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राजनीत में मुलायम सिंह और केजरीवाल की नाव एक ही जगह पर डूबेगी!
देश में इस समय माहौल दूसरा बना हुआ है। लोग सैनिकों की बड़ी संख्या में सहादत पर बैचेन देखे जा रहे है. लेकिन जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कालिदास की तरह उस डाली को काटना शुरू कर दिया जिस पर वो खुद बैठे थे। अब अगर डाली कटेगी तो राजनैतिक आत्महत्या जरुर कहलाएगी। क्योंकि जिस तरह के इनके व्यवहार बने है उससे तो अब यही प्रतीत हो रहा है।
मुलायम सिंह यादव
अब बात उत्तर प्रदेश के राजनैतिक दंगल के माहिर पहलवान मुलायम सिंह यादव की। जिनके धोबी पाट दांव की चर्चा हमेशा राजनीत में बनी रहती है। चूँकि पिछले तीन साल से पता नहीं उनके उपर कौन सा गृह नाराज चल रहा है जो उससे उनको निजात नहीं मिल पा रही है। पारवारिक लड़ाई झगड़े को अब वो समाप्त करने की हालात में भी नहीं है। उनके बड़े बेटे अखिलेश भी उनकी बात नहीं मान रहे है तो छोटे भाई शिवपाल यादव उनकी दुहाई देकर अपना राजनैतिक मार्ग प्रसस्त करने में लगे हुए है। जबकि अभी किसी के हाथ कुछ नहीं लगा है।
सन 1989 में अपनी नई पार्टी बनाकर कभी भी मुड़कर न देखने वाले नेता मुलायम सिंह यादव आज पाने घर को नही संभाल पा रहे है। इस बार उनकी पार्टी को सीटें मिली उतनी कम कभी हासिल नहीं हुई। किसी ने इसकी कमी कांग्रेस के मत्थे मडी तो किसी ने पारवारिक विवाद का नाम दिया। चूँकि बात करें तो आम लोंगों में शिवपाल का भी जनाधार कम नहीं था और नेताजी अंतिम समय तक निर्णय नहीं कर पाए कि उन्हें करना क्या है। इसका सबसे बडा नुकसान समाजवादी पार्टी को हुआ है।
अब समाजवादी पार्टी पिछड़े और मुसलमान वोट को लेकर प्रदेश में राजनीत करती है। यह उनका बेस वोट माना जाता रहा है। चूँकि प्रदेश में लोकसभा चुनाव प्रस्तावित है और उस समय में सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में मोदी को फिर से पीएम बनने की बात कही है। चूँकि मुस्लिम समाज मोदी का धुर विरोधी माना जाता है तो उनके वोट बेंक पर भी असर पड़ेगा। जबकि उनके सबसे खास रहे छोटे भाई शिवपाल यादव भी अपनी नई पार्टी बनाकर प्रदेश में दौड़ धुप कर रहे है।
सपा ने अब बदली हालातों में जहाँ बहुजन समाज पार्टी से गठ बंधन कर लिया है तो उनके भाई शिवपाल भी कांग्रेस खेमें के साथ जुड़कर चुनाव लड़ने की तैयारी करने में मशगुल है। अब मुलायम सिंह के लोकसभा में कही बात के कई राजनैतिक मायने निकाले जा रहे है। जहाँ इस बयान से मुस्लिम समाज में नाराजगी है वहीँ शिवपाल के चलते पिछड़े वोट बेंक में भी सेध लगती नजर आ रही है। कोई मुलायम के बयान को बीजेपी समर्थित बता रहा है तो कोई शिवपाल पर बीजेपी का हाथ बता रहा है। दो साल पहले भी मुलायम सिंह बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन कर चुके है।
अरविंद केजरीवाल
अब बात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की करते है। वह राजनीति बदलने आये थे और राजनीति ने ख़ुद उनको ही बदल दिया। अगर आज कोई आम आदमी पार्टी की कहानी लिखना चाहे तो इससे बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती। 2012 में जब आम आदमी पार्टी बनी थी उसका एकमात्र नारा था- 'लोग देश की राजनीति और राजनेताओं से ऊब चुके हैं, उनसे कोई उम्मीद नहीं है, और अब 'आप' इस राजनीति को बदलेगी।' पर 2019 आते-आते 'आप' हाँफने लगी है और अब उसमें और दूसरी राजनीतिक दलों में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है। वह भी दूसरी पार्टियों जैसी ही हो गयी है, वह भी दूसरे दलों की तरह ही बर्ताव कर रही है। ऐसे में अगर हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ये कहते हैं कि देखो 'कितना बदल गया इंसान' तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिये। अजीत कुछ ज़्यादा ही तल्ख़ हैं। पर यह तल्ख़ी सिर्फ़ उनकी नहीं है। दिल्ली और देश के कोने-कोने में बैठा हर वह शख़्स तल्ख़ है जिसने 'आप' से यह उम्मीद पाल रखी थी कि अब देश बदलेगा, बदलेगी देश की राजनीति और बदलेगी भ्रष्ट व्यवस्था।
2012 के बाद से 'आप' की सरकार दिल्ली में दो बार बनी। पहली सरकार सिर्फ़ 49 दिन चली। तब अरविंद केजरीवाल इस्तीफ़ा देकर घर बैठ गये थे। 2015 में दुबारा दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए।उस वक़्त कांग्रेस मरणासन्न अवस्था में थी। लोग कांग्रेस का मर्सिया पढ़ने को तैयार थे। 'आप' उगता हुआ सूरज थी। अरविंद केजरीवाल में लोग देश का भविष्य देख रहे थे। उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री मान कर लोग चल रहे थे। बड़े-बड़े जानकारों और राजनीति के पंडित यह लिखने लगे थे कि मोदी को अगर कोई एक शख़्स चुनौती दे सकता है तो वह शख़्स है अरविंद केजरीवाल। राहुल को तब सब चुका हुआ कारतूस मान रहे थे। राहुल कहीं गिनती में नहीं थे। लोग मान रहे थे कि 'आप' आख़िरकार कांग्रेस की जगह लेगी। पर गुरुवार को जब 'आप' अपनी सरकार की चौथी सालगिरह मना रही थी तो यह सवाल पूछना पड़ेगा कि नये भारत का वे ख्वाब, वे सपने, वे उम्मीदें, वे आशायें और वे आकांक्षाएं आज कहाँ हैं?
उन सपनों को दिखाने वाले जादूगर आज किस दुनिया की सैर में व्यस्त हैं और क्या वे सपने आज ज़िंदा भी हैं या उन सपनों की असमय मौत तो नहीं हो गयी है? और अगर वे सपने ज़िंदा नहीं बचे हैं तो उसकी मौत के ज़िम्मेदार कौन हैं? क्योंकि किसी भी साँस लेते समाज के लिये सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना।
पिछले चार सालों में कुछ तो हुआ है कि आज 'आप' में लोगों को भविष्य नहीं दिखता। वह तसवीर देख कर तकलीफ़ होती है जिसमें वह शरद पवार के घर से निकलते समय ममता बनर्जी, पवार और राहुल के पीछे दिखते हैं। कैमरे इन नेताओं के पीछे भागते हैं। उनको शायद केजरीवाल की बाइट की दरकार नहीं थी। वह जानना चाहते थे कि विपक्षी दलों की बैठक में मोदी विरोधी मंच का स्वाभाविक नेता कौन होगा। नये गठबंधन का स्वरूप क्या होगा। और इस गठबंधन में कौन-कौन से दल होंगे, उनके बीच का रिश्ता क्या होगा, और किन मुद्दों पर एक आम सहमति बनेगी। 2015 का वक़्त होता तो कैमरे केजरीवाल के पीछे भाग रहे होते। वह ख़बरों के केंद्र में होते और उनकी राय सबसे अहम होती।
कैमरों की धमाचौकड़ी के बीच सबसे दिलचस्प तसवीर थी शरद पवार और केजरीवाल की। इस तसवीर को देख कर सहसा सबको याद आती होगी जंतर-मंतर पर केजरीवाल की पंद्रह दिनों की भूख हड़ताल। तब उन्होंने अपने साथियों के साथ देश के नामचीन पंद्रह बड़े नेताओं की तसवीरें जंतर-मंतर पर टाँग रखी थी। उनकी माँग थी कि इन नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के ज़रिये इन आरोपों की जाँच हो और कड़ी से कड़ी सजा मिले। शरद पवार का नाम उस सूची में सबसे ऊपर था। केजरीवाल पवार को देश का सबसे भ्रष्ट नेता कहते थकते नहीं थे।
अब इन हालातों में दोनों नेता बुरे फंस चुके है अब देखना यह बाकी है कि जनता किसको सिंहासन सौंपेगी और किसको जमीन की धुल चटाएगी।