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अंतरराष्ट्रीय कर्ज पर आईएमएफ की चेतावनी और भारत की असहमति
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कहा है कि भारत का कर्ज इतना हो गया है कि यह चिन्ता का विषय है। संभावना है कि निकट भविष्य में यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से ज्यादा हो जाये। ऐसे में आईएमएफ ने दीर्घ अवधि की इसकी निरंतरता को लेकर चिन्ता जताई है। दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किये जाने वाले भारी निवेश की भी चिन्ता है और भारत की खराब आर्थिक स्थिति का असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होगा और इसकी छवि खराब होगी सो अलग। पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाने के प्रचार के बीच ये तथ्य पर्याप्त चिन्ताजनक हैं पर सरकार इस चेतावनी से सहमत नहीं है। मिन्ट में प्रकाशित एक खबर के अनुसार सरकार का कहना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में पिछले दो दशक के दौरान कई तरह के झटकों के बावजूद जीडीपी के मुकाबले भारत के कर्ज का अनुपात 2005-06 के 81 प्रतिशत से बमुश्किल बढ़कर 2021-22 में 84 प्रतिशत हुआ था जो 2022-23 में फिर 81 प्रतिशत हो गया।
कहने की जरूरत नहीं है कि तुलना के लिए 2005-06 का वर्ष क्यों चुना गया, यह पता नहीं है। और चुना भी गया तो यह बताने की क्या जरूरत है कि कई वर्षों बाद सिर्फ एक साल के लिए यह 84 प्रतिशत हो गया था। अन्य वर्षों में क्या था यह क्यों नहीं बताया जा रहा है। अगर ज्यादा था तो उसे बताया जाना चाहिये और कम था तो कोई चिन्ता ही नहीं है उसे भी बताया जाना चाहिये। ऐसे में अगले ही वर्ष अगर यह घटकर 84 से फिर 81 हो गया तो जाहिर है, आधार वर्ष के रूप में 2005-06 का चुनाव शक के घेरे में है और जवाब संतोषजनक नहीं है। ऐसे में मूल खबर का अपना महत्व है और संतोषजनक खंडन नहीं होने से इसकी सत्यता पर शक की गुंजाइश रहती ही है।
आईएमएफ ने अपनी वार्षिक अनुच्छेद चार परामर्श रिपोर्ट में कहा है, “दीर्घकालिक जोखिम अधिक हैं क्योंकि भारत के जलवायु परिवर्तन शमन लक्ष्यों तक पहुंचने और जलवायु तनाव व प्राकृतिक आपदाओं के प्रति लचीलेपन में सुधार के लिए भारी निवेश की आवश्यकता है। इससे पता चलता है कि वित्तपोषण के नए और रियायती स्रोत हों तो बेहतर की आवश्यकता है। इसके साथ ही क्षेत्र में अधिक निवेश और कार्बन मूल्य निर्धारण या समकक्ष तंत्र की भी आवश्यकता है।" ऐसे में कर्ज अनुपात जीडीपी के 100 प्रतिशत से ज्यादा होने की आईएमएफ की चिन्ता भी है। इसलिए आईएमएफ ने कहा है कि दीर्घ अवधि के जोखिम ज्यादा हैं क्योंकि देश को जलवायु दबावों और प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से लचीलेपन को बेहतर करने के लिए निवेश की आवश्यकता है।
दूसरी ओर आप जानते हैं कि चार धाम यात्रा मार्ग बनाने के लिए नियमों की अनदेखी और शर्तों को भूलकर करके काम चल रहा है और सुरंग धंसने से 41 मजदूरों के 17 दिनों तक फंसे रहने के मामले में पता चला कि सुरक्षा और बचाव के लिए आवश्यक उपाय नहीं किये गये थे। इसका मूल कारण खर्च कम रखना ही होगा भले अधिकारियों ने ऐसा होने दिया यह अलग गलती हो। लेकिन बाद की स्थिति से निपटने के लिए सुरक्षा उपाय जरूरी हैं और अभी ही अगर कर्ज इतना ज्यादा हो गया है, कमाई की संभावना कम है तो जरूरी खर्च के लिए पैसे कहां से आय़ेंगे यह चिन्ता की बात होनी चाहिये और इसके उपाय किये जाने चाहिए। लेकिन यह सब तो तब होगा जब सरकार समस्या को स्वीकार करेगी। अभी तो यह वही नहीं मान रही है। ऐसे में आईएमएफ का यह कहना महत्वपूर्ण है कि भारत को महत्वाकांक्षी वित्तीय सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है। लेकिन पिछले 10 ढंग से देश की अर्थव्यवस्था को जिस ढंग से चलाया जा रहा है उसमें यह आवश्यकता एक चुनौती लग रही है।
द वायर की एक खबर के अनुसार, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा था कि उनकी सरकार कर्ज कम करने के उपायों पर विचार कर रही है और उभरते बाजार की अर्थव्यवस्था में इसके लिए किये जा रहे उपायों पर नजर रख रही है। ऐसे में भारत को अपनी क्रेडिट रेटिंग बेहतर करने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है क्योंकि कर्ज का स्तर ज्यादा है और इससे संबंधित खर्च अच्छे-खासे हैं। इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रशंसा का मतलब आप समझ सकते हैं। इसमें पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था हो जाने का दावा और फिर उसे भूल जाना महत्वपूर्ण है। लक्ष्य समय पर पूरा नहीं हुआ सो अलग। ऐसे में दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था होने का प्रचार कर्ज की स्थिति को ठीक करने के काम शायद ही आये। कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्थिति नोटबंदी, जीएसटी के अलावा नरेन्द्र मोदी के अर्थशास्त्र के कारण है।
अंग्रेजी में इसे मोदीनोमिक्स आदि कहा जाता है पर मूल मुद्दा यह है कि पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था जो लगभग हो चली थी 2028 में हो सकेगी। दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी ने जब इसका श्रेय लेने का प्रयास किया तो पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि यह अपने आप हो जायेगा। चिदंबरम ने पहले कहा था कि अर्थशास्त्र का मोदी का ज्ञान डाक टिकट के पीछे लिखने के बराबर है। उसके बाद चिदंबरम की गिरफ्तारी, आरोप, मामला और अभी तक जो हुआ है उसे याद कीजिये प्रचार की सरकार की रीति नीति समझ में आ जायेगी। इसमें गोभी की खेती का आरोप और उसपर कार्रवाई नहीं होना भी शामिल है।
विरोधी के प्रत यह आक्रामकता और प्रचार तथा बहुमत के दम पर मनमानी करने की छूट में यह पैसा कहा खर्च हुआ उसपर माथा पच्ची करने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जो भी किया जाता उसका प्रचार किया जा सकता था और जो किया गया उसका प्रचार है ही। इसमें स्वच्छता अभियान से लेकर हवाई चप्पल वालों की हवाई यात्रा तक सब शामिल है। देश भर में मेट्रो हो, सेंट्रल वर्ज हो एक्सप्रेस का जाल प्रचार पूरा है और फायदा पता नहीं। फायदा भी हो तो हैसियत का सवाल रहेगा ही। पैसे नहीं थे तो ऐसे काम नहीं किये जाते पर प्रचार के लिए जरूरी था तो कोई क्या कर सकता है।