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मणिपुर डायरी: परतों के भीतर कितनी परतें होती हैं? इस रिपोर्ट को पढ़कर हैरान होंगे
प्रमोद रंजन की कलम से
इन दिनों असम के जिस कस्बे में हूं, वहां से मणिपुर के प्रवेश द्वार- जिसे माओ गेट कहा जाता है- का रास्ता महज चार घंटे का है। यह रास्ता नगालैंड के दीमापुर से होकर गुजरता है। तेजी से शहर बनते मेरे कस्बे का नाम दीफू है। भले ही राजनीतिक नक्शे पर यह असम में है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से नगालैंड और मणिपुर के अधिक करीब है। कार्बी यहां की प्रमुख जनजाति है, जो मंगोल नस्ल की है। चपटी नाक और छोटी-छोटी आंखों वाली पूर्वोत्तर की अधिकतर जनजातियां इसी नस्ल की हैं, जो सदियों पहले मध्य एशिया से चलकर इधर आयी थीं। वे कद में जरा छोटी, लेकिन बलशाली और सुदर्शन होती हैं।
मणिपुर से मेरा रिश्ता बहुत गहरा तो नहीं है, लेकिन पुराना जरूर है। किशोरावस्था में पहली बार एनसीएसी, पटना द्वारा आयोजित एक ट्रैकिंग कार्यक्रम में मणिपुर की पहाड़ियों में गया था। उसके बाद 2019 में दिल्ली से पूर्वोत्तरी राज्यों- सिक्किम, असम, मिजोरम, मणिपुर और नगालैंड की यात्रा कार से की। उस यात्रा में मणिपुर में कई दिन रहा था। अब तो खैर, यह इतना करीब है कि सुबह नाश्ता घर में और लन्च इंफाल में किया जा सकता है। पहले रास्ते बहुत खराब थे, अब कोलकाता से थाईलैंड तक के लिए एक प्रशस्त हाइवे बन रहा है, जिसके रास्ते में मेरा यह कस्बा और मणिपुर भी आता है। यह हाइवे मणिपुर स्थित मोरेह सीमा से म्यांमार में प्रवेश करेगा और थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक तक जाएगा। मौजूदा केंद्र सरकार की कोशिश है कि पूर्वोत्तर को हाइवे से पाट दिया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी पूर्वोत्तर आते हैं, तो अपने भाषणों में मुख्य रूप से इसी उपलब्धि का बखान करते हैं। उनकी नजर में यही एकमात्र विकास है जिससे पूर्वोत्तर की जनजातियों को कथित मुख्य धारा में शामिल किया जा सकता है। यही उनकी सभी समस्याओं की समाप्ति का एकमात्र रास्ता है।
बहरहाल, जबसे मणिपुर में हिंसा शुरू हुई है, वहां के जमीनी हालात को समझने की कोशिश कर रहा हूं। इन घटनाओं के बारे में मणिपुर में तीन परिचितों से अधिक बात होती रही है। तीनों महिलाएं हैं, जिनमें से दो कुकी और एक मैतेई हैं। दोनों कुकी महिलाओं को अपने परिवार के साथ मणिपुर छोड़कर भागना पड़ा है।
इनमें एक का घर राजधानी इंफाल के बीचोबीच था। मणिपुर पुलिसबल में कार्यरत रहे उनके पति का निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। वे स्वयं चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ी पेशेवर हैं तथा अपने दो किशोर बच्चों- एक बेटा और एक बेटी को पालते हुए स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीती रही हैं।
आखिर उस इंफाल शहर में एक अकेली मां को क्या भय हो सकता है, जिसके बीचोबीच स्त्री सशक्तिकरण का अनूठा प्रतीक इमा कैथल शान से देर शाम तक इठलाता रहता है। ‘इमा कैथल’ मणिपुरी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- मदर्स मार्केट। माता बाजार कहें या अम्मा का बाजार। यह एक ऐसा बाजार है, जिसे सिर्फ़ महिलाएं चलाती हैं। इसे लगभग 500 साल पहले 16वीं शताब्दी में महिलाओं द्वारा कुछ छोटी दुकानों के साथ शुरू किया गया था। आज यह एशिया का सबसे बड़ा और सबसे प्रभावशाली महिला बाजार है।
इस बाजार की खास बात यह है कि यहां दुकानदार केवल और केवल महिलाएं हो सकती हैं। उनमें भी वही, जो शादीशुदा हों। इस विशाल बाजार कॉम्पलेक्स में लगभग 4,000 महिलाएं दुकानदारी करती हैं। इन दुकानों में मछलियों, सब्जियों, मसालों, फलों से लेकर स्थानीय चाट तक न जाने कितनी तरह की चीजें मिलती हैं। पूर्वोत्तर भारत में महिलाए मछली से लेकर सूअर और अन्य बड़े जानवरों तक का मांस बेचते हुए दिखती हैं। मांस की दुकानों को चलाते हुए शायद ही कोई पुरुष दिखता हो। वे ही इन्हें बिक्री के दौरान काटती भी हैं, जो उत्तर भारतीयों को शुरू में अजूबा लग सकता है।
हम 2019 में पहली बार इंफाल में मिले ही थे। उस समय उन्होंने अपनी कामचलाऊ हिंदी में ‘इमा कैथल’ का इतिहास मुझे बताया था। मणिपुर में पुराने समय में लुलुप-काबा यानी बंधुआ मजदूरी की प्रथा थी। इसके तहत पुरुषों को खेती करने और युद्ध लड़ने के लिए दूर भेज दिया जाता था। ऐसे में महिलाएं ही घर चलाती थीं, खेतों में काम करती थीं और उगाये गए अनाजों को बेचती थीं। इस कारण उन्होंने एक ऐसा बाजार निर्मित किया, जहां केवल महिलाएं सामान बेचें। ब्रिटिश हुकूमत ने जब मणिपुर में जबरन आर्थिक सुधार लागू करने की कोशिश की, तो इमा कैथल की इन साहसी महिलाओं ने उसका खुलकर विरोध किया। इन महिलाओं ने एक आंदोलन शुरू किया, जिसे नुपी लेन, यानी ‘औरतों की जंग’ कहा गया। नुपी लेन के तहत महिलाओं ने अंग्रेजों की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ लगातार विरोध-प्रदर्शन किए। माताओं का यह आंदोलन दूसरे विश्वयुद्ध तक चलता रहा।
मेरी मित्र ने उस समय कहा था कि इंफाल आने वाले पर्यटकों के लिए शायद इमा कैथल सिर्फ एक कौतूहल की चीज हो, लेकिन हम मणिपुरियों के लिए यह मातृशक्ति का पर्याय है। उन्होंने बताया था कि आज भी यह बाजार सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर चर्चा के लिए जाना जाता है। स्थानीय लोग मणिपुर का राजनीतिक-सामाजिक मिजाज समझने और उन पर चर्चा के लिए भी यहां आते हैं।
आज सुबह मैंने फोन पर उन्हें हमारी पहली मुलाक़ात में हुई बातें याद दिलाई और पूछा कि क्या ‘इमा कैथल’ में कुकी महिलाओं की भी दुकानें होती हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, कोई भी गैर-मैतेई महिला वहां दुकान नहीं लगा सकती। उन्होंने अफसोस के साथ कहा कि ‘’मैं उस पहली मुलाक़ात में आपके मन में मणिपुर के प्रति नकारात्मक छवि नहीं चाहती थी, इसलिए उस समय इन चीजों पर बात करना मुझे ठीक नहीं लगा था।‘’
उन्होंने मुझे याद दिलाया कि उस पहली मुलाक़ात में मैंने उनसे वर्ष 2004 वाली घटना के बारे में भी जानना चाहा था। दुनिया भर में सनसनी फैला देनी वाली उस घटना में 12 मणिपुरी महिलाओं ने असम राइफल्स के खिलाफ निर्वस्त्र प्रदर्शन किया था। वे इम्माएं (माताएं) इंफाल के ऐतिहासिक कांगला किला, जो उस समय असम राइफल्स का मुख्यालय था, के सामने निर्वस्त्र हो गई थीं। उन्होंने अपने हाथों एक बड़ा बैनर ले रखा था, जिस पर पर लाल रंग से लिखा था- ‘इंडियन आर्मी रेप अस’। भारतीय सेना द्वारा मणिपुरी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के प्रतिकार के उनके इस तरीके से दुनिया सकते में आ गई थी। इस खबर के दुनिया भर में प्रसारित होने पर न सिर्फ भारतीय सेना शर्मसार हुई, बल्कि देश में एक जबरदस्त राजनीतिक-सामाजिक हलचल हुई जिसके परिणामस्वरूप मणिपुर में सेना के अत्याचारों पर बहुत हद तक अंकुश लगा।
आज सुबह की बातचीत में मेरी मित्र ने बताया कि वे सभी महिलाएं मैतेई थीं और ‘इमा कैथल’ से ही जुड़ी थीं। उनका संगठन ‘मैरा पाइबी’ नाम से है। इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘महिला मशाल वाहक’।
मैतेई इम्माओं का यह संगठन कुकी महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ, उसे जायज ठहरा रहा है। मेरी मित्र ने एक संदेश साझा किया, जिसमें कुछ वीडियो लिंक थे। उनमें 2004 के प्रदर्शन में शामिल हुई महिलाएं कह रही थीं- पहले कुकियों ने मैतेई महिलाओं के साथ चुराचांदपुर में बलात्कार किया था, उसके बाद ही मैतेइयों ने उनके साथ यह सब (निर्वस्त्र परेड करवाना) किया, हालांकि यह साबित चुका है कि चुराचांदपुर में बलात्कार की घटना अफवाह थी जिसे संभवत: सुनियोजित तरीके से प्रसारित किया गया था।
इम्माएं उस वीडियो में कहती हैं कि जिन कुकी महिलाओं को निर्वस्त्र किया गया, उनके साथ बलात्कार की खबर झूठी है। वे कह रही हैं कि किसी के पास उन कुकियों के साथ हुए बलात्कार का वीडियो हो, तो वह दिखाकर साबित करे। इस वीडियो में वे यहां तक कह रही थीं कि वे उन मीडिया वालों पर मुकदमा करेंगी जो कुकी महिलाओं के साथ बलात्कार की खबरें चला रहे हैं।
उन्हें यह सब कहते देखना सचमुच बहुत अजीब है। 2004 में उनके द्वारा किए गए अतुल्य साहस के बारे में अखबारों में पढ़ा था और उनके लिए मेरे मन में नायिकाओं जैसा सम्मान रहा है। यह मैं क्या देख रहा हूं? समुदाय मनुष्य के विकास में जितना मददगार होता है, उससे अधिक उसके पतन में उसकी भूमिका होती है? परतों के भीतर कितनी परतें होती हैं? बाहर हम उन्हें कहां देख पाते हैं?
मणिपुर की इरोम शर्मिला के लिए भी मेरे मन में ऐसा ही सम्मान रहा है। शर्मिला द्वारा 2000 से 2016 तक की गई भूख हड़ताल न सिर्फ एक विश्व कीर्तिमान है बल्कि मैं उसे व्यक्तिगत प्रतिरोध की सबसे पवित्र और सबसे ऊंची मिसाल कहता रहा हूं। सोलह साल लंबी चली यह भूख हड़ताल सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) के विरोध में की गई थी, जिसका उद्देश्य था तानाशाही और सेना द्वारा की जाने वाली हिंसा का विरोध करना। अपने आंदोलन के तहत उन्होंने खाना, पीना, बालों में कंघी न करने तथा दर्पण न देखने की कसम खाई थी। उन्हें नाक में नली लगाकर जबरन पोषक तत्व दिए जाते थे।
मेरी मित्र ने बताया कि उनकी हड़ताल का जमीनी आधार भी मैरा पाइबी की यही महिलाएं थीं, जो आज कुकी लड़कियों के बलात्कार का वीडियो मांग रही हैं। यह मैरा पाइबी संगठन ही था जो शर्मिला के प्रतिरोध को पर्दे के पीछे से हर प्रकार से ताकत प्रदान करने में सक्रिय था।
मैंने पूछा, इरोम चानू शर्मिला किस ट्राइब की हैं? जाहिर है, ‘मैतेइ’, उन्होंने कहा’।
तीन-चार दिन पहले ही किसी वेबसाइट पर इरोम का बयान पढ़ रहा था। गनीमत है कि इस अमानवीय मुद्दे पर इरोम मैरा पाइबी के साथ नहीं हैं। कम से कम उनके बयानों से तो यही लगता है कि वे मणिपुर में जारी हिंसा के लिए मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और भाजपा की नीतियों को जिम्मेवार मानती हैं और चाहती हैं कि दोनों ट्राइब इनके बहकावे में न आएं। याद पड़ता है कर्नाटक में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या पर भी उन्होंने भाजपा की नीतियों की आलोचना की थी।
शर्मिला ने भूख हड़ताल खत्म होने के बाद 2017 में अपने ब्रिटिश पार्टनर डेसमंड एंथनी से तमिलनाडु के कोडाइकनाल में शादी की थी। उनकी दो जुड़वा बेटियां- निक्स शाखी और ऑटम तारा- हैं और शायद वे लोग अब बेंगलुरु में रहते हैं।
उन्होंने रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस नाम से एक राजनीतिक पार्टी भी शुरू की थी और खुद मणिपुर विधानसभा चुनाव में लड़ी भी थीं। उस चुनाव में उन्हें सिर्फ 90 वोट मिले थे, जो पांच उम्मीदवारों में सबसे कम थे। उसके बाद उन्होंने एक बयान में कहा था कि अब चुनावी राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है क्योंकि उन्होंने इस प्रक्रिया में शामिल गंदगी को नजदीक से देख लिया है।
मैं अपनी मित्र से पूछता हूं, क्या वे चुनाव इसलिए हारीं क्योंकि वे मैतेइ होते हुए भी कबीलाई मानसिकता से ऊपर और स्वतंत्रचेता हैं? अगर वे कुकी होतीं और वैसी होतीं जैसी वे हैं, तब भी वे चुनाव हारती ही? है न?
मेरी मित्र कहती हैं कि उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है। दोनों बच्चों को अच्छी परवरिश दे सकूं, अच्छी शिक्षा दिला दूं और अपनी ज़िन्दगी में पीछे छूट गई खुशियों में कुछ को कुछ क्षणों के लिए ही जी लूं, इतना ही मेरे लिए काफी है- कल भी उन्होंने यह कहा था।
3 मई को उन्हें खबर मिली थी कि उनकी कॉलोनी पर हमला होने वाला है। इससे पहले कि लोग कुछ सोच पाते, मैतेइयों का एक समूह उनकी कॉलोनी में पहुंच चुका था। उनमें सिर्फ युवक नहीं थे, बल्कि अधेड़ और किशोर भी शामिल थे। उनके पास अत्याधुनिक हथियार थे, वे दरवाजे पीट रहे थे तथा जो भी कुकी दिख रहा था, उस पर हमला कर रहे थे। वे वहां से किसी तरह भागीं। उनके परिवार के साथ दर्जनों अन्य परिवार जान बचाने के लिए किसी तरह पूर्वी इंफाल के नगा बहुल इलाके में पहुंचे और स्थानीय लोगों की मौन-सहमति से लोडस्टार पब्लिक स्कूल में छुप गए। नगाओं पर उन्हें भरोसा था। उस स्कूल का परिसर बहुत विशाल था, जिसमें उस समय अनेक वाहनों को सुरक्षा की दृष्टि से रखा गया था।
उन्होंने चार लोगों की हत्या होते अपने आंखों से देखी। वे सभी कुकी थे। वे वहां कुछ दिन रहीं। हर दिन वहां भी मैतेइयों के हमले की आशंका फिजा में तैरती रहती। उतने सारे लोग दम साधे वहां रहते, ताकि बाहर आने-जाने वालों को उनकी मौजूदगी का आभास न हो। कुछ दिन बाद सुरक्षाबलों के ट्रकों में उन्हें वहां से निकाला गया और राहत शिविर में पहुंचाया गया। वे अब अपनी किशोर उम्र की बेटी और जवान हो रहे बेटे साथ दिल्ली में रोजी-रोटी के संघर्ष में लगी हैं। इंफाल का उनका घर मैतेइयों ने जला दिया है।
आज सुबह जब वे फोन पर उन घटनाओं के बारे में बता रहीं थीं, तो मैं उनके स्वर में असहजता से भरा कंपन महसूस कर रहा था।
मेरी दूसरी कुकी मित्र चुराचांदपुर की हैं। उन्होंने गुवाहाटी में बसे अपने संबंधियों के घर शरण ली है।
तीसरी मित्र, जो मैतेई हैं, इंफाल की रहने वाली हैं, उन्हें घर नहीं छोड़ना पड़ा है, लेकिन वे भी वहां भय के साये में जी रही हैं।
दोनों कुकी महिलाएं अक्सर मेरे व्हाट्सएप पर वहां हो रही क्रूर घटनाओं के वीडियो, फोटोग्राफ आदि भेजती रहती हैं तथा कुकी लोगों के बीच गाए जा रहे संघर्ष के गीतों, उनकी मार्मिक अपीलें आदि भेजती रहती हैं। मणिपुर में इंटरनेट पर प्रतिबंध है, ये वीडियो और अपीलें उन तक पता नहीं कैसे पहुंचती हैं। शायद मणिपुर से लगातार पलायन कर रहे कुकी लोग अपने साथ इन्हें लेकर आते हों।
उनके द्वारा दी सूचनाओं में मुख्य तौर पर मैतेइयों की क्रूरता और अत्याचारों का जिक्र होता है। वे जब किसी संगठन द्वारा वितरित परचे या खबरों के लिंक आदि भेजती हैं, तो उसमें कुछ राजनीतिक बातें भी होती हैं। मसलन, इनमें कहा गया होता है कि मैतेइयों के हिंसा करने वाले संगठनों को मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और भाजपा से राज्यसभा सांसद महाराजा सनाजाओबा लीशेम्बा का वरदहस्त प्राप्त है, हालांकि यह सिर्फ दो राजनेताओं का मामला नहीं है, उन्हें फोकस इस पर करना चाहिए कि किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उत्तर भारत की सांप्रदायिक राजनीति को इस पहाड़ी राज्य में पहुंचाया है।
मैतेई समुदाय से आने वाली महिला ऐसी कोई तस्वीर, वीडियो आदि नहीं भेजतीं और इस बारे में पूछने पर प्राय: सवालों से बचना चाहती हैं। जब मैंने उनसे कुकी लड़कियों पर मैतेई लोगों के अत्याचार के बारे में पूछा, तो उन्होंने छूटते ही कहा कि वे एक स्त्री होने के नाते शर्मिंदा हैं।
मैंने उन्हें बताया कि मणिपुर में हिंसा पर एक रिपोर्ट लिख रहा हूं। मेरे पास कुकियों पर मैतेइयों के अत्याचार की अनेक कई कथाएं और वीडियो हैं। अगर उनके पास कुकियों द्वारा मैतेइयों पर किए गए अत्याचार के प्रमाण स्वरूप कुछ वीडियो-तस्वीरें आदि हों, तो मुझे भेजें ताकि मैं अपने लेख में उनका भी जिक्र कर सकूं। पहले तो उन्होंने आशंका जतायी कि कहीं उन वीडियो के शेयर करने पर उनका नाम तो बाहर नहीं आएगा। मैंने जब उन्हें इस बारे में आश्वस्त किया, तो उन्होंने कहा कि वे थोड़ी देर में इस बारे में बताएंगी। उन्होंने इस बीच शायद किसी से बात की और मुझे व्हाट्सएप किया कि उन वीडियोज को “किसी बाहरी के साथ शेयर करने की इजाजत नहीं है।” इस बारे में पूछने पर यह रोक किसने लगायी है, उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।
यह रोक उनके शुभचिंतकों की ओर से भी हो सकती है। मैतेइयों द्वारा फैलाई गईं अधिकांश खबरें, जिनमें दावा किया गया था कि कुकियों ने मैतेइयों के गांवों को आग लगाई या मैतेई लड़कियां का बलात्कार किया, झूठ पायी गई हैं। झूठी खबरें, वीडियो फैलाने के आरोप में कई मैतेई लोगों और संगठनों पर मुकदमे भी दर्ज हुए हैं।
मणिपुर की हालत को समझने के लिए मैंने मणिपुर के कुछ राजनीतिकर्मियों और समाजसेवकों से भी बात की है। उनसे जो सूचनाएं और विश्लेषण मुझे प्राप्त हुए, वे सभी उतने ही हैं जितने अखबारों में प्रकाशित हो चुके हैं। पत्रकारिता के अपने अनुभव जानता हूं कि इन लोगों की बातचीत में उन्हीं बातों दोहराव होता है, जिसे सब पहले से जानते हैं। ऐसे मामलों में राजनेताओं की दिलचस्पी प्राय: अपना नाम प्रकाशित करवाने में, अपने आधार-क्षेत्र को इस माध्यम से अपनी पक्षधरता बताने में होती है।
उपरोक्त तीनों महिलाएं मणिपुर की मेरी यात्राओं के दौरान मित्र बनीं और नजदीक आईं। राजनीति और समाजकर्म से उनका दूर–दूर तक नाता नहीं है। मुझे लगता है कि विभिन्न पैमानों में साधारण लगने वाली इन असाधरण महिलाओं की मित्रता ने मुझे जमीनी स्तर पर दोनों समुदायों की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं और कार्रवाइयों में किस प्रकार का अंतर है, इसे समझने में बहुत मदद की है।
प्रमोद रंजन फॉरवर्ड प्रेस के पूर्व संपादक और शिक्षक हैं। इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रकाशित हो रही उनकी यह डायरी आगे भी जारी रहेगी।