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Mahakavi Subrahmanya Bharti: महाकवि सुब्रह्मण्य भारती: विलक्षण प्रतिभा के कवि
उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू के फेसबुक पेज से साभार
भारत की शीर्षस्थ साहित्यिक विभूतियों में से एक, महाकवि सुब्रह्मण्य भारती की पुण्यतिथि पर उनकी पावन स्मृति को सादर प्रणाम करता हूं। भारत सरकार द्वारा "राष्ट्रकवि" की उपाधि से विभूषित, आप "भारतीयार" और "महाकवि भारती" के रूप में भी आदरपूर्वक स्मरण किए जाते हैं।
महाकवि सुब्रह्मण्य भारती बहुमुखी प्रतिभा वाले बहुआयामी व्यक्तित्व थे: प्रखर राष्ट्रवादी, पत्रकार, कवि, लेखक, समाज सुधारक, बहुभाषाविद और सबसे पहले एक महान मानवतावादी बुद्धिजीवी थे, जिनके हृदय में दूसरों के प्रति अगाध करुणा और संवेदना बसती थी। भारत के इस महान सपूत की कविताएं और कृतियां, तमिलनाडु ही नहीं बल्कि देश विदेश में भी प्रसिद्ध थीं जिनका अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया गया। मात्र 11 वर्ष की छोटी आयु में ही उनको महाराजा अत्तयापुरम के दरबार में "भारती" की उपाधि से सम्मानित किया गया था। यह अपने आप में, बालक के रूप में उनकी विलक्षण प्रतिभा का सबूत है। आपने महज सात वर्ष की आयु में ही कविता लिखना आरंभ कर दिया था, वे बड़े बड़े ख्यातिलब्ध वरिष्ठ विद्वानों से तमिल साहित्य पर चर्चा करते।
सुब्रह्मण्य भारती को तमिल साहित्य में क्रांति के प्रणेता के रूप में सम्मान दिया जाता है। भारत की सांस्कृतिक विरासत से प्रेरणा लेते हुए वे सरल सुगम्य शब्दों में स्थानीय मुहावरों और उक्तियों का प्रयोग कर, गेय छंदों की रचना करते।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि महाकवि सुब्रह्मण्य भारती बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। वाराणसी में अपने प्रवास के दौरान उन पर राष्ट्रवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। कालांतर में वे महाराजा के आमंत्रण पर अत्तयापुरम वापस लौट आए और महाराजा के संस्थान में काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने तमिल दैनिक "स्वदेशीमित्रन", महिलाओं की आज़ादी पर आधारित तमिल पत्रिका "चक्रवर्तिनी" के लिए काम किया। तमिल साप्ताहिक " इंडिया" के संपादक के रूप में तथा अंग्रेजी साप्ताहिक " द बल भारत " के संपादक के रूप में भी कार्यरत रहे। इस दौरान राष्ट्रवादियों पर अत्याचार बढ़ने लगे थे। इंडिया में लिखे गए उनके लेखों के कारण सुब्रमण्य भारती को भी अंग्रेजों के दमन का सामना करना पड़ा। अतः वे मद्रास से पांडिचेरी चले आए, जो उस समय एक फ्रांसीसी उपनिवेश था, और वहां उन्होंने लगभग 10 वर्ष बिताए। यहीं उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध कृतियों की रचना भी की। 1906 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन पहली बार स्वराज और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की मांग उठी थी। उस अधिवेशन से लौटते समय आपकी भेंट सिस्टर निवेदिता से हुई जिनसे भारती को नारी मुक्ति के विषयों पर केंद्रित करने की प्रेरणा मिली। सुब्रह्मण्य भारती स्वभावत: भी प्रगतिशील विचारों वाले विचारक थे। सुब्रह्मण्य भारती पर, उनकी पौत्री एस. विजया भारती द्वारा संचालित वेबसाइट के अनुसार महाकवि ने अपनी पत्रिका में ही यह घोषणा कर दी थी कि " चक्रवर्तिनी " का उद्देश्य तमिलनाडु में महिलाओं की स्थिति में सुधार करना था। उन्होंने पत्रिका के शीर्षक के नीचे ही दो पंक्ति की कुराल लिखी, " जब जब महिलाओं का ज्ञान बढ़ता है तब तब नारीत्व की प्रतिष्ठा बढ़ती है, और जब ऐसा होता है, तभी राष्ट्र महान बनता है।" उनके विद्वत्वचन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि उस समय थे।
महिला मुक्ति के पुरोधा होने के साथ साथ महाकवि सुब्रह्मण्य भारती जाति प्रथा और बाल विवाह प्रथा के सख्त खिलाफ थे। एक मुखर समाज सचेतक के रूप में, समाज में समानता पर उनका दृढ़ विश्वास था। उनका कहना भी था कि "जब पुरुष और स्त्री को बराबर समझा जायेगा तब ही विश्व में ज्ञान और विवेक का अभ्युदय होगा।" इसी प्रकार उन्होंने यह भी कहा था कि " हमें जाति या धर्म नहीं देखना चाहिए। इस भूमि के सभी मानव, चाहे वो वेद का उपदेश देते हों या किसी और जाति के हों, सभी एक हैं।"
वे विचारक थे, लेखक थे जिन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से राष्ट्रवाद, तमिल भाषा की व्यापकता, भक्ति काव्य, स्वाधीनता सेनानियों के प्रति भावांजलि जैसे विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त हैं। पांचाली सप्तम, कुयिल पट्टू तथा कन्नन पट्टू उनकी कुछ कृतियां हैं जिनकी प्रसिद्धि कालातीत है। महाकवि सुब्रह्मण्य भारती अपने समय के मूर्धन्य प्रतिनिधि है, एक विचारक, एक दृष्टा, एक लेखक, कवि, जिनकी कालजयी कृतियों ने पीढ़ियों को प्रेरणा दी है और आज भी उन्हें रुचि के साथ पढ़ा भी जाता है और उद्धृत भी किया जाता है।