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नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की शादी की सालगिरह पर, जानिए उनकी दिलचस्प लवस्टोरी
राजन प्रकाश
प्यार की कोई भाषा नहीं होती है। यह आंखों से ही बयां हो जाता है। दो दिलों का एक-दूसरे के लिए धड़़कना, किसी हसीन ख्वाब के सच होने जैसा होता है। यह वही समझता है जिसने प्यार के अहसास को जिया हो, उसकी इबादत की हो, बंदिगी की हो। ऐसी ही एक प्रेम कहानी है नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी और उनकी पत्नी सुमेधा कैलाश की। आज इनकी शादी की सालगिरह के मौके पर आइए जानते हैं इन दोनों के 'इश्क की इबारत' लिखने में कितने उतार-चढ़ाव आए- प्रेम पीपल के बीज समान है, वहां से भी पनप सकता है जहां से उसकी संभावना न के बराबर हो। दिल्ली की सुमेधा के लिए मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में रहने वाले कैलाश सत्यार्थी के दिल में प्रेम की कोपलें फूटने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। कम उम्र से ही अपनी तर्कशक्ति से सबको अपना मुरीद बना लेने वाले सत्यार्थीजी, एक पत्रिका में छपी सुमेधाजी की फोटो देखकर दिल हार बैठे। उसके बाद प्रेम को विवाह की परिणति तक पहुंचाने की कहानी अगर पूरी तरह फिल्मी नहीं है, तो भी उसमें इतने कलेवर तो हैं कि फिल्म की पटकथा लिखी जा सके। सत्यार्थीजी आर्य समाज से नए-नए जुड़े थे। आर्य समाज से जुड़ी एक पत्रिका 'जनज्ञान' के पन्ने पलटते हुए उनकी निगाह एक जगह थम गईं।
उस पन्ने पर किसी लेख के साथ पत्रिका के संपादक पंडित भारतेंद्रनाथ आर्य की बेटी सुमेधा की तस्वीर छपी थी। एम.ए. की पढ़ाई करने के साथ वे पत्रिका के संपादन में पिताजी का हाथ बंटा रही थीं। सत्यार्थी जी सुमेधाजी के आकर्षण में बंधते चले गए। फ्रांस में रोमांसवाद के प्रणेता विक्टर ह्यूगो ने लिखा है, 'जब प्रेम किसी के जीवन में दस्तक देता है तो उसकी कशिश सात समंदर पार भी महसूस की जा सकती है।' सत्यार्थीजी के मन पर प्रेम दस्तक दे चुका था। लेकिन वे अगर सात समंदर पार नहीं तो भी कम से कम 700 किलोमीटर दूर दिल्ली में था। उस पर तुर्रा ये कि उनके नाम और काम के अलावा और कुछ अता-पता न था। हुआ वही जो 70 के दशक में हुआ करता था, वैसे होता तो आज भी यही है- करीबी दोस्तों को हाल-ए-दिल सुनाना।
सत्यार्थी जी उस वक्त को याद करते हुए ठठाकर हंस पड़ते हैं। वे बताते हैं, 'पहले जहां हमें देश-दुनिया-कॉलेज की बातों से फुर्सत नहीं होती थी, अब सारा फोकस मेरी प्रेमकथा पर शिफ्ट हो गया। मेरे मित्रों के लिए तो मेरा प्रेम एक राष्ट्रीय समस्या जैसा हो गया था जिसे वे तुरंत हल कर देनाचाहते थे।'
इस बीच, सत्यार्थीजी ने 'जनज्ञान' के लिए एक लेख लिखकर भेजा। उस लेख में उन्होंने आर्य समाज की आलोचनात्मक समीक्षा की थी लेकिन प्रगतिशील पंडित भारतेंद्रजी को वह इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे दीपावली विशेषांक में छापा। लेख विचारोत्तेजक था। उससे आर्य समाज के प्रगतिशील और पुरातनपंथी दोनों धड़ों में बहस छिड़ गई। इसका लाभ यह हुआ कि दिल्ली के आर्य समाजियों के बीच कैलाश सत्यार्थी एक चर्चित नाम हो गया। सत्यार्थीजी एक दिन 'जनज्ञान' के दिल्ली दफ्तर जा पहुंचे।
इत्तेफाक की बात देखिए, दफ्तर के रिसेप्शन पर ही उन्हें सुमेधाजी मिल गईं। वह पहली मुलाकात भी कम दिलचस्प नहीं रही। सत्यार्थीजी यह वाकया पूरा रस लेकर सुनाते हैं, 'मुझे खबर तो थी ही कि मेरे लेख के बाद काफी हाय-तौबा मची है। तो मैं खुद को हीरो ही मान बैठा था। मैंने सुमेधाजी को इस उम्मीद में उत्साह के साथ अपना नाम बताया कि वे तो सुनते ही कुछ मीठी बात कहेंगी, चाय-पानी पूछेंगी। पर हुआ एकदम उलटा। उन्होंने मेरे सारे अरमानों पर यह कहकर पानी उड़ेल दिया कि बड़े आए कैलाश सत्यार्थी बनने।'
आपने ऐसा क्यों किया, जबाव में सुमेधाजी बताती हैं, 'लेख में इतनी गहराई थी कि मैं क्या मेरे पिताजी से लेकर हर कोई यही समझता था कि किसी 50-60 साल के परिपक्व व्यक्ति ने इसे लिखा होगा। मुझे लगा किये जनाब कैलाश सत्यार्थी की शोहरत का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं।' वैसे खुद पंडितजी को भी सहसा यकीन नहीं हुआ था कोई नवयुवक इतनी गूढ़ बातें लिख सकता है। उन्होंने कई घंटे तक बातें की तब जाकर उन्हें तसल्ली हुई कि नौजवान आगंतुक वास्तव में कैलाश सत्यार्थी ही हैं। वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सत्यार्थीजी को अपने घर में ही रूकने का प्रस्ताव दे दिया। आतिथ्य का यह न्योता उनके लिए लॉटरी लगने जैसी बात ही थी।
रात में डिनर टेबल पर सत्यार्थीजी और सुमेधाजी का औपचारिक परिचय हुआ। सुमेधाजी याद करती हैं, 'जैसे ही पिताजी ने कहा कि यह सुमेधा है तो वे बेखटक मुझसे पूछ बैठे 'और कैसी हो?' एक पल को मैं तो घबरा गई कि पर बाद में सोचा कि पूरे परिवार के सामने इतनी दिलेरी से बात करने वाले बंदे में कुछ बात तो जरूर है।' और उस 'कुछ बात' या 'स्पार्क' के लिए सत्यार्थीजी ने उन्हें लंबा इंतजार नहीं कराया। हुआ यह कि सुमेधाजी सुबह की चाय देने आईं और आदतन सत्यार्थीजी से पूछ बैठीं कि चाय में चीनी कितनी लेंगे?
सत्यार्थीजी ने छूटते ही कह दिया, 'आपने चीनी न भी डाली हो तो कोई बात नहीं। आपका हाथ लगने से मीठी तो वैसे ही हो गई होगी।' सुमेधाजी ने ऐसे रोमांटिक जवाब की कल्पना भी न की थी। उन्होंने एक नजर सत्यार्थीजी को देखा और पलक झपकते ही वहां से गायब हो गईं। पुरुष जितना प्रेम शब्दों में प्रकट करता है, उससे कई गुना ज्यादा स्त्री मौन में प्रकट कर देती है। सत्यार्थी जी समझ चुके थे कि वह 'स्पार्क' पैदा हो चुका है। तो क्या उन्होंने उसी दिन अपने प्रेम का इजहार कर दिया था?
सुमेधाजी बताती हैं, 'नहीं। ठीक एक साल बाद वे फिर मेरे घर धमक आए। उस समय मैं घर में अकेली थी। रसोई में गाना गाते हुए खाना पका रही थी। दरवाजा खोला तो उन्हें सामने पाकर दिल धक सा रह गया। वे मुझे देखकर मुस्कुराए जा रहे थे। उस मुस्कान में छुपा प्रेम मैंने भांप लिया था। समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं तभी मेरी छोटी बहन आ गई और मेरी जान में जान आई।' उस दिन दोनों के बीच पहली बार खूब बातें हुईं।
प्यार का खुला इजहार कब और कैसे हुआ? दीपावली पर सत्यार्थीजी ने सुमेधाजी को चार लाइन की एक कविता लिख भेजी- 'उजली इमारत के लाख दीये बेमानी, चलो बनें एक दीया अंधियारी बस्ती का, बाहर के साथ-साथ अन्तस का तम मिटे, फर्क मिटे बूंद और सागर की हस्ती का....'यह एक तरह से उनका पहला प्रेमपत्र था। इसके शब्दों ने सुमेधाजी और सत्यार्थीजी को एक साथ इस तरह बांध दिया जैसे कुरते का बटन जो कुरते का श्रृंगार भी बनता है, सहारा भी। दो खूबसूरत दिल जो करूणा से भरे थे, समाज के प्रति संवेदनशील थे और इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के सपने देखते थे। दोनों ने एक दूसरे को जाना, सपने साझा हुए और प्रेम परवान चढ़ता गया।
एक साल बाद दोनों की सगाई हो गई लेकिन सगाई और शादी के बीच के वक्त में भी कई नाटकीय मोड़ आए। छात्र नेता सत्यार्थीजी मध्य प्रदेश सरकार की कुछ नीतियों का विरोध कर रहे थे। उन्होंने भोपाल में मुख्यमंत्री आवास के सामने युवाओं के एक बड़े समूह को संबोधित किया। विरोध-प्रदर्शन के कारण सुमेधाजी के, वे चाचा ही सत्यार्थीजी के खिलाफ हो गए जिन्होंने उनके पिता को इस शादी के लिए राजी कराया था।सुमेधाजी बताती हैं, 'मेरे पिताजी ने कह दिया कि वे दूसरा लड़का ढूंढ़ रहे हैं। मैंने भी साफ कर दिया कि अगर शादी करूंगी तो कैलाश सत्यार्थी से नहीं तो जीवनभर अविवाहित रहूंगी। इस पर पिताजी ने कहा कि अगर उसमें दम है तो कहो कि इस रविवार तक शादी कर ले नहीं तो तुम्हें अविवाहित ही रहना होगा। और अगले सात दिनों में हम पति-पत्नी बन चुके थे।'
किसी ने क्या खूब कहा है कि बेशुमार प्यार मिलने से बेइंतहा ताकत मिलती है और किसी को असीमित प्रेम करने से मिलता है अद्वितीय साहस। कैलाश सत्यार्थी ने अपना पूरा जीवन इस दुनिया को बच्चों के लिए सुरक्षित बनाने में खपा दिया और सुमेधा कैलाश उनके इस सपने को एक सहयात्री की तरह संवार रही हैं। एक दूसरे की ताकत और साहस बनकर दोनों ने चार दशकों से अधिक का समय व्यतीत किया है। यह यात्रा यूं ही चलती रहे.... अहर्निश...