण कवि को एक्सपोज़ करना हुआ। इसलिए कवि जब कविता में हो, तब उसे छूना नहीं चाहिए, बस देखना चाहिए। कविता को देखना, कवि को देखना, एक संस्कार है। कुछ कवि खोल नहीं ओढ़ते, या खोल को कहीं छोड़ आते हैं। वे खतरनाक होते हैं। सांप के जैसे, जो अपनी केंचुल बदलता है। ऐसे कवियों की कविता उनसे स्वायत्त होती है। ऑब्जेक्ट होती है। वे कविता का बम बनाकर मुंह पर मार सकते हैं।
चौतरफा हिंसा के दौर में कविता के बमबाज़ों से सावधान रहें। ऐसे कवियों को अपनी कविता से प्यार नहीं होता, केवल कविता की मारक क्षमता की फि़क्र होती है। आप उन कवियों को प्यार करें जो कविता को पोसते हैं। पालते हैं। हिंसक होने से सायास बचाते हैं। हिंसा के विरुद्ध खरगोश की तरह चमकाते हैं। दुलारते हैं। और उसे खेलने के लिए आपकी गोद में थमा देते हैं। ऐसे कवि कम बच रहे हैं। इक्का-दुक्का। जो कविता को जतन से पाल-पोस कर, अपने खोल में से निकालकर, आपको सहलाने के लिए सौंप रहे हैं। उनकी कविता पर हलका हाथ रखें।
कविता पर जोर देंगे तो कवि टूट जाएगा। कवि टूटा तो बौखलाए हुए आदमी का संक्षिप्ततम एकालाप भी कहीं नज़र नहीं आएगा। फिर करते रहिएगा फर्क पशुता और मानवता के बीच, जो अपने-अपने खोल से बाहर आकर एक स्वर में चीख रही हैं, एक समान हिंस्र हैं। कभी-कभार ऐसा वक्त आता है कि यथास्थिति ही क्रांति कहलाती है। कविता ही मानवता की सबसे खूबसूरत अभिव्यक्ति बन जाती है। वक्त को पहचानें। अपने कवियों को जानें। मानें, या न मानें।