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उदयपुर में हुए एक वहशियाना कत्ल के बाद फिर एक बार धार्मिक हिंसा की चर्चा गर्म हो गई तो धर्म को निशाना बनाया जाने जबकि भारत की अधिकांश जनता किसी ना किसी धर्म को मानती है। धर्म के नाम पर हुई हिंसा के बाद धर्म विरोधियों का धर्म पर प्रहार करना स्वाभाविक था लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी हिंसा की घटनाओं में धर्म नहीं बल्कि राजनीति के लिए बनाए गए सांप्रदायिक माहौल को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था।
हर घटना के बाद प्रतिक्रिया आती है और राजनीतिक पार्टियां अपने अपने एजेंडे के मुताबिक मोर्चा थाम लेती हैं। लेकिन इनसे अलग समाज का गैर राजनीतिक और संजीदा तबका बहुत फिक्रमंद हो जाता है कि आखिर ये कब तक चलेगा। देश के जिम्मेदार तबके का इस बारे में सोचना भी ठीक है कि इन घटनाओं से कोई समाज फलता फूलता नहीं है। ऐसी किसी भी घटना के घटित हो जाने के बाद दोनों संप्रदाय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू कर देते हैं और जिन लोगों को इन घटाओं से फायदा पहुंचता है वह इस आरोप-प्रत्यारोप में छिप कर रह जाते हैं देश के जिम्मेदार लोगों को उन कारकों को और उन कारणों को ढूंढ निकालना होगा जो ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं।
देश में एक विशेष सांप्रदायिक राजनीति के उद्भव के साथ ही ऐसी घटनाओं में बहुत वृद्धि देखी गई है। ऐसी घटनाएं जब घटती हैं तो देश का टीवी मीडिया उन पर गरमा गरम बहस करा कर अपनी टीआरपी तो बढ़ाना चाहता है लेकिन ऐसी घटनाएं भविष्य में ना हो इस पर चर्चाएं नहीं करना चाहता। इसके साथ ही वह इसके पर्दे में लोगों के असल मुद्दे महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी और शिक्षा आदि को पीछे डाल देता है। लोगों की सारी ऊर्जा इन सांप्रदायिक बसों में खत्म हो जाती है और वह अपने असली मुद्दों से भटक जाते हैं जिससे समाज और देश की तरक्की रुक जाती है। हमारा देश धर्म प्रधान देश है और यहां का नागरिक किसी ना किसी धर्म मानता है और कोई भी धर्म आपसी टकराव और हिंसा को पसंद नहीं करता लेकिन धर्म की आड़ में ही विधर्मी ऐसा नंगा नाच खेलते हैं जिसका इंसान धर्म पर आने लगता है जिससे बहस और गर्म हो जाती है। आखिर फिर इन सब का इलाज क्या है?
बस यही सवाल है जिसका जवाब हम सब को ढूंढना हमारा देश विभिन्न मान्यताओं से मिलकर चल रहा है और हमारा संविधान किसी भी धर्म को प्रोत्साहित नहीं करता। धर्म हर नागरिक का एक व्यक्तिगत मामला है बस यही सोच रखते हुए हमें आगे बढ़ते रहना है। हमें अपना धर्म किसी पर थोपना नहीं है। हर भारतीय यह फैसला करले कि मेरा धर्म मेरे लिए है और मैं उसका पालन करूंगा चाहे नुकसान में रहूं या फायदे में, लेकिन किसी दूसरे धर्मावलंबी की आस्थाओं और उसके विश्वास को बुरा नहीं कहूंगा। यह सोच ही इन घटनाओं को खत्म कर सकती है। भारत में धार्मिक उन्माद के बढ़ने का प्रभाव केवल देश के अंदर ही नहीं पड़ रहा बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि धूमिल हो रही है। जो लोग धार्मिक राजनीति को देश के लिए अच्छा मानते हैं उन्हें इस पर गौर करना होगा की देश दुनिया का ही एक हिस्सा है और देश के अंदर घटने वाली हर घटना को दुनिया देख रही है।
अब देश में सांप्रदायिकता चरम पर पहुंच रही है और अगर इसे अब और बढ़ने से नहीं रोका गया तो स्थिति और भयावह हो सकती है। वर्तमान सरकार को यह परिस्थितियां रास आती हैं क्योंकि उसके अपने निजीकरण के एजेंडे में बाधा बनने वाली हर आवाज को सांप्रदायिकता के शौर में दबाया जा सकता है। कई कई दिन लोगों को किसी भी सांप्रदायिक घटना में उलझाया जा सकता है और अपने जनविरोधी कार्यों से लोगों का ध्यान हटाया जा सकता है। अब यह देश के उन सभी समझदार लोगों की अपनी जिम्मेदारी है कि वह सही दिशा में सोचने समझने एक कोशिश कर इस व्यवस्था को और इस माहौल को बदलने का प्रयास करें।