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कोविड ने दिया हरित अर्थव्यवस्था बनाने का सुनहरा मौका : विशेषज्ञ
दुनिया भर में पिछले कई महीनों से कोविड-19 महामारी ने पूरे विश्व को अस्थिर सा कर दिया है इससे दुनिया एक वैश्विक महामंदी के दौर की तरफ बढ़ रही है इसे रोकने के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों ही तरह के कदम उठाने होंगे।
यह महामारी खासतौर पर भारत के लिए एक सुनहरा मौका भी लेकर आई है। मौजूदा हालात में बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था का सतत रूपांतरण किए जाने का अवसर है। हालांकि यह काम बहुत पहले ही शुरू करने की जरूरत थी। इसके लिए पर्यावरण के प्रति मित्रवत विकास योजना बनानी होगी, जिसमें अक्षय ऊर्जा को वरीयता दी जाए और प्रदूषणकारी जीवाश्म ईंधन और उससे चलने वाली चीजों को हतोत्साहित करते हुए परिवहन के सतत विकल्पों को अपनाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन हो।
कार्बन कॉपी ने शुक्रवार को इस सिलसिले में एक वेबिनार आयोजित किया, जिसमें विशेषज्ञों ने जलवायु परिवर्तन से निपटते हुए सतत आर्थिक भरपाई के तमाम अवसरों के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार रखे।
इस वेबीनार में टेरी के निदेशक डॉक्टर अजय माथुर, सीपीआर-आईसीईई में प्रोफेसर और आईपीसीसी के कोऑर्डिनेटिंग लीड ऑथर नवरोज दुबाष, फिनलैंड की लप्पेरांता लाहती यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी के प्रोफेसर क्रिश्चियन ब्रेयर, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्मिथ स्कूल आफ एंटरप्राइज एण्ड एनवॉयरमेंट के निदेशक कैमरन हेबर्न, क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला और इंडियास्पेंड के संस्थापक सम्पादक गोविंदराज एतिराज ने हिस्सा लिया।
वेबिनार में विशेषज्ञों ने कोविड-19 महामारी के कारण उपजे हालात में पहले से ही चिंता का कारण बने जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर सतत और सुरक्षित भविष्य को ध्यान में रखते हुए आर्थिक भरपाई के उपाय सुझाये और इसकी राह में मौजूद चुनौतियों पर भी गहन विचार-विमर्श किया।
टेरी के महानिदेशक डॉक्टर अजय माथुर ने कहा कि भारत समेत पूरी दुनिया रिकवरी पैकेज के मामले में तीन चीजों पर ध्यान दे रही है। पहला, आर्थिक विकास, दूसरा ऐसा विकास जो रोजगार दे और तीसरा, टिकाऊ रोजीरोटी। सरकार के पास कृषि और एमएसएमई सेक्टरों के रूप में बेहतरीन अवसर हैं। इन दोनों विशाल क्षेत्रों के जरिये आर्थिक विकास के साथ—साथ रोजगार दिया जा सकता है। हमे अक्षय ऊर्जायुक्त भविष्य की तरफ बढ़ना सुनिश्चित करने के लिये ग्रीन इक्विटी सुनिश्चित करनी होगी। अगर आप कोल्ड स्टोरेज को ही देखें तो दो तिहाई अवशीतनगृह शहरी इलाकों में है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली आपूर्ति की स्थिति बहुत खराब है। इस स्थिति को बदलना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में सतत ऊर्जा की उपलब्धता से आर्थिक विकास,, रोजगार और बेहतर जीवन मिलेगा। इस तरफ बढ़ने से हम इस ग्रीन इक्विटी को बेहतर तरीके से लाकर खुशहाल भविष्य बना सकते हैं।
उन्होंने कहा कि हमारे पास मौजूद अवसर बहुत संकरे हैं। हमें बहुत गहराई से ध्यान देना होगा, ताकि इनका पूरा फायदा उठाया जा सके। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली आने—जाने का कोई समय नहीं है। इससे पूरी कृषि व्यवस्था और उसके विपणन पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ता है। अगर हम अक्षय ऊर्जा की तरफ जाते हैं तो इन समस्याओं से काफी हद तक निजात मिल सकती है। अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों, घरेलू वित्तपोषण से आने वाली इक्विटी दरअसल क्रेडिट आधारित होनी चाहिये। हमें घरेलू फंडिंग का जरिया निकालना होगा, ताकि उसके एवज में फायदा हासिल हो।
डॉक्टर माथुर ने कहा कि वर्ष 2050 के लिये अभी से तैयारी करना अच्छी बात है लेकिन 2050 अभी 30 साल दूर है। इस पर ध्यान होगा कि हमें अभी क्या करना है। बिजली वितरण कम्पनियों की वित्तीय स्थिति खराब है। अगर उनकी खस्ताहाली जल्द दूर नहीं की गयी तो हो सकता है कि वे अक्षय ऊर्जा को खरीदना ही बंद कर दें। इसके अलावा हमें अक्षय ऊर्जा क्षेत्र को रास आने वाली क्षमताओं को भी विस्तार देना होगा। साथ ही नये लोगों को प्रशिक्षण देने के अलावा नगरीय इलाकों और छोटे कस्बों में पहले से ही काम कर रहे कामगारों जैसे प्लम्बर और इलेक्ट्रिीशियन की क्षमताओं को भी बढ़ाना होगा।
सीपीआर-आईसीईई के प्रोफेसर और आईपीसीसी कोऑर्डिनेटिंग लीड ऑथर नवरोज दुबाष ने कहा ''मेरा मानना है कि कोविड संकट भारत में बहुत लम्बे वक्त तक रहने वाला है। यह भारत के लिये गहरी आर्थिक क्षति लेकर आयी है जीडीपी में जबर्दस्त गिरावट इसकी गवाह है। इसकी भरपाई बहुत मुश्किल है। इस बीच, अंतर्राष्ट्रीय विमर्श का केन्द्र अब भी अनिश्चितता से घिरा हुआ है। हालात को लेकर दुनियावी स्तर पर और भारत के स्तर पर भी आंतरिक विचार-विमर्श भी बेहतर नहीं हो रहे हैं। अनेक डिस्कनेक्ट्स हैं। हमें ऐसे अवसर देखने होंगे जो भरपाई के लिये जरूरी माहौल बनाएं, जिनसे रोजगार मिले। हमारे पास मौजूदा और दीर्घकालिक दोनों ही तरह की चुनौतियां हैं।
उन्होंने कहा ''हम अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनानी होंगी। ग्रिड से मिलने वाली बिजली का कोई भरोसा नहीं है लिहाजा हमें ऊर्जा क्षेत्र में तेजी से कदम बढ़ाते हुए 'प्रोडक्टिव पॉवर' विकसित करनी होगी जिससे ऊर्जा उत्पादन को विकेंद्रित तरीके से बढ़ाया जा सके और प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर रहने वाली अर्थव्यवस्था को संभाला जा सके। नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के लिए वित्त आयोग द्वारा मंजूर की गई धनराशि को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। हमें इसे अब बिल्कुल भी नहीं टालना चाहिए।''
उन्होंने कहा कि इस लिहाज से बिजली सेक्टर बहुत दिलचस्प भूमिका में है। अक्षय ऊर्जा से ग्रामीण क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ेगी, जिससे भारत के बड़े हिस्से की तस्वीर बदल सकती है। दूसरी बात यह है हमें पहले से ही हिली हुई ग्रामीण अर्थव्यवस्था को और खराब नहीं होने देना है। हमें खेती के पैटर्न (तर्ज) को बदलना होगा और क्षमताओं को बढ़ाना होगा। एग्रीकल्चर मार्केंटिंग के अलावा न्यूनतम परामर्शी मूल्य (एमएसपी) प्रणाली को भी बदलना होगा। यह राजनीतिक रूप से बहुत चुनौतीपूर्ण है लेकिन हमें इसे करना होगा। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। हमें साथ ही दीर्घकालिक ढांचागत विकास के लिये भी गुंजाइश रखनी होगी।
लप्पेरांता लाहती यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी के प्रोफेसर क्रिश्चियन ब्रेयर ने कहा कि भविष्य में ऊर्जा की जरूरत बढ़ने वाली है। अक्षय ऊर्जा क्षेत्र से वर्ष 2050 तक 50 लाख रोजगार अवसर मिलेंगे। हम बिजली के लिये कोयले के बजाय हाइड्रोजन का इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे बहुत बड़े बाजार स्थापित होंगे। यह सस्ती बिजली का बेहतरीन विकल्प होगा। स्पष्ट लक्ष्य और त्रुटिरहित क्रियान्वयन से ही हम दहलीज पर खड़े सौर युग में बहुत आगे जा सकते हैं और इसके बेशुमार फायदे ले सकते हैं। हम 2050 तक बिजली की सम्पूर्ण मांग को सतततापूर्ण तरीके से पूरा कर सकते हैं।
क्रिश्चियन ने उत्तर भारत में ग्रीन रिकवरी के लिए ऊर्जा रूपांतरण से संबंधित अपने अध्ययन का जिक्र करते हुए कहा कि वर्ष 2050 तक उत्तर भारत 100 फीसद अक्षय ऊर्जा और ग्रीन हाउस गैसों के शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल कर सकता है और यह तकनीकी और आर्थिक दोनों ही तरीकों से मुमकिन है। वर्ष 2050 में ग्रीन हाउस गैसों को मौजूदा 825 एमटी CO2 इक्वेलेंट से घटाकर शून्य तक लाया जा सकता है। इससे वायु प्रदूषण में भी कमी लाने में मदद मिलेगी जो इस वक्त उत्तर भारत के ज्यादातर शहरों पर खतरा बनकर मंडरा रहा है।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2050 में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सालाना करीब पांच लाख प्रत्यक्ष रोजगार अवसर पैदा होंगे जिससे देश में बेरोजगारी के बढ़ते स्तर को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही 100 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा की प्रणाली ज्यादा भरोसेमंद और किफायती होगी। साथ ही इससे पेरिस समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्यों को हासिल करने में भी आसानी होगी।
क्रिश्चियन ने कहा कि पूरे भारत में अनेक स्थानों पर अक्षय ऊर्जा प्रणाली स्थापित करने की रफ्तार में तेजी आई है लेकिन उत्तरी ग्रिड क्षेत्र के कुछ राज्य अब भी इस दौड़ में पीछे हैं। उन्होंने दिल्ली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस राज्य में इस वक्त कुल ऊर्जा उत्पादन मिश्रण में 98% हिस्सा जीवाश्म ईंधन, कोयले और गैस से बनने वाली बिजली का है जबकि बाकी सिर्फ दो फीसद हिस्सा सोलर पीवी तथा अन्य बायो एनर्जी का है।
क्रिश्चियन ने बताया कि वर्ष 2050 तक उत्तर भारत में 100% अक्षय ऊर्जा पर निर्भरता होने से 50 लाख से ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा होंगे जो कि वर्तमान में जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली प्रणाली में रोजगार के 30 लाख अवसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। बिजली स्टोरेज की व्यवस्था वर्ष 2030 के बाद देश में रोजगार पैदा करने वाले शीर्ष क्षेत्रों में शामिल होगी। संचालन और मेंटेनेंस के साथ-साथ ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन के क्षेत्र में रोजगार के ज्यादा अवसर मिलेंगे। उन्होंने बताया कि वर्ष 2030 तक सोलर पीवी की आपूर्ति 40 प्रतिशत होगी जो 2050 तक बढ़कर 95 फीसद तक हो जाएगी। इसके साथ ही यह सबसे सस्ती बिजली का स्रोत बन जाएगी।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्मिथ स्कूल आफ एंटरप्राइज एण्ड एनवॉयरमेंट के निदेशक कैमरन हेबर्न ने कहा कि वैश्विक स्तर पर एसिमेट्रिक (असममित) खर्च से भविष्य में उद्योग के स्वरूप में आमूलचूल बदलाव हो सकते हैं और प्रतिस्पर्धी लैंडस्केप का रूपांतरण किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पुनर्निधारित प्रौद्योगिकियों और मंदी के कारण अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के प्रति दिलचस्पी में अचानक हुई बढ़ोत्तरी इसकी मुख्य वजह है। इसके अलावा आज किया गया निवेश भविष्य के बाजारों में प्रतिस्पर्धा के लिहाज से उल्लेखनीय फायदा दिला सकता है।
उन्होंने कहा कि स्वच्छ भौतिक मूलभूत ढांचे में निवेश, क्षमता निर्माण पर खर्च, शिक्षा और प्रशिक्षण पर निवेश, नेचुरल कैपिटल में निवेश और स्वच्छ अनुसंधान एवं विकास पर खर्च जैसी भरपाई संबंधी नीतियों से जलवायु संरक्षण और आर्थिक लक्ष्यों दोनों को ही हासिल किया जा सकता है। इसके अलावा ऐसी भरपाई नीतियों से सामाजिक, पर्यावरणीय स्वास्थ्य तथा राजनीतिक लाभ भी मिल सकेंगे।
उन्होंने कहा कि कोविड-19 महामारी ने वैश्विक स्तर पर प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन पर असर डाला है लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव कहीं ज्यादा बड़े हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि कोविड-19 संबंधी नीतियों की कामयाबी और नाकामी हमें यह सीखने का मौका देती है कि कैसे हम दीर्घकालिक जलवायु नीति और उसके क्रियान्वयन को बेहतर कर सकते हैं।
हेबर ने कहा कि यूरोपीय यूनियन क्लीन रिकवरी स्टिमुलस के तौर पर 400 अरब डॉलर का खर्च कर रही है। अगर इसका 50 फीसद हिस्सा भी खर्च हुआ तो यह दुनिया में अपनी तरह का सबसे बड़ा व्यय होगा।
महिला हाउसिंग सेवा ट्रस्ट की निदेशक बीजल ब्रह्मभट्ट ने इस मौके पर कहा कि आवासीय परियोजनाएं और बिजली की मांग एक-दूसरे से जुड़ी चीजें हैं। हमारा संगठन सरकार की मदद से सस्ते मकानों की उपलब्धता की तरफ ध्यान दे रहा है ताकि लोग झुग्गी-झोपड़ी से निकलकर पक्के घर में आ सकें। इससे बिजली की मांग भी बढ़ेगी। देश में कोयले से चलने वाले बिजलीघर खुद नुकसान से घिरे हैं और अक्षय ऊर्जा विकल्पों की बढ़ती मांग ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। बहरहाल, अक्षय ऊर्जा की तरफ बढ़ता रुझान सतत भविष्य के लिये बेहत अच्छा संकेत है।
उन्होंने कहा कि देश में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में अच्छा काम जरूर हो रहा है लेकिन इसमें और तेजी लाये जाने की जरूरत है। नीतियों को जमीन पर लागू किया जाना चाहिये। जब ऐसा होता है, तभी उसकी सार्थकता होती है।