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संजय कुमार सिंह
- पीएम केयर्स यह खर्च उठाए तो हिंदुओं का कर्ज चुकाना होगा
- मन माने तो मुसलमान के लिए भी खर्चा उठा कर रहम करें
- कैसा हिंदू राष्ट्र, जिसमें आत्मा की शांति के लिए संस्कार नहीं
मेरे रोंगटे खड़े हो गए जब मैंने निगम बोध घाट, पंजाबी बाग और आईटीओ कब्रिस्तान का आंखों देखा हाल आशीष-श्रुति से सुना व फोटो-वीडियो देखे! दोनों पर गुस्साया भी कि ऐसी जगह क्यों जा रहे हो? लेकिन प्रोफेशन यदि देखने, सुनने-लिखने का है तो काम करना ही होगा। जब पूरा देश अनलॉक है तो लाशों की खबर भी जाननी होगी। इसी खबरनवीसी से तीन दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की दिल्ली की हालत पर नींद उड़ी थी। पहले भी मजूदरों की फोटो देखकर नींद उड़ी थी। सोचें, 138 करोड़ लोगों के देश की नंबर एक जरूरत क्या है? जवाब है, मीडिया।
भारत में मीडिया भले गुलामी का महासागर हो लेकिन इसी सागर की कुछ मछलियों ने जनता को हकीकत से रूबरू कराया है। मेरा मानना है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह कितने ही आत्मकेंद्रित हों, तालाबंदी के बाद पैदल मजूदरों के रेले और अब मरघट की तस्वीरों से इनका दिमाग भी कुछ तो विचलित हुआ होगा। मुंबई, चेन्नई, दिल्ली आदि में लोगों के बेमौत मरने की खबरों, फोटो, वीडियों देख कर इन्होंने भी सोचा तो होगा कि मीडियाकर्मी यदि जान पर खेल कर वायरस की खबरें नहीं दे रहे होते तो क्या इन्हें सच्चाई मालूम होती! मोदी सरकार, सुप्रीम कोर्ट, दुनिया, नागरिकों सभी को तो मीडियाकर्मियों व मजबूर जनता की सोशल मीडिया फोटो-वीडियोग्राफी देख कर सोचना पड़ रहा है कि लोगों का ऐसे मरना मानवता के लिए कितना कलंकपूर्ण है।
मैंने कल्पना नहीं की थी कि मुझे लोगों को ऐसे बेमौत मरते देखना होगा। हम हिंदुओं की लाशों को बिना क्रिया-कर्म के कभी ऐसे फूंका जाएगा! लाशों को खड़े में ऐसे फेंका जाएगा! लाशों को ऐसे घसीटा जाएगा! दिल्ली के हालात जान लगता है मानों अस्पताल में भरती होने से लेकर लाश को फूंकने का प्रोटोकॉल वह है, जिसमें ऑब्जेक्टिव है, मरीज को डिस्पोज करना। हमने कोविड-19 की महामारी को महामारी की तरह नहीं लिया। हम उसे इस एप्रोच में डिस्पोज कर दे रहे हैं कि वायरस के साथ जीना है और नहीं जी पाते हों तो लाश फूंक देंगे! सोचें, जहान की चिंता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आदि सभी मुख्यमंत्रियों और सरकारों ने दस तरह के ये जतन किए कि किस तरीके से, किन-किन सावधानियों, किन-किन उपायों में आर्थिक को चलाएंगे। सरकार क्या मदद करेगी, किस-किस सेक्टर, धंधे, रोजगार को क्या आर्थिक मदद या पैसा मिलेगा। लेकिन ऐसा कोई पैसा लाश को फूंकने के लिए आवंटित नहीं हुआ।
तभी न मुफ्त टेस्ट है, न मुफ्त इलाज है और न लाश को मुफ्त फूंकना है। दुनिया में शायद ही दूसरा कोई निष्ठुर देश और व्यवस्था होगी, जिसमें महामारी में भी यह बिजनेस हो रहा है कि अस्पताल से लाश को ले जा कर उसे जलाने की पीपीई में इतना खर्चा होगा और वह उस परिजन से वसूला जाएगा, जिसे पता नहीं होता कि बोरे में लाश उसके परिजन की है या नहीं!
नरेंद्र मोदी और निर्मला सीतारमण ने खरबों रुपए इकोनॉमी, अनलॉक की चिंता में घोषित किए लेकिन 138 करोड़ लोगों की जान यदि मौत में बदली तो उसके लिए एक पैसा नहीं। कैसा राक्षसी सिस्टम है भारत का, अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी की सत्ताओं का जो अस्पताल से, उसके मुर्दाघर से लाश को श्मशान घाट या कब्रिस्तान पहुंचाने, वहां लाश फूंकने या दफन करने के हर कदम पर बिल फाड़ा जा रहा है कि एंबुलेंस के भाड़े, ड्राइवर, हेल्पर की पीपीई किट के लिए भी लाश को पैसा देना होगा तो जेसीबी से कब्र खुदाई में भी तीन से पांच हजार रुपए का बिल, श्मशान घाट में लाश को ठेले पर ढोकर ले जाने, उसको चिता पर रखने का पीपीई खर्च भी अलग से!
इससे भी जघन्य, घृणित, कंपकंपा देने वाला व्यवहार है कि पैसा वसूलने के बाद भी लाश को कायदे से चित्ता पर लेटाना नहीं, पटक देना, एक ने ऊपर से पकड़ा, दूसरे ने नीचे और फेंक दी लाश कब्र में। लाश को सीएनजी श्मशान की पटरी पर पटका और दबा दिया बटन। पंडित से आत्मा की शांति के लिए दो शब्द या कपाल क्रिया की बात तो दूर, राख भी भगवान भरोसे।
दिल्ली पंजाबी बाग के श्मशान की वह फोटो मुझे हिला गई, जिसकी तंग जगह में एक साथ पच्चीस लाशें जलती हुईं और जलने की दुर्गंध, घुटन में दूर खड़े लाशों के इने-गिने परिवारजन! पता नहीं किस चिता पर किसके परिजन की लाश है! क्या यह हिंदू दिल-दिमाग में पैठे अंतिम संस्कारों के क्रिया-कर्मों का धू-धू कर जलना नहीं? कैसा हिंदू राष्ट्र, जिसमें लाश से दूर ही सही आत्मा की शांति के लिए तनिक संस्कार नहीं। पंजाबी बाग से अधिक दहलाने वाले दृश्य निगम बोध घाट के तो वैसा ही नजारा आईटीओ के कब्रिस्तान का। मगर हां, श्मशान में पैसे की पर्ची कटेगी, बाहर फूल बिकते मिलेंगे तो धंधे के साथ गंदगी-भीड़ ऐसी कि श्मशान से जो लौटे वह भी संक्रमण का खतरा ले लौटे।
क्या नरेंद्र मोदी, अमित शाह, भारत के कैबिनेट सचिव, गृह सचिव, या अरविंद केजरीवाल, एमसीडी के अफसरान में किसी में यह बेसिक समझ संभव नहीं कि जब लाशों का ढेर लगना है, लग रहा है तो कोरोना वायरस से हुई मौतों के लिए नए टेंपररी श्मशान या कब्रिस्तान बने? ताकि सामान्य मौत के लोगों का अंतिम संस्कार पुराने श्मशानों में हो और कोरोना वायरस की लाशों का अलग प्रबंधन। यदि भारत सरकार, दिल्ली सरकार के मंत्री, अफसर, निचली या उच्च अदालतों के जज या उनके रिश्तेदार मरें तो क्या वे भी पंजाबी बाग-निगम बोध घाट के मौजूदा अराजक, अंसवेदनशील प्रोटोकॉल में लाश को वैसे ही फूंकवाएंगे, जैसे सैकड़ों लाशें जली हैं, जल रही हैं?
क्या यमुना के किनारे ऐसा टेंपररी श्मशान नही बन सकता, जिसमें ऊंचाई पर परिजन खड़े रह सकें और नदी किनारे के घाट पर लाशों को कुछ-कुछ दूर जलाने, चित्ता लगाने, पंडित से दूर से ही कुछ क्रिया कर्म करवाने का बंदोबस्त बने। राजघाट से लेकर निगम बोध के पूरे यमुना किनारे को क्यों नहीं अस्थायी वायरस श्मशान घाट बना दिया जाए? ऐसा हर महानगर, जिला मुख्यालयों में होना चाहिए, जिसके बंदोबस्तों में यदि मोदी सरकार एक मृत्यु सेवा बना कर उसमें लकड़ियों के गोदाम, फटाफट चिता सजाने की मशीनरी, जेसीबी बंदोबस्त आदि के वह सब काम हो, जिससे लाश, कम से कम अपने कपाल यह तो सुकून पाए कि लाश जलाने में तो भारत का प्रशासन व्यवस्था लिए हुए था।
क्या वायरस से मरे लोगों के दाह संस्कार का खर्च सरकार खुद नहीं उठा सकती है? नरेंद्र मोदी से मन से, बहुत गंभीरता से मेरी विनती है कि ईश्वर के लिए आपने पीएम केयर का जो फंड बनाया है उसमें सौ-दो सौ करोड़ रुपए क्रियाकर्म फंड के लिए आवंटित करें। मुर्दाघर से श्मशान ले जाने की एंबुलेंस (इसकी बजाय मुर्दागाड़ियां थोक में बनवाई जानी चाहिए) उसके कर्मचारियों – दो-तीन परिजनों का पीपीई खर्च, श्मशान दरवाजे पर एबुलेंस से लाश को थैलागाड़ी से चिता तक ले जाने के भाड़े, वहां पीपीई पहन लाश को चित्ता पर रख फूंकने वाले, कपाल क्रिया, राख एकत्र करने या नदी में प्रवाह जैसे खर्च को यदि नरेंद्र मोदी का पीएम केयर उठाएगा तो वह उन हिंदुओं का कर्ज चुकाना होगा, जिन्होंने हिंदू होने के गौरव में ऐसी बेमौत की कल्पना नहीं की थी। यदि मन माने तो मुसलमान के लिए भी कब्र खुदाई की जेसीबी और पीपीई का खर्चा उठा कर बेचारों पर रहम करें।
हां, गरीब मुसलमान का रोना है कि कब्र पहले तीन-पांच फुट गहरी खुदती थी अब आठ फुट खुदती है और वह जेसीबी से फटाफट कराना होता है। जेसीबी का भाड़ा है तो पीपीई ड्रेस पहना व्यक्ति लाश को लेटाता है। गरीब मुसलमान के लिए भी मुर्दाघर से दफन कराने तक का खर्चा दस हजार रुपए बैठ रहा है। वह जेसीबी के खर्च में तीन या पांच हजार रुपए के लिए बहस करता मिला है।
मोटे तौर पर वायरस के ठप्पे वाली लाश के क्रिया-कर्म पर 25 से 30 हजार रुपए का खर्च बैठता है। गरीब-मध्य वर्ग परिवार को रोना है कि घर में जीने के लिए पैसा नहीं है तो लाश का खर्च तो सरकार उठाए। वायरस से आदमी अस्पताल में, अस्पताल में दाखिले की इंतजार में मरे या घर में, उसकी लाश को पहले तो बिना इंसानी गरिमा, इंसानी अंदाज में बिना क्रिया-कर्म के साथ जलना है। ऊपर से खर्चा 17 से 25 हजार रुपए लगभग। जैसे एंबुलेंस खर्च (7-10 हजार रुपए, इसके दो कर्मचारी, दो-तीन परिजनों के बैठने के पीपीई किट में सात-आठ हजार रुपए का खर्चा), ताबूत खर्च और अंत में श्मशान स्थल पर भी पीपीई, लकड़ी आदि का खर्च। हिंदू श्मशान घाट में तीन से आठ हजार रुपए के बीच पर्ची कटती है तो सीएनजी के संस्कार में एक हजार से 16 सौ रुपए का खर्च। इसमें और भी गड़बड़ है, जिसे मैं इसलिए नहीं बताना चाहूंगा क्योंकि सनातनी हिंदू के नाते मेरे लिए बहुत लज्जापद है कि श्मशान में अव्यवस्था और महामारी में भी लोग कमाई से चूक नहीं रहे जबकि कब्रिस्तान में ईमानदारी से मौलाना आत्मा की शांति के लिए पाठ करता मिला।
तभी सरकारों को सैनिक प्रशासन जैसी कोई सख्ती बना लाशों के क्रिया-कर्म का टेकओवर करना चाहिए। वायरस से हुई मौत के लिए नदी किनारे, या खुली जगह में टेंपररी श्मशान, कब्रिस्तान बने। लाश को वहां तक ले जाने, उसमें एंबुलेंस या मुर्दागाड़ी, पीपीई किट और चिता या खुदाई, लकड़ी का सारा खर्च सरकार उठाए। भारत की मूर्ख-ठूंठ व्यवस्था नहीं बूझ पाई कि पुराने श्मशान घाटों में आम मौत और वायरस मौत की लाशों के एक साथ संस्कार से भी वायरस फैल रहा होगा। तभी बहुत मुश्किल है भारत में सरकारों को समझा सकना।
NayaIndia में Hari Shankar Vyas (संपादित / संशोधित) कर संजय कुमार सिंह ने अपनी फेसबुक पर लिखा है.