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लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचलना ही आपातकाल है!

Shiv Kumar Mishra
26 Jun 2021 6:08 PM IST
लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचलना ही आपातकाल है!
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आदर्श तिवारी

देश के लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तारीख याद रखनी चाहिए. क्योंकि यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया था. आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास सबसे काला अध्याय है, जिसके दाग से कांग्रेस कभी मुक्त नहीं हो सकती. इंदिरा गांधी ने समूचे देश को जेल खाने में तब्दील कर दिया था. लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया जा रहा था, सरकारी तंत्र पूरी तरह राजा के इशारे पर काम कर रहा था. जब राजा शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो स्वभाविक है कि इंदिरा गांधी पूरी तरह लोकतंत्र कोराजतंत्र के चाबुक से ही संचालित कर रही थीं.

गौरतलब है कि इंदिरा गांधी किसी भी तरीके से सत्ता में बने रहना चाहती थी. इसके लिए वह कोई कीमतअदा करने को तैयार थीं किन्तु इसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर इतना बड़ा आघात होने वाला है शायद इसकीकल्पना किसी ने नहीं की थी. देश में इंदिरा गाँधीकी नीतियों के खिलाफ भारी जनाक्रोश थाऔर जयप्रकाश नारायण जनता की आवाजबन चुके थे.जैसे-जैसेआंदोलन बढ़ रहा थाइंदिरा सरकार के उपर खतरे के बादल मंडराने लगे थे. हर रोज हो रहे प्रदर्शन सत्ता को खुलीचुनौती दे रहे थे, कांग्रेस के खिलाफ विरोध की उठी हवा बहुत जल्द आंधी में तब्दील हो चुके थे. इसी बीचइलाहाबादन्यायालयका आया फैसला इंदिरा गाँधी और कांग्रेस के लिए शामत बनकर आया. इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा को चुनावधांधली के आरोप में अयोग्य करार दे दिया. सुप्रीमकोर्टसे भी कांग्रेस को बहुत राहत नहीं मिली. कांग्रेस के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की स्थिति थी.

इसका एक मात्र हल था इंदिरा गांधी को त्याग पत्र देकर अदालत और जनभावनाओं का सम्मान करना. दुर्भाग्य से सिद्धार्थ शंकर रे और संजय गांधी की सलाह पर इंदिरा ने तीसरा राश्ता चुना जो तानशाही का प्रतीक बनकर इतिहास में दर्ज हो गया. एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ने सुप्रीमकोर्ट हो अथवा इलाहबाद हाईकोर्ट दोनों जजों के निर्णय को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की, सीधे शब्दों में कहें तो जजों को झुकाने, खरीदनेके सभी पैतरों को आजमाया गया. आपातकालका दंश झेलने वाले देश के वरिष्ठ पत्रकार रहे दिवंगत कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा एक जिन्दगी काफी नहीं में इसका विस्तृत जिक्र किया है. श्री नैयर लिखते हैं कि "इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कई महीने बाद मैं जस्टिस सिन्हा से भी इलाहाबाद में उनके घर पर मिला था. उन्होंने मुझे बतायाथा कि एक कांग्रेस सांसद ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की थी." श्री नैयर इसका विस्तृत जिक्र करतें हैं, जिसमें जज को प्रलोभन के साथ, साधू-संतोका इस्तेमाल किया गया क्योंकि जस्टिस सिन्हा आध्यात्मिक प्रवृति केथे.यह सब पैतरें इस बात के स्पष्ट संकेत देते है कि इंदिरा और कांग्रेस इस दंभ में थे कि लोकतंत्र उनके कब्जे में है परन्तु शायद वह भूल गए थे कि 'तंत्र' उनके कब्जे में हो सकता है 'लोक' उनके कुशासन के खिलाफ पहले ही बिगुल फूंक चुका थे.

बहरहाल,देश के सभी बड़े नेता जेलकीकोठरी में बंद थे. कुछ नेता भूमिगत होकर आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे. लोकतंत्र के सभी स्तंभों खासकरमीडियापरपूरी तरह संजय गांधी का पहरा था, विद्या चरण शुक्ल जैसे सूचना प्रसारण मंत्री सभी माध्यमों को झुकने को मजबूर कर दिया था. देश कि संकट से बाहर कब आएगा, लोकतंत्र का सूर्य कब उदय होगा ऐसे सवाल यक्ष प्रश्न बनकर रह गए थे. फिर यकायक 21 मार्च 1977को लोकतंत्र की शक्ति के आगे इंदिरा और कांग्रेस कोझुकना पड़ा, किन्तु इन21 महीनों में निरंकुशता की सारी सीमाओं को लाँघ दिया गया था. लाखों लोग जेलों में बंद रहे. निर्ममता और यातनाओं को झलते हुए कई लोग काल के गाम में समा गए. यह भारत के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आघात था एक ऐसा आघात,जो हमेशा हमारे लोकतंत्र की सुन्दरता को चिढ़ाता रहेगा.आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से पराजित हुई यहाँ तक की इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं थी. जनता ने देश के सत्ताधीशों को स्पष्ट सन्देश किया कि अराजकता और अधिनायकवाद को वह सहन करने वाली नहीं हैं. लोकतंत्र को पुनरस्थापित करने की लड़ाई सबने अपने स्तर लड़ी किन्तु इंदिरा गांधी के इसअनैतिक, असंवैधानिक कदम को वामपंथी दल एवं उस विचार के बुद्दिजीवियों नेक्रांतिकारी कदम बताकर इसका समर्थन किया था.

आज उसी जमात के लोग गत सात वर्षों से अघोषित आपातकाल का अनावश्यक झंडा बुलंद कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद है जब देश की सभी संस्थाएं स्वतंत्रता के साथ काम कर रही हैं. तबइस कपोल कल्पना का मकसद क्या है ? इसके पीछे पूर्वाग्रहके बाद कोई ठोस कारण भी दिखाई नहीं पड़ता. बल्कि उनके ऐसे विचार अकसर उनकीही फज़ीहत करातें हैं. उदाहरण के लिए अभीहाल के दो निर्णय के केंद्र में इसकी विवेचना को समझना चाहिए. जबन्यायालय ने वैक्सीन नीति को लेकर सरकार से तीखे सवाल किए तब अघोषित आपतकाल वालों को यकायक सब कुछ दुरुस्त लगने लगा था, वहीँ जब सेट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को कोर्ट ने हरी झंडी दिखाई तब इन्हें लोकतंत्र से भरोसा उठने लगा.ऐसे सैकड़ो उदाहरण आज हमारे सामने मौजूद है जब एक विशेष तथाकथित बौद्धिक वर्ग द्वारा आपातकाल जैसा हौवा खड़े करने की कोशिश की जाती है जिसका मकसद केवल वर्तमान सरकार को बदमान करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि भारतका लोकतंत्र समयानुकूल इतना परिपक्व नजर आता है कि अब कोई शासक ऐसे कदम उठाने की सोच भी नहीं सकता. फिलहाल तो वह विचारधारा शासन पर काबिज है जो आपातकाल के लिए संघर्ष किया. प्रधानमंत्री स्वंय आपातकाल के आंदोलन में प्रमुख भूमिका में थे.

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