राष्ट्रीय

जनता कर्फ्यू के बाद का कुछ एसा बिता सोमवार

Shiv Kumar Mishra
23 March 2020 3:18 PM IST
जनता कर्फ्यू के बाद का कुछ एसा बिता सोमवार
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आज सोमवार है। रविवार सा लग रहा है। बहुत कुछ ख़ाली। थोड़ा-थोड़ा भरा-भरा। जनता कर्फ्यू की तरह पूरा ख़ाली नहीं।एक रिक्शावाला आता दिख रहा है। सवारी की तलाश में बहुत दूर से आ रहा है। बहुत दूर अभी जाएगा।एक दूसरा रिक्शावाला सड़क के उस तरफ़ से जा रहा है। 65 पार उम्र लग रही है। कोरोना के कारण उसे घर पर रहना था। वह सवारी ढूंढ रहा है। ख़ाली रिक्शा खींचा नहीं जा रहा है। सर आगे की तरफ़ लटका हुआ है।दोनों रिक्शावाले निराश हैं। उम्मीद बाकी है। इसलिए वे थोड़ी दूर और खींचते हुए सवारी ढूंढ रहे हैं।ऑटो वाली भी आ गया। वह भी हर सोसायटी के गेट को उम्मीद से देख रहा है। कोई तो निकलेगा। कोई तो बैठेगा।

ऐसा करते हुए वह भी रिक्शावाला की तरह दूर से चला आया है। बहुत दूर अभी जाएगा।बुलेट वाला आ गया है। बुलेट की आवाज़ अलग लगती है। दिल की तरह धड़कती है। बाकी मोटरसाइकिल की आवाज़ ऐसी लगती है जैसे कोरोना की खांसी के कारण फेफड़े से घरघराने की आवाज़ आ रही हो. औरत ने सिलेंडर ठीक से पकड़ा हुआ है। पति बाइक चला रहा है। सिलेंडर को भर लेना इस वक्त की सबसे बड़ी दूरदर्शिताओं में से एक है। पत्नी-पति दोनों इस वक्त ख़ुद को सबसे समझदार समझते हुए गैंस एजेंसी की तरफ़ जा रहे हैं।एजेंसी। छुट्टी या कर्फ्यू के दिनों में एजेंसी से गैस ले आना मोहल्ले की युवकों के लिए बड़ी समझदारियों में से एक मानी जाती रही है।एक और बाइक सवार तौलिया में लपेट कर सिलेंडर लिए चला जा रहा है।सिलेंडर का भरा होना ही उम्मीद का बचा होना है। इसका ख़ाली होना किसी अनिष्ट का सूचक है।

हम सबने शहरों में होम बना लिए हैं। जहां हर मिनट एक सामान डिलिवर होता है। हम रिसीवर हो चुके हैं।लॉक डाउन ने डिलिवरी ब्वाय की पीठ भारी कर दी है। स्कूटर और बाइक पर सामानों का बस्ता भारी हो गया है। सब उनकी पीठ पर टंगा है।इन्हीं की पीठ पर आज दुनिया टिकी है। ये आज के कच्छप अवतार हैं।बहुत सी बाइकें गुज़र रही हैं। इनमें से डिलिवरी ब्वॉय की बाइक भी है। ब्वॉय अपना सामान ख़ाली करना चाहता है। लेकिन टारगेट उसे ख़ाली नहीं करने देगा। उसकी नियति यही है। हर ख़ाली होती जगह को भरते रहना है।कोरोना से मृत्यु की आशंका की जगह को सामान की डिलिवरी से भर देना है। सामान ही उम्मीद है। आपने जो आर्डर किया वो आ गया। उसने जो आपको आर्डर किया, आप वैसे हो गए।

ऑर्डर

ऑनलाइन ऑर्डर

सेल्फ इम्पोज़्ड ऑर्डर

लॉक डाउन ऑर्डर

ऑर्डर ऑर्डर

एक ऑर्डर आया. जनता अपनी बालकनी से डिलिवर हो गई।जनता ने एक ऑर्डर किया, उसके दरवाज़ें पर डिलिवर हो गया।पुलिस की गाड़ी का हूटर। आज उन्हें अपनी ज़रूरत कम महसूस हो रही है। शायद इसलिए ख़ाली सड़क पर हूटर बज रहा है।कामवालियां आती दिख रही हैं। मास्क पहनी हैं। पैदल हैं।विक्रम नाम का प्राचीन ऑटो अब भी है। ओला-उबर से विस्थापित नहीं हुआ है। लोगों को लादे हुए हैं।एक ई-रिक्शा को भी सवारी मिल गई है।बाकी पैदल चल रहे हैं। दो लोग अपने कंघे पर बैग लादे। जैसे स्टेशन के बाहर आने पर पता चला कि शहर में कर्फ्यू। तब बहुत से लोग पैदल चल कर घर चले जाते हैं। इसका मतलब नहीं है कि इन दोनों का पुराना अनुभव काम आ रहा है। नया अनुभव कुछ नहीं होता। अनुभव होता है। उसमें एक नया आदमी प्रवेश कर जाता है।

एक सज्जन हैं। मास्क नहीं पहने हैं। मगर गार्ड को समझा रहे हैं कि मास्क पहनना ज़रूरी है। दो गार्ड मास्क में हैं। तीसरा बिना मास्क के। तीन लोग मिलकर उसे इस वक्त का सबसे ज़िम्मेदार नागरिक बना रहे हैं।आज कारों को देखने का कोई फ़न नहीं है। रुकती है। दूध का पैकेट लेकर आगे चली जाती है। वैसे दूधवाला बाइक पर कनस्तर लेकर गांव से आता हुआ दिख रहा है।चिड़ियों की आवाज़ आज भी सुनाई दे रही है।आदमी के बोलने की आवाज़ आज भी आ रही है। सुनाई दे रही है। समझ नहीं आ रहा। काश मेरे कान नाम पकड़ लेते। सुरेश को ही पुकारा होगा शायद।पुराने ज़माने में जब स्मार्ट फोन नहीं था। तब भी लोग ऐसे वक्त में कान के नज़दीक बातें किया करते थें। सरगोशियां। दीवारों के भी कान होते हैं। अब तो जूते की बात कीजिए। फेसबुक पर जूते का विज्ञापन आ जाएगा।

जाने के लिए कोई जगह नहीं। जाने पर अब जेल हो सकती है। सोचिए। जूते ख़रीद कर क्या करेंगे?लगता है कि कहीं किसी ने सामान पटक दिया है। धम्म की सी आवाज़ आई है।आज आवाज़ें घुल-मिल रही हैं। रविवार की तरह अलग-अलग अंतराल में सुनाई नहीं दे रही हैं।आवाज़ों का व्यक्तित्व सामूहिकता के शोर में ढल रहा है।शोर ने अभी अपना जलवा कायम नहीं किया है।मैं अपनी बालकनी से सब देख रहा हूं। वहीं से जहां से रविवार को केवल सुन रहा था। देखने के लिए कम था। आज देखने के लिए कम नहीं है।आप दूरी बनाए रखें। दूरी तो पहले से ही बन गई थी। अब दूर होने को सामाजिक घोषित किया जा रहा है।

सामाजिकता बदल गई।

ये बाइक वाला समझ नहीं रहा है। ख़ाली सड़क पर इतनी बार हॉर्न क्यों बजा रहा है?

दूसरी गली से एक रिक्शा वाला फिर निकलता आ रहा है। सवारी ढूंढता हुआ। दोपहर होने को है।

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