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विश्वयुद्ध के ख़तरे के बीच हिन्दुस्तान का मन बेचैन है। युद्ध में फंसे छात्रों की चिंता है तो यूक्रेन के आम लोगों की भी। धर्मयुद्ध के लिए रामायण और महाभारत के जरिए दुनिया में मशहूर देश में आज यह समझने की बेचैनी भी है कि वर्तमान युद्ध में धर्म किस ध्वजा पर लहरा रहा है- रूस की तरफ या फिर अमेरिका-यूरोपीय यूनियन की तरफ?
नेहरू युग ने देश को जिस मार्ग पर आगे बढ़ाया था वह गुटनिरपेक्ष मार्ग था। स्मरण रहे गुटनिरपेक्ष मार्ग अनिर्णय का मार्ग नहीं होता। दो बड़ी शक्तियों में किसी के दबाव में आए बगैर अपना मार्ग निश्चित करना साहस का काम है। वहीं अनिर्णय की स्थिति खुद पर दबाव लाता है। एक साहस का उदाहरण है तो दूसरा कायरता का। क्या नेहरू युग वाली गुटनिरपेक्षता को आगे बढ़ाते दिख रहा है मोदी युग?
हिन्दुस्तान ने हमेशा सोवियत संघ (अब रूस) के साथ नजदीकी संबंध बनाए रखा है। सोवियत संघ ने चार बार जरूरत के वक्त भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र में वीटो किया है। इसके अलावा भी रूस ने कई बार भारत के विरुद्ध प्रस्तावों में मतदान से बाहर रहकर भारत की मदद की है। 2019 में कश्मीर से अनुच्छेद 370 को प्रभावहीन बनाते वक्त भी रूस लगातार भारत के साथ खड़ा रहा था। क्या रूस के सहयोग का यही अतीत उस फैसले की वजह है जो भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पर वोटिंग नहीं करने के रूप में लिया है?
सच से परे है कि मोदी चल रहे हैं नेहरू मार्ग पर
मोदी युग की विदेश नीति नेहरू युग की विदेश नीति का अनुसरण करती जरूर दिख रही है लेकिन इसकी वजह सैद्धांतिक सहयोग नहीं है। साम्राज्यवादी अमेरिका और नाटो गठबंधन के मंसूबे को कामयाब नहीं होने देने की सोच दोनों देशों के बीच सहयोग का आधार रही थी। सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया बदल गयी और सोच व सहयोग का परंपरागत आधार भी बना नहीं रह सका।
परमाणु परीक्षण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के रहते भारत को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध झेलने पड़े। आगे चलकर अमेरिका के साथ मनमोहन की सरकार ने परमाणु करार भी किया। दोनों देश फिर इतने करीब आने लगे कि सैन्य सहयोग का दौर शुरू हो गया। साझा सैन्य अभ्यास भी हुए। दरअसल ट्वीन टावर पर 9/11 हमले के बाद आतंकवाद से लड़ाई में पीड़ित देश के रूप में अमेरिका और भारत ने एक-दूसरे के जख्मों को समझा।
खौफ़नाक है रूस-चीन की नजदीकी
सोवियत संघ के पतन के बाद रूस 2014 में क्रीमिया को हथियाने से पहले तक मजबूत देश के रूप में पहचान नहीं बना पाया था। वहीं, चीन लगातार मजबूत देश के रूप में उभरता चला गया। मजबूत होता चीन अब अमेरिका का नंबर वन स्पर्धी और दुश्मन बन गया। दक्षिण एशियाई देशों में चीन के बढ़ते वर्चस्व पर अंकुश लगाने की गरज से भारत का सहयोग अमेरिका के लिए आवश्यक शर्त बन चुका था। भारत और अमेरिका के बीच नये सिरे से पनपते संबंध की यह एक और वजह बन गयी।
करवट लेती भू-राजनीति ने रूस, चीन और उत्तर कोरिया को करीब ला दिया तो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के बीच एक बिल्कुल नया संबंध उभरा जिसे दुनिया क्वाड के नाम से जानती है। क्वाड में शामिल होकर भी भारत ने अब तक अमेरिका के साथ किसी सैन्य गठबंधन में जुड़ने से खुद को रोक रखा है तो इसकी वजह रूस से भारत की परंपरागत दोस्ती और रूस-अमेरिका में तनावपूर्ण संबंध है।
भारत पर बुरी है चीन की नज़र
भारत को रूस-चीन-उत्तर कोरिया के गठबंधन से भी ख़तरा है क्योंकि चीन भारत का पड़ोसी है और उसकी नज़र भारत के लिए बुरी है। मगर, रूस ने भारत के लिए कभी अपनी नज़र टेढ़ी नहीं की है। फिर भी अमेरिका से भारत की करीबी से वह खुश नहीं रहा है। इस नाखुशी को स्थायी भाव बनने देने से रोकने के लिए ही भारत ने अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध रूस के साथ एस-400 से जुड़े समझौते किए हैं।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ झूले भी झूले, नारियल का पानी भी पीया और एकांत में शिखर वार्ता भी की। फिर भी डोकलाम और गलवान घाटी जैसी स्थितियां पैदा हुईं। भारत-चीन विवाद के वक्त रूस ने तटस्थता बनाए रखी। जबकि, अमेरिका ने जताया कि वह भारत के साथ खड़ा है।
अमेरिकी आक्रामकता पर भारत ने भी साधी है चुप्पी
जब अमेरिका ने ईरान पर सीमित हमले किए तो भारत ने चुप रहकर ईरान को तो नाराज़ किया, लेकिन अमेरिका को खुश रखना पहले सुनिश्चित किया। इससे पहले अफगानिस्तान में अमेरिकी हमला या फिर बहुत पहले इराक पर अमेरिका के हमले के दौरान भी भारत ने अमेरिका को खुश रखने की नीति पर अमल किया। मोदी युग में ईरान से भारतीय करंसी में तेल खरीदने का अच्छा ऑफर छोड़कर भारत ने अमेरिका से तेल की खरीद की क्योंकि भारत को अमेरिका को खुश रखने की परंपरागत नीति ही सही लगी।
मोदी युग में नाटो के समांतर रूस-चीन-दक्षिण कोरिया ने एक गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश दिखलायी है। वहीं एकजुट होने के बावजूद नाटो रूस, चीन या फिर दक्षिण कोरिया को भी नियंत्रित नहीं कर पाया है। इससे पता चलता है कि नाटो का प्रभाव कम हुआ है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान नाटो की प्रतिष्ठा दांव पर है। यूरोपीय यूनियन भी असहाय महसूस कर रहा है। ऐसे रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत के लिए यह देखने का वक्त नहीं रह जाता है कि धर्म किसके साथ खड़ा है। देखने वाला बिन्दु सिर्फ यह है कि भारत को किस मार्ग पर ले जाकर किसी नुकसान की आशंका से बचाया जा सकता है।
भारतीय विदेश नीति नेहरू युग जैसी!
नरेंद्र मोदी ने जिस विदेश नीति को आगे बढ़ाया है वह दिखती जरूर नेहरू युग जैसी है लेकिन वास्तव में यह उससे अलग है। जरूरत की नीति इसे कह सकते हैं। दो साम्राज्यवादी-विस्तारवादी गुट उभरता दिख रहा है। ऐसे में किसी एक साथ खड़ा होना न्यायोचित नहीं है। शायद इसलिए भारत ने सक्रिय रहने मगर सक्रिय रहकर भी किसी एक गुट के साथ गिने जाने से बचने की रणनीति अपनायी है।
रूस हमलावर दिख रहा है लेकिन उसे हमलावर कहने में भारत इसलिए परहेज करेगा क्योंकि रूस की चिंता से भारत सहमत है कि कहीं पूर्व सोवियत लैंड में आकर नाटो रूस को ही निशाने पर ना ले ले। यही वजह है कि सही-गलत के बजाए भारत के लिए यह देखना जरूरी है कि धर्म किसके साथ है।
भारत को ख़तरा चीन से है
भारत को खतरा चीन से है। चीन विस्तारवादी है। वह कभी भी भारत के विरुद्ध अपनी जिद पर आ सकता है। ऐसे में भारत के लिए यह कतई अच्छा नहीं है कि रूस नाराज़ हो। रूस की नाराज़गी भारत के विरुद्ध चीन का मनोबल बढ़ाएगी।
अमेरिका और रूस दोनों भारत की स्थिति को सममझते हैं। यही कारण है कि रूस ने यूक्रेन पर भारत के रुख की सराहना की है और अमेरिका ने भी भारतीय रुख को सराहा है। हालांकि अमेरिका की खुली इच्छा है कि भारत यूक्रेन पर आक्रमण के लिए अमेरिका को दोषी ठहराए। अंत में, अमेरिका, रूस और चीन के त्रिकोण में फंसता नज़र आ रहा है भारत।