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किसानों आंदोलन में चली गई कई किसानों की जान, अब किसानों को क्या ला रहा नया साल ?
बीता साल 2020 'दो अदद दो और दो शून्य ' के साथ केवल अंकगणितीय दृष्टि से ही अनूठा व अद्वितीय नहीं था। वास्तव में यह साल पूरी मानव जाति के लिए अभूतपूर्व चुनौतियों से भरा एतिहासिक रूप से बेहद कठिन वर्ष था । हमारे देश की कृषि औऱ किसानों के लिए तो यह यह वर्ष बेहद ही दुश्चिंताओं और दुश्वारियों से भरा हुआ रहा . कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से जहां देश-दुनिया की आर्थिक गतिविधियां ठप रही तो कृषि कार्य भी हर स्तर पर बाधित हुआ. इसी बीच केंद्र सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर 5 जून को एक साथ चौथाई दर्जन अध्यादेश पेश किया, औऱ फिर बाद में संसद के मानसून सत्र में इसे येन-केन प्रकरेण बतौर कानून पारित भी कर दिया. इन तीनों कानूनों को लेकर देशभर के किसान पहले तो आशंकित हुए, परंतु सरकार ने उनकी शंकाओं के निवारण के लिए कोई सार्थक पहल नहीं की, तो धीरे-धीरे आक्रोश बढ़ते गया और साल का अंतिम तिमाही किसान आक्रोश एवं आंदोलन के नाम रहा। किसान संगठनों तथा सरकार की सात दौर की मैराथन बैठकों के बावजूद, अभी भी देश के किसान आक्रोशित व आंदोलित हैं. बीते 26 नवंबर से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों का धरना-प्रदर्शन जारी है. किसानों को यह तीनों कानून किसान व कृषि हितैषी के बजाय उद्योगपतियों के ज्यादा ही हिमायती महसूस होते हैं.
जबकि सरकार दावा करते नहीं थकती कि यह तीनों कानून कृषि व किसानों की दशा-दिशा को बदलने वाले हैं. लेकिन अगर गौर से पूरे प्रकरण को देखें तो देश में किसानों की स्थिति में सुधार की मांग दशकों से की जा रही है. सरकारें भी तरह-तरह के वादों-घोषणाओं की डुगडुगी बजाती रहती है, लेकिन अब तक किसानों की माली हालत में सुधार नहीं आया. अब सरकार द्वारा इन तीनों कानूनों के बदौलत कृषि में सुधार की बात कर रही है. वैसे वर्षों से नई कृषि नीति की मांग व वकालत भी की जाती रही है. जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो उम्मीद जगी कि शायद अब किसानों की मुराद पूरी होगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . बल्कि सरकार एक नया भूमि अधिग्रहण कानून लेकर आई जिसके द्वारा देश के विकास के नाम पर किसानों की जमीनें उद्योगों को आसानी से हस्तांतरित की जा सके।इस बिल के आते ही किसानों के कान खड़े हो गए । दरअसल इस देश का किसान अपनी जमीन से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है और अपनी धरती,अपनी खेती की जमीन को अपनी मां मानता है।
किसान संगठनों के व्यापक विरोध तथा आंदोलन को देखते हुए अंततः सरकार को उस विवादास्पद भूमि अधिग्रहण बिल को वापस लेना पड़ा। बहरहाल सरकार ने कार्यकाल की समाप्ति के कुछ पहले घोषणा कर दी कि 2022 तक किसानों की आय दो गुनी की जाएगी. लेकिन कैसे? इसका कोई जवाब ना तब था और ना अब है. लेकिन इस कैसे के सवाल के जवाब में केंद्र सरकार कृषि सुधार को लेकर तीन कानून- कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020, आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन कानून और मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा कानून लायी. इसी बीच विद्युत सुधारों के नाम पर केंद्र एक विद्युत सुधार बिल भी लेकर आई, इसके प्रावधान भी किसानों के लिए काफी परेशानी पैदा करने वाले प्रतीत हुए। कहते हैं दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है, सो इन कानूनों के आते ही इन पर सवाल खड़े किये जाने लगे औऱ अब तो लगभग बीते एक महीने से किसान इन कानूनों के विरोध में सड़कों पर हैं.
हालांकि इसे लेकर सरकार के अपने तर्क है, जब कि किसान इसे किसान विरोधी ही मानते हैं. सबसे आश्चर्य जनक बात है कि केंद्र सरकार कहती है कि कृषि सुधार के लिए यह कानून लाये गये, लेकिन इन्हें लाने के पूर्व किसी किसान संगठनों से कोई राय –मशविरा सरकार ने नहीं किया, बल्कि राय-मशविरा किया भी तो व्यावसायिक संगठनों से. ऐसे में सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कानून कारपोरेट हितैषी होगा या फिर किसानों के हित में. इन कानूनों को लेकर कुछ मूलभूत प्रश्न है- जैसे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडियो के ख़त्म होने का भय. वहीं, खेती का उद्योगपतियों के हाथों में जाने और कृषि में उनकी दख़ल को लेकर भी डर है. कारपोरेट के परम लक्ष्य लाभ,और हर हालत में अधिकाधिक लाभ सूत्र वाक्य से प्रेरित अनुबंध खेती, देश के किसानों की भूमि की उत्पादन क्षमता के अधिकाधिक दोहन हेतु जहरीली रासायनिक खाद व दवाइयों, जेनेटिकली मोडिफाईड घातक बीजों के प्रयोग से बर्बाद होना तय है, इसका दुखद पहलू यह भी है कि इस नुकसान की भरपाई किसी भांति संभव भी नहीं दिखती। इन जहरीले खाद्य उत्पादों का हमारे शरीर व स्वास्थ्य पर क्या विपरीत प्रभाव पड़ता है यह भी कोविड-काल में हमने भली-भांति देख लिया है।
हालांकि, विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ओपन मार्केट में वस्तु का मूल्य बाजार आधारित नियंत्रित होगा और जो कैश क्रॉप्स फसल है उससे मार्केट में ज्यादा फायदा होगा. यह किसान के लिए मण्डी के अतिरिक्त एक विकल्प है कि वो अपनी फ़सल कहीं भी बेच सके. पूर्व की न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था जारी रहेगी. इसके जरिये सरकार एक देश, एक बाजार की बात कर रही है. हालांकि सरकार किसानों से धान-गेहूं की खरीद पहले की ही तरह करती रहेगी और किसानों को एमएसपी का लाभ पहले की तरह देती रहेगी. किसान इसी बात को लेकर आशंकित हैं कि यह एमएसपी व्यवस्था को खत्म करने की साजिश है. अगर सरकार की नियत साफ है तो उसे इसे कानून में शामिल करना चाहिए.
लेकिन सरकार के इन लोकलुभावन तर्कों को मान भी ले तो कई ऐसे और प्रश्न हैं, जो हम किसानों को आशंकित और भयभीत करते हैं. इस कानून से मंडी व्यवस्था ही लगभग खत्म हो जाएगी. इससे भी अंततः किसानों को ही नुकसान होगा और कॉरपोरेट और बिचौलियों को फायदा होगा. न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप से बाध्यकारी ना बनाए जाने की दशा में, वे मंडी से बाहर ही किसानों से औने पौने दामों पर उनकी फसल खरीद लेंगे। किसानों के लिए बाजार खोलना एक अच्छी बात है, किंतु, मुक्त बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बिना बाध्यकारी बनाए , इनकी की कोरी घोषणा महज एक नेक सलाह बनकर रह जाएगी, जिन पर व्यापारियों द्वारा अमल की उम्मीद करना निरर्थक है । इसके अलावा मंडी में कार्य करने वाले लाखों व्यक्तियों के जीवन- निर्वाह का क्या होगा, इसका भी इसमें कहीं कोई जिक्र नहीं है. गौरतलब है कि 2006 से ही बिहार में इसी प्रकार की व्यवस्था है, तब ऐसी उम्मीद जताई जा रही थी , कि बिहार में क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे लेकिन 14 सालों के बाद भी बिहार के किसान गेहूं या धान बेचने के लिए दर-दर भटकते फिर रहे हैं, और अपना मक्का ₹10 किलो और धान ₹11 किलो बेचने के लिए मजबूर हैं. एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट 1955 के हट जाने के बाद अब व्यापारी इन फसलों की मनमानी जमाखोरी कर सकेंगे और जब चाहे महंगाई को नियंत्रित कर सकेंगे. एक तरीके से यह चुनिंदा पूंजीपतियों के हाथ में अर्थव्यवस्था का नियंत्रित होना है.
भारत में 86% से अधिक छोटे और मझोले किसान है, अर्थात 2 से चार एकड़ की जोत भूमि वाले हैं. इससे अंततः उनका ही नुक़सान होना तय है. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से बड़े-बड़े पूंजीपति किसानों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कराएंगे । खेती में उत्पादन तथा उत्पाद की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले मनुष्य के नियंत्रण से परे, कई प्राकृतिक कारक होते हैं, जिससे खेती में भारी नुकसान भी होता रहता है। अब यह तो तय है कि यह कंपनियां कांट्रेक्ट खेती में अपना पैसा लुटाने नहीं आ रही हैं। इसलिए यह भी तय है कि इस खेती में किन्हीं भी कारणों से हानि होने की दशा में नुकसान का ठीकरा किसानों के सिर ही फूटेगा। और इन दशाओं में किसानों को अपनी जमीनें औने-पौने दामों पर बेचने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचेगा, और यह जमीन अंततः कारपोरेट ही खरीदेंगे इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए। और अगर कोई विवाद की स्थिति आई भी तो, किसान इतने सक्षम नहीं है कि, कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा कर न्याय प्राप्त कर सके. जबकि कारपोरेट के पास बड़े-बड़े वकीलों की पूरी फौज होती है. अभी सरकार ने जो विधेयक पास की है वह इसी सरकार की शांता कुमार समिति 2015 की सिफारिशों के आधार पर है.
अगर हम कांट्रैक्ट फार्मिंग की बात करें तो यह आशंका भी जतायी जा रही है कि आने वाले समय में ऐसे कुकुरमुत्ते की तरह हजारों की संख्या में कंपनियां बाजार में आएंगी जो कांट्रैक्ट फार्मिंग के नाम पर किसानों को खाद-बीज, दवाइयां बेच देंगी औऱ फसल खरीदने के समय उनका कोई पता-ठिकाना ही नहीं होगा औऱ किसान ठगे जाएंगे. आलू बासमती चावल एलोवेरा सफेद मूसली तथा जड़ी बूटियों की अनुबंध खेती के नाम पर पहले भी लाखों की शान ठगे जा चुके हैं। इसलिए सरकार को किसानों की संख्याओं का निराकरण करने के साथ ही कांट्रैंक्ट फार्मिंग को रेगुलेट करनी वाली एक नियामक भी गठन करना होगा ताकि किसानों के हितों को सुरक्षित किया जा सके.
कुल मिला कर किसानों के लिए ना तो वर्ष 2020 को बेहतर कहा जा सकता है औऱ ना ही वर्ष 2021 से कोई विशेष उम्मीद बंधती है. साथ ही वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी होने की बात तो अब बेमानी लगती है, आंकड़े तो यह बताते हैं कि किसानों की आय तो 2022 तक दूर होने से रही, किंतु किसानों का क़र्जा 2022 तक अवश्य ही दुगना हो जावेगा. तकिसान आज एक प्रकार से कहा जाय तो भाग्य भरोसे हैं. सरकार से जो उम्मीद थी, अब किसान नाउम्मीद हो रहे हैं औऱ चहुं ओर से आशंकाओं में घिरे हैं. कुल मिलाकर आजादी के सात दशक बाद , 2021 के आगाज में भी देश का किसान बहुतेरी आशंकाओं की काली घटाओं में सुनहरी रोशनी की एक अदद किरण की तलाश में टकटकी लगाए हुए है। उम्मीद की जाती है, है कि किसानों के हालात और दिन जल्द ही बहुरेंगे। उम्मीद बरकरार रखने में कोई बुराई भी नहीं, क्योंकि आखिरकार उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है।
इस आन्दोलन में अब तक धीरे धीरे चालीस से ज्यादा किसानों की जान चली गई है, आखिर इन जानों की जिम्मेदारी कौन लेगा. अब इन परिवारों की देखरेख कौन करेगा.