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पत्रकारिता दिवसः अपने गिरहबान में झांक कर देखें कितनी पत्रकारिता बची हैं हममें
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है. आज हम पत्रकारों के लिए अपने गिरहबान में झांक कर यह देखने का दिन है कति हमारे अंदर कितनी पत्रकारिता बची है। ख़ुद को पत्रकारिता के मूल्यों की कसौटी पर परखने का दिन है। हम पत्रकार के नाते साल भर सत्ता और विपक्ष से सवाल पूछते हैं। लेकिन आज का दिन ख़ुद से सवाल पूछने का है। सिर्फ़ एक सवाल कि हम कितने पत्रकार रह गए हैं।
पत्रकारिता का पेशा अकेला है। जो हर साल पत्रकारिता दिवस मनाता है। तमाम पत्रकार संगठन हर शहर में कार्यक्रम आयोजित करके अपना और अपने पेशे में आ रही गिरावट पर खुल कर बात करते हैं। आत्मावोलकन करते है। अपने कार्यकर्मों में नेताओं और अधिकारियों को बतौर अतिथि, विशिष्ट अतिथि और मुख्य अतिथि के बतौर ससम्मान बुलाते हैं। उनके सामने खुले मंच पर इस इस पेशे में आ गई गिरावट पर बात खुली चर्चा करते हैं। इसके ले हिम्मत चाहिए। बड़ी हिम्मत।
आपने कभी नहीं सुना होगा कि कभी नेताओं ने राजनीति दिवस मनाकर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबू राजनीति रक चर्चा की है। कभी राजनीति के अपराधिकरण पर चर्चा करके इसे दूर करवन की कोशिश की है। कभी आपने सुना कि सफेद कॉलर वाले अफसरों या पुलिस अधिकारियों ने अपने नैतिक पतन और अफ़सरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर खुली चर्चा के लिए कोई एक दिन तय किया हो। आपने कभी यह भी नहीं सुना होगा कि डॉक्टरो के किसी संगठन ने कसाई खानों और लूट के अड्डों में तब्दील हो चुके बड़े नामी गिरामी अस्पलातों लगाने लगाने और डॉक्टरी के पेशे को उसका खोया हुआ सम्मान वापिस दिलाने के लिए कभी खुले मंच पर चर्चा की हो।
समय के साथ समाज के हर क्षेत्र में नैतिक गिरावट आई है। पत्रकारिता का पेशा भी इससे अछूता नहीं रहा। लेकिन लाख बुराइयों के बावजूद पत्रकारों में इतनी इंसानियत ज़िंदा है वो विषम से विषम परिस्थितियो में भी सच के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं। बड़े संस्थान भले ही सत्ता की गोद में बैठ गए हों। उन पर सत्ता के बजाय विपक्ष से सवाल पूछने के गंभीर आरोप लगते हों। कई अख़बार पर सत्ता का मुखपत्र बन गए हैं। टीवी चैनलों के एंकर सरकार के प्रवक्ता बन गए हैं। लेकिन कई बार पर उनका भी ज़मीर जागता है। वो विपक्ष बजाय सत्ता से सवाल पूछने हैं। ये उनके भीतर किसी कोने में एक पत्रकार के ज़िंदा होने की निशानी है।
हर दौर में कुछ ज़िदादिव पत्रकार रहे हैं। कुछ सत्ता के चाटुकार भी रहें है। लेकिन चाटुकारों को पत्रकार बिरादरी में सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता। सम्मान उन्हीं का होता है जो विषम परिस्थितियों में भी पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों को नहीं छोड़ते। हमेश सच की तलाश में जुटे रहते हैं। सच के साथ खड़े होते हैं। सच के लिए लड़ते हैं। सच के लिए कई पत्रकार शहीद भी हो जाते हैं। ऐसे पत्रकारों से पत्रकारिता के पेशे की शान बनी हुई है। पत्रकार जब सच के साथ खड़े होते है तो सत्ता का सिंहासन डोलने लगता है। पत्रकार सही मायनों मे जनता के हितों का रखवाला और जनता की संपत्ति पर डाका डालने वलों पर पैनी नज़र रखने वाला चौकीदार है।
क्यों मनाते हैं पत्रकारिता दिवस
दरअसल आज से ठीक 195 साल पहले 30 मई, 1826 को कलकत्ता(कोलकाता) में 'उदंत मार्तण्ड' नामक साप्ताहिक अख़बार की शुरुआत हुई। कानपुर से कलकत्ता में सक्रिय वकील पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इस अख़बार की नींव रखी। वो हिंदुस्तानियों के हित में उनकी भाषा में अखबार निकालना चाहते थे। इसी दिन की याद में पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।
79 अंक ही हो सके प्रकाशित
उदंत मार्तंड का अर्थ होता है उगता सूरज। हिंदी पत्रकारिता का सूरज पहली बार कलकत्ता के बड़ा बाजार के करीब 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला में उदित हुआ था. यह अखबार पाठकों तक हर मंगलवार पहुंचता था। इसकी शुरुआत 500 प्रतियों के साथ हुई थी।
उदंत मार्तण्ड खड़ी बोली और ब्रज भाषा के मिले-जुले रूप में छपता था और इसकी लिपि देवनागरी थी। लेकिन इसकी उम्र ज्यादा लंबी नहीं हो सकी। इसके केवल 79 अंक ही प्रकाशित हो सके।
आज दिवस लौ उग चुक्यों मार्तण्ड उदंत
प्रकाशन की शुरुआत के लगभग एक साल बाद ही हिंदी पत्रकारिता का पहला सूरज आर्थिक तंगी का शिकार होकर ओझल हो गया। 19 दिसंबर 1827 को उदन्त मार्तण्ड का आखिरी अंक प्रकाशित हुआ था। अख़बार के आखिरी अंक में संपादक और प्रकाशक जुगल किशोर शुक्ल ने अख़बार के बंद होने की सूचना पाठकों बेहद मार्मिक अपील के साथ दी थी।
उन्होंने लिखा, 'आज दिवस लौ उग चुक्यों मार्तण्ड उदंत। अस्ताचल को जाता है दिनकर दिन अब अंत।' (अर्थात-यह सूर्य आज तक निकल चुका है। अब इसका अंत आ गया है और यह सूर्यास्त की ओर बढ़ चला है।)
'उदंत मार्तण्ड' के बाद न जाने कितने अख़बार सूर्य का तरह चमके और फिल आर्थिक तंगी का शिकार होकर जल्द ही अस्त हो गए। ये सिलसिसा आज भी जारी है। न जाने कितने छोटे अख़बारों सरकार की नई नीतियों ने बंद करा दिया है। क़रीब दो दशक पहले पत्रकारिता के नया फॉर्मेट वेब पोर्टल्स के रूप में सामने आया है। मझोले और छोटे संस्थान किसी तरह इन्हें बस चला भर पा रही है। क्योंकि यहा भी बड़े संस्थानों ने क़ब्ज़ा किया हुआ है। सरकार इस पर भी नियंत्रण चाहती है। ऐसी नीतियां बनाई जा रही है कि सरकार जो चाहे वहीं छपे। बाकी सब छिपा रहे। बहरहाल इन तमाम चुनौतियों से निपटने पर भी आज के दिन विचार करने की ज़रूरत है। नए भारत में नए मीडिया स्वरूपों में पत्रकारों और पत्रकारिता के सामने खड़ी नई चुनौतियां के मुक़ाबला पत्रकारिता के पुराने मूल्यों के साथ ही होगा।
(वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ़ असंरी की फेसबुक वॉल से साभार)