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शिव कुमार मिश्र
करीब छह साल पहले जब बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार मिला तो तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री प्रणव मुखर्जी ने सम्मान में उन्हें राष्ट्रपति भवन में चाय पर आमंत्रित किया। बातचीत में महामहिम इस बात पर भावुक हो गए कि 130 करोड़ के देश में एक भी नोबेल पदक नहीं है। प्रणवदा ने उन्हें बताया कि रवींद्र नाथ टैगोर के अलावा बाकी नोबेल विजेता या तो देश में नहीं रह रहे हैं या फिर उन्होंने विदेशी नागरिकता ले ली है। गुरुदेव का पदक चोरी हो चुका है और बाद में जो रिप्लिका (प्रतिलिपि) लाई गई वह भी उनके रिश्तेदार विदेश में ले जाकर बस चुके हैं। यह सुनकर कैलाशसत्यार्थी भी प्रणव मुखर्जी के साथ भावुक हो गए। कुछ पल चुप्पी के बाद दोनों के बीच फिर से चर्चा तो शुरु गई, लेकिन दोनों को यह बात सालती रही।
श्री सत्यार्थी के लिए भी यह बात हैरान करने वाली थी कि दुनिया के सबसे प्राचीन और महान सभ्यता वाले देश में एक भी नोबेल पदक नहीं है। उसी पल उन्होंने फैसला कर लिया कि वे अपना नोबेल पदक राष्ट्र को समर्पित कर देंगे, ताकि फिर किसी राष्ट्रपति को इस तरह से मायूस न होना पड़े। उन्होंने ऐसा किया भी। यह नोबेल शांति पुरस्कार अब राष्ट्र की धरोहर है और राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में आम जनता के दर्शन के लिए रखा गया है। जबकि नोबेल पुरस्कार किसी व्यक्ति की निजी उपलब्धि और सम्पत्ति होती है। नोबेल पुरस्कार के 100 साल के इतिहास में यह पहला वाकया है जब किसी ने अपने महान पदक को राष्ट्र को समर्पित कर दिया हो। इतना ही नहीं इस पुरस्कार के साथ मिलने वाली राशि को भी श्री सत्यार्थी ने वंचित बच्चों के उत्थान और शिक्षा के लिएदान कर दिया है।
इस प्रसंग को सुनाने का प्रयोजन यह है कि अक्टूबर में भारत को मिले नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा के 6 साल पूरे हो रहे हैं। 10 अक्टूबर, 2014 भारत के लिए ऐतिहासिक दिन था। दुनिया के महानत लोगों में से एक महात्मा गांधी को इस सर्वोच्च पुरस्कार के लिए कई बार नामांकित किया गया था, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल पाया था। नोबेल शांति पुरस्कार के इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी खांटी भारतीय को इस पुरस्कार से नवाजा गया। विश्व कल्याण और समाज के लिए त्याग व बलिदान भारत की मिटटी की विशेषता है। कर्मयोगी श्री कैलाश सत्यार्थी इस मायने में सच्चे भारतीय हैं। दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार देश को और इससे मिली करोड़ों की राशि जन-कल्याण को समर्पित कर वे सड़सठ साल की उम्र में भी बच्चों के अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर कर संघर्ष कर रहे हैं। नोबेल शांति पुरस्कार को दुनिया का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है। हर साल यह पुरस्कार विश्व शांति के लिए उल्लेखनीय काम करने वाले किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है। संस्थाओं के अलावा अब तक जितने व्यक्तियों को यह सम्मान मिला है, उनमें से करीब दो दर्जन लोग ही जीवित हैं। श्री कैलाश सत्यार्थी उनमें से एक हैं। इस नाते वह भारत की ही नहीं विश्व की धरोहर हैं।
श्री कैलाश सत्यार्थी चार दशकों से बच्चों के अधिकारों की वैश्विक स्त र पर लड़ाई लड़ रहे हैं। जब इंजीनियरिंग का मतलब देश-विदेश में अच्छी नौकरी और शानो-शौकत हुआ करता था, तब उन्होंदने इंजीनियरिंग की नौकरी पर लात मार कर फक्कड़ी का रास्ता चुना और 1980 में बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) की स्था पना की। बीबीए ने श्री सत्यार्थी के नेतृत्व में अब तक 91 हजार से अधिक बाल और बंधुआ मजदूरों को सीधी छापामार कार्रवाई के तहत मुक्तथ कराकर उन्हेंम समाज की मुख्यछधारा से जोड़ने का प्रयास किया है।श्री सत्यार्थी का नाम आज दुनियाभर में बाल दासता और बाल मजदूरी के खिलाफ संघर्ष का पर्याय माना जाता है। उनकी वजह से दुनियाभर के कई देशों में बच्चों के हक में कई कानून भी बने।श्री सत्यारर्थी के प्रयास से ही 1986 में भारत की संसद द्वारा बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम पारित कर इसे कानूनी जामा पहनाया गया। उनके प्रयास से ही बाल श्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून आईएलओ कनवेंशन-182 बना।आईएलओ के सभी 187 सदस्य देशों ने इस कनवेंशन पर हस्ताक्षर कर इसे अपने यहां लागू कर दिया है।इस कानून को बनवाने के लिए इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) पर दबाब बनाने हेतु उन्होंने बाल श्रम के खिलाफ दुनिया की सबसे लबीं जन-जागरुकता यात्रा का आयोजन किया था। 1998 में आयोजित यह ऐतिहासिक यात्रा तकरीबन पांच महीने चली थी और 103 देशों से गुजरते हुए 80 हजार किलोमीटर की दूरी तय की थी। तब 100 से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री और राजा-रानी शामिल हुए थे।
श्री कैलाश सत्यार्थी ऐसे विरले नोबेल पुरस्कार विजेता हैं जो आज भी सड़क पर उतर कर बच्चों के अधिकारों की लड़ाई लड रहे हैं। करीब तीन साल पहले जब उन्होंने भारत में बच्चों के यौन शोषण और ट्रैफिकिंग के खिलाफ कश्मीर से कन्याकुमारी तक 12 हजार किलोमीटर लंबी "भारत यात्रा" का आयोजन किया तो उनके साथी नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने दातों तले अंगुली दबा ली थी। 65 साल की उम्र में भी वे चिलचिलाती धूप और उमस भरी दोपहरी में 35 दिनों तक सड़कों पर मार्च करते हुए "चुप्पी तोड़ो…" और "बलात्कारियों भारत छोड़ो…" का नारा लगाते रहे। देशभर में घूम-घूम कर हजारों रैलियां की। सैकड़ों सभाओं को संबोधित किया। उनके साथ तकरीबन 12 लाख लोगों ने सड़क पर उतर कर पैदल मार्च किया। नतीजन देशभर में यौन शोषण और ट्रैफिकिंग एक मुद्दा बन गया। सरकारों से लेकर जांच एजेंसियां और अदालते बच्चों के प्रति संवेदनशील हो गए। इस यात्रा के बाद सरकारी नीतियों में आए बदलाव और अदालतों के त्वरित और ऐतिहासिक निर्णय इसेक सबूत हैं।
श्री कैलाश सत्यार्थी बार-बार अपने भाषणों में मुठ्ठियां भीचते हुए दोहराते हैं, "एवरी चाइल्ड मैटर्स…"यानी उनके लिएदुनिया का हर एक बच्चा मायने रखता है।हर बच्चे के चेहरे पर जब तक मुस्कान नहीं आ जाती, तब तक वे भला कहां चुप बैठने वाले। अपनी-अपनी धुन में लगे अलग-अलग कार्यक्षेत्र के नोबेल पुरस्कार विजाताओं और नेताओं को उन्होंने बच्चों के हक में एक जुट किया और इसे वैश्विक आवाज देने के लिए "लॉरिएट्स एंड लीडर्स फॉर चिल्ड्रेन" की स्थापना की। कोरोना संकटकाल में दुनियाभर के बच्चों को बचाने के लिए श्री सत्यार्थी के प्रयास से 88 नोबेल पुरस्कार विजेताओं और वैश्विक नेताओं ने अमीर सरकारों से बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर एक ट्रिलियन डॉलर अनुदान देने की मांग भी की है। वे लगातार इसके लिए वैश्विक सरकारों और संगठनों पर दबाव बना रहे हैं।
श्री कैलाश सत्यार्थी एक ऐसी दुनिया का सपना देखते है, जहां हर बच्चा आजाद हो। उसका बचपन खुशहाल हो। उनके हाथों में औजार नहीं, किताबें हों। वे यह भी जानते हैं कि बदलाव का रास्ता आंदोलनों से गुजरता है। उनका सारा जीवन आंदोलनों में ही गुजरा है। सड़सठ साल के इस बूढे ने एक बार फिर कमर कस ली है और दुनिया बदलने के लिए युवाओं को एकजुट करना शुरु कर दिया है। उन्होंने "100 मिलियन फॉर 100 मिलियन" नामसे एक युवा आंदोलन शुरु किया है। इस आंदोलन का उद्देश्य दुनिया के 10 करोड़ वंचित और हाशिए के बच्चों के लिए 10 करोड़ नौजवानों को तैयार करना जो उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ सके और उन्हें रोटी, खेल, पढ़ाई का अधिकार दिला सकें। यह आंदोलन विशाल रूप लेते हुए दुनिया के तकरीबन 40 देशों में पहुंच चुका है।
नोबेल पुरस्कार मिलने पर श्री कैलाश सत्यार्थी ने कहा था, "यह पुरस्कार मेरे जीवन का कॉमा है, फुलस्टाप नहीं..." यही वजह है कि उम्र के जिस पड़ाव पर दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेता आराम की जिंदगी बिता रहे हैं, उस उम्र में वे"अपने जीते जी दुनियाभर से बाल दासता को खत्म करने के प्रण" को पूरा करके लिए सड़कों पर धूल फांक रहे हैं। श्री कैलाश सत्यार्थी को गोले-बारूद के बीच सीरिया के शरणार्थी कैंपों से लेकर सूडान में दंगों के बीच भुखमरी के शिकार लोगों के राहत शिविरों में बच्चों के बीच सहजता से देखा जा सकता है। दुनियाभर के वंचित, गरीब, असहाय और हाशिए के बच्चों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए उनका संघर्ष लगातार जारी है।
(लेखक स्पेशल कवरेज न्यूज डॉट इन के संपादक हैं)