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नितिन द्विवेदी
भारत को अंग्रेजों के शासन से आजादी मिले 73 साल बीत गए। 15 अगस्त 1947 को मिली इस राजनीतिक आजादी का जश्न मनाते हुए देश जहाँ तक चल पाया है, वो आपके सामने है। आजाद भारत में भी हमने पुल बनाए हैं, सड़क बनाई हैं। गुलाम भारत में भी यह सब काम होते थे,सिर्फ करने वाले बदल गए हैं। 1947 को अंग्रेज राजनीतिक सत्ता भारतीयों को सौंपकर चले गए थे। भारतीय राजनीतिक दलों ने तब से लेकर अब तक अपने अपने ढंग से सरकार चलाई और उन्हीं सड़क, पुल और रेल की पटरियों को आगे बढ़ाया है जो अंग्रेज छोड़ गए थे। इन 71 सालों में देश की व्यवस्था नहीं बदली। कृषि प्रधान भारत का किसान तब भी बदहाल था,आज भी वह स्वाभिमान के साथ नहीं जी पा रहा है। वह कर्ज में डूबा है, आत्महत्याओं की हद तक हताश है। उसका स्वाभिमान सेठों के पास रेहन है और आजाद भारत में ही पले-बढ़े सेठ बैंक लूटकर अंग्रेजों की तरह से देश भाग रहे हैं। सीमा पर तैनात जवान वतन के लिए शहीद हो रहे हैं और देश के भीतर नौजवान बेरोजगारी से जूझकर खून के आंसू रो रहा है। दवा और इलाज के लिए घर के घर कंगाल हो रहे हैं, या फिर वक्त से पहले मौत के मुँह में जा रहे हैं। इलाज के कर्ज में डूबी हुई लाशें तक आजाद भारत के अस्पतालों में 'कैद' हैं। पीने और खेत के लिए पानी सर्व सुलभ नहीं है, जब लोग मरने लगते हैं या कोई सरकार मेहरबान हो जाती है तो प्यासे गांवों में पानी की ट्रेन भेज देती है। वरना आजाद भारत की नदियाँ,जंगल और शुद्ध हवा भी सेठों के हवाले हो रही हैं।
जिस देश में दूध की नदियाँ बहाने का वायदा था, सपना दिखाया गया था। वहाँ आपको घूँटभर पानी हलक में उतारने के लिए मोल देना पड़ रहा है। शरीर से छटांक भर पानी निकालने का दाम भी दीजिये या फिर जुर्माना। क्या यही आजादी है ? इसी का सपना गांधी और भगत सिंह ने देखा था ? इसी के लिए चन्द्रशेखर और अशफाक - बिस्मिल, राजगुरु, बटुकेश्वर,धनसिंह कोतवाल, उधम सिंह अपनी जान न्यौछावर कर गए? 15 अगस्त पर लड्डू खाने से पहले और खाने के बाद खुद से पूछिये कि ये जनता की सरकारें आई गई हैं या सेठों की ? इस पर आत्म चिंतन कीजिये। दुनिया से कदम ताल मिलाने वाला ज्ञान तब भी खेत बेंचकर हासिल करते थे,अब मुफ्त के स्कूलों में बच्चों की गर्दन शुमारी होती है मिड-डे मील के लिए, मगर असली ज्ञान अभी दूर की कौड़ी है। उस असली ज्ञान के केंद्र दौलत की कुंजी से खुलते हैं। जरा सोचिये कि अनुदानों पर जीने को विवश लोग पहले जिंदा रहने का संघर्ष करें या परिवार को दांव पर लगाकर ज्ञान के लिए गिरवी हो जाएं ? आजादी के 71 साल बाद भी आम लोग, देश का अन्नदाता इन सवालों से, हालातों से रोज मुठभेड़ कर रहा है। और इस नाइंसाफी के खिलाफ वह जब भी आवाज उठाता है, कुचला जाता है। और अदालतों से न्याय हासिल करने में उसकी पीढ़ियां खप जाती हैं। देश के सबसे बड़े सूबे का हाल देखिये।
उत्तर प्रदेश का किसान,नौजवान बदहाल है। उसकी खेती की जमीन तक लूट ली गई है। भूमिहीनों को खाली जमीन देने,उसका सदुपयोग करने के बजाय सरकार ने बहु फसली जमीन पर ही डाका डाल दिया। बीते दो दशक का हवाला दो चार घटनाओं से दिया जाए तो आपकी आँखें खुल जाएंगीं। इलाहाबाद के करछना इलाके में 15 साल पहले सरकार ने एक सेठ की कम्पनी के लिए किसानों की जमीन मनमाने तरीके से अधिगृहीत की, किसान विरोध पर आए। किसानों पर लाठी चली, सैकडों मुकदमें हुए। हाईकोर्ट ने अधिग्रहण रद्द कर दिया। इसी तरह आठ गांव के किसानों की भूमि का अधिग्रहण लोहगरा शंकरगढ़ रिफाइनरी परियोजना हेतु 1999 -2000 में कर किसानों को बेदखल कर बीपीसीएल ने कब्जा कर लिया,कंपनी ने एक भी ईंट नहीं रखा।सरकार के अदूरदर्शिता से आज किसानों का परिवार भुखमरी के कगार पर खड़ा हो गया है।उससे बुरा हाल बरगढ़ ग्लास उद्योग के लिए किसानों की भूमि औने पौने दाम में अधिग्रहण कर लिया कुछ दिनों तक होहल्ला और शोर मचा कि अब किसान और नौजवान की तस्वीर बदल जाएगी मगर ढाक के तीन पात साबित हुए न उद्योग लगें न ही किसान और नौजवान की किस्मत बदली।आज भी बदहाली का आँसू बहा रहा है।
इन दिनों में मायावती,अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ की सरकार आई। सबने न्याय का आश्वासन दिया पर किसानों पर लगे मुकदमें नहीं हटे,वे सब जेल भेजे गए। इस दौरान नेताओं पर लगे तमाम मुकदमें सरकारों ने वापस लिए। अगर किसानों से बात करके, उन्हें सहभागी बनकर जमीन ली जाती तो कारखाने भी बनते और किसान भी दमन का शिकार नहीं होते। ऐसे ही कानपुर- उन्नाव में सरकारी उपक्रम यूपीएसआईडीसी के लिए उन्नाव जिले में स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने के लिए 2003 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने अधिग्रहण शुरू कराया। यहाँ भी किसानों से सहमति नहीं ली गई। तब से राम प्रकाश गुप्ता,राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह यादव, उनके पुत्र अखिलेश यादव, इसके बीच मायावती की सरकार आई। अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है। न कोई परियोजना बनी, न केवल किसान की बलपूर्वक कब्जा कर ली गई जमीन जोत पाए। विरोध करने पर दो दर्जन किसान जेल में ठूस दिए गए। जबकि सरकार के ही एक कमिश्नर ने 2008 में ही जमीन का अधिग्रहण रद्द कर दिया था। 17 सालों से किसानों की 1100 एकड़ से ज्यादा जमीन सरकार की एक एजेंसी माफिया की तरह दबाए बैठी है और यह देश के सत्तारूढ़ लोग आजादी के 100 साल यानी एक शताब्दी पूरे होने पर होने वाले आयोजनों की रूपरेखा बनाने में 'तल्लीन' हैं। क्या इसी आजादी के लिए हमारे पुरखों ने बलिदान दिया था ?
अब उत्तर प्रदेश और पड़ोसी राज्यों के अनेक किसान और युवाओं के संगठनों ने इस किसानों की लड़ाई के लिए किसान नौजवान मोर्चा तैयार किया है। छोटी नदी बचाओ आंदोलन के अगुवा ब्रजेंद्र प्रताप सिंह को इसके नेतृत्व की कमान सौंपी गई है। इसी क्रम में 15 अगस्त को 1100 लोग एक साथ अलग अलग जिलों में किसानों के हक में आवाज उठाएंगे। इस दौरान फेसबुक पर संकल्प लिया जाएगा कि हम लोक कल्याणकारी व्यवस्था के लिए संघर्ष करेंगे। यह देश हमारा है,इसे सही मायने में आजादी चाहिए। ऐसी आजादी जहाँ सभी स्वाभिमान के साथ जी सकें। किसान, नौजवान खुशहाल हों। हम इसके लिए संघर्ष करेंगे। देश में लागू अंग्रेजों के वक्त का पुलिस कानून बदला जाए, पुलिस सुधार किया जाए। हम इसके लिए लड़ेंगे।सभी को समान अवसर मिलें, सभी सम्मान से जियें और कोई भूखा- प्यासा न रहे। हम यह कोशिश करेंगे। हम उत्तर प्रदेश की सरकार से मांग करते हैं कि वो आंदोलन/ प्रदर्शन के दौरान किसानों और नौजवानों पर सरकार की दर्ज किए गए मुकदमें वापस ले। किसानों, नौजवानों के लिए कल्याणकारी कदम उठाए। हम किसानों का साथ देंगे ताकि यह देश खुशहाल हो सके। मैं भी यूपी नीति नियंताओं से आग्रह करूंगा कि किसान और नौजवान के लिए ठोस और कारगर नीति बनाकर प्रदेश को अग्रणी बनाने में भूमिका निभाएं।तभी 73 साल का इतिहास और भूगोल समृद्धि के साथ नया यूपी स्थापित होगा।