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अमरत्व की जिजीविषा वाया स्मारकों के नामकरण:- यूं तो कुत्तों के नाम पर भी बने हैं स्मारक

Shiv Kumar Mishra
2 March 2021 6:08 AM GMT
अमरत्व की जिजीविषा वाया स्मारकों के नामकरण:- यूं तो कुत्तों के नाम पर भी बने हैं स्मारक
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नेहरू ने तो स्टेडियम का नामकरण उनके नाम पर करने के प्रस्ताव को खारिज करते हुए, इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की थी सिफारिश, पर कांग्रेस इसे भूल गई

राजाराम त्रिपाठी

मनुष्य की अमरत्व की जिजीविषा का इतिहास, लगभग मनुष्य प्रजाति के विकास जितना ही पुराना है। प्राच्य वांग्मय की अगर बात करें तो देखेंगे कि अमरत्व हेतु अमृत प्राप्ति की आकांक्षा से तो मानव जी नहीं बल्कि यक्ष किन्नर ,नाग, गरूड़ तथा देव दानव भी नहीं बचे हैं । आखिरकार महान देवासुर संग्राम चिर जीवन प्रदान करने वाले 'अमृत' प्राप्ति के लिए ही तो हुआ था । अमरत्व की जिजीविषा की कड़ी में अपना समूचा जीवन समाज की बेहतरी तथा उत्थान के लिए समर्पित करने वाले समाज के महापुरुषों की स्मृति को सदैव जिंदा रखने के लिए उनके नाम पर जगहों, शहरों पुलों स्टेडियमों, चौकों और रास्तों के नाम रखे जाने, अथवा उनकी मूर्तियों की स्थापना की परंपरा बड़ी ही पुरानी है। कोई व्यक्ति यदि अनूठा, उपयोगी व महत्वपूर्ण कार्य इस समाज की बेहतरी के लिए करता है तो उसके महान कार्यों को उस व्यक्ति के नाम से जाने जाने में कोई बुराई भी नहीं है। विज्ञान में किसी भी सिद्धांत को उसे प्रतिपादित करने वाले वैज्ञानिक के नाम से जाना जाता है जैसे न्यूटन का गति का सिद्धांत अथवाआइंस्टीन का सापेक्षता वाद का सिद्धांत। अपनी प्यारी महबूबों, के नाम पर बनवाए गए ताजमहल, गूजरी महल जैसे स्मारक आज भी मौजूद हैं। वैसे तो बड़े और ताकतवर लोगों ने अपने पूर्वजों , महबूबों के अलावा अपने प्रिय कुत्ते बिल्ली के नाम के नाम पर भी और स्मारक बनवाए हैं। छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में खपरी गांव में स्थित "कुकुर समाधि" काफी प्रसिद्ध है, कहां जाता है कि किसी बंजारे ने अपने प्यारे तथा वफादार कुत्ते के नाम पर यह समाधि बनाई थी। आगरा के ताजमहल के बगल में भी एक कुत्ता पार्क है।कहा जाता है कि अंग्रेज जब ताजमहल घूमने आते थे, तो इसी स्थान पर अपने कुत्तों को बांध जाते थे, सो इसका नामकरण ही कुत्ता पार्क हो गया। यह अलग बात है कि, आज वहां पर पार्क के नाम पर कुछ भी नहीं है।अब इस पार्क का नाम कुत्ता पार्क से बदल कर कुछ लोग इसका नाम सद्भावना पार्क रखना चाहते हैं, तो कुछ दूसरे लोग इसका नाम बदलकर 'हनुमान चौक' रखने हेतु डटे हुए हैं, चूंकि कुत्तों की कोई संगठित राजनीतिक पार्टी नहीं है अन्यथा शायद यह भी कुत्तों के नाम पर रखे गए कुत्ता पार्क का नाम बदलने के विरोध में न्यायालय का दरवाजा खटखटाते। खैर जब तक यह टंटा नहीं निपटता , बिना फूलों, पेड़ ,पौधों का यह अनूठा पार्क अंग्रेजों के कुत्तों के नाम पर कुत्ता पार्क के नाम से बिंदास आबाद है। इधर गुलामी की जंजीरों के प्रतीकों से मुक्ति पाने के नाम पर देश के शहरों, रेलवे स्टेशनों ,सड़कों, चौकों, तिराहों के नाम बदलने की एक नई रिवायत चल पड़ी है,सो उम्मीद बंधती है, कि कुत्ता पार्क को भी ऊ कोई नया नवेला पगड़ीदार नाम मिल ही जाएगा, और निश्चित रूप से इस क्रांतिकारी कदम से आगरा व उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि यह कहना उचित होगा कि पूरे देश के के सर्वांगीण विकास को पर्याप्त गति मिलेगी।

वैसे यदि व्यापक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह उदाहरण भी हमारी आंखें खोलने वाला है।कैलिफोर्निया के इडिलवाइल नामक शहर में मैक्स नाम के कुत्ते को दोबारा शहर का मेयर बना दिया गया है,, इससे पहले इसे सन 2012 में भी शहर का मेयर चुना गया था । इसे बाकायदा बेहतरीन गाड़ी तथा मेयर को दी जाने वाली सारी विशिष्ट सुविधाएं तथा रुतबा हासिल है। भगवान न करे कि अमेरिका की यह नई परंपरा यदि भारत में भी यथारूप स्वीकार कर ली गई ,तो देश तथा जनता की सेवा के लिए व्याकुल और तड़प रहे हमारे इन नेता गणों व जनसेवा के लिए कटिबद्ध अधीर हो रहे उनके बेटे-बेटियों‌ की पीढ़ियों के भविष्य का क्या होगा?

वैसे स्कॉटलैंड के एक पुल भी है जो कुत्तों के नाम पर ही जाना जाता है। दरअसल यह पुल इस लिए मशहूर है , क्योंकि इस पुल पर से लगभग सैकड़ों कुत्ते अब तक ,पुल के नीचे कूदकर आत्महत्या करने की कोशिश कर चुके हैं । अब यह कुत्ते इस पुल आखिर किस ग्लानिवश आत्महत्या करते है, इस पर वैज्ञानिक खोज जारी है। देश-विदेश में कई राजनेताओं ने अपने नाम पर स्टेडियम तथा स्मारक बनवाए अपनी बड़ी-बड़ी मूर्तियां भी लगवाई। हमारे देश में बहन मायावती ने अपने जीवन काल में ही अपनी जबरदस्त विशाल प्रतिमाएं जगह-जगह स्थापित करवा दी ।कई फिल्मी नायक नायिकाओं के चाहने वाले उनके जीवनकाल में ही उनका मंदिर बना कर मूर्ति स्थापित कर उनकी आराधना कर रहे हैं। इन सब में आखिर गलत क्या है। कालांतर में कई इस बार स्मारकों के नाम बदले भी गए और लेनिन, कर्नल गद्दाफी सहित कितने ही राजनेताओं की भव्य मूर्तियां भी उनके व उनकी सल्तनतों पराभव के साथ ही जमींदोज कर धूल में मिला दी गईं।

हाल के वर्षों में गुजरात में देश दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनाया गया। उसका नाम मोटेरा स्टेडियम रखा गया था। राष्ट्रपति अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप जब वहां आए तो इस स्टेडियम का नाम पूरे देश ने जान लिया। हमारे जैसे कम जानकारों ने पहले तो मोटेरा नाम से यही अर्थ लगाया कि संभवतः वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार में सत्ता और शक्ति की धुरी व चाणक्य कहे जाने वाले मोटा भाई के नाम से ही मोटेरा शब्द निकला होगा, और निश्चित रूप से इसका गुजराती में कोई सार्थक अर्थ होगा। बाद में पता चला कि मोटेरा तो उस जगह का नाम है जहां स्टेडियम बना है । आगे समाचार पत्रों में छपे बड़े-बड़े विज्ञापनों से पता चला कि दरअसल इस स्टेडियम का नाम 'सरदार वल्लभभाई पटेल इंक्लेव' रखा गया है। अब यह देखना इंक्लेव क्या बला ह क्या यह इंकलाब से संबंधित है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर, इस इंक्लेव से तो आम हिंदुस्तानी को कुछ खास लेना-देना नहीं है, हां सरदार वल्लभभाई पटेल, लौह पुरुष के नाम से तो सभी परिचित ही हैं। फिर अभी अभी पता चला कि इसका नाम बदल कर भारत की प्रधानमंत्री जी के नाम पर नरेंद्र मोदी स्टेडियम रख दिया गया। अब विघ्नसंतोषियों का क्या करिएगा ? इन्होंने इस पावन कार्य में भी कमियां, खामियां निकालनी शुरू कर दी। हमारा मानना है कि यह झगड़ा अनावश्यक है।

लोगों का कहना है की अपने जीते जी अपनी मूर्तियां लगवाना , भवनों, स्टेडियमों का अपने नाम पर नामकरण करना, अधिनायक वादी प्रवृत्ति है। अब बेचारे नेताजी भी क्या करें, आज के इस मतलबी युग में जब कि लोगों की स्मरण शक्ति दिनोंदिन अल्पकालीन होते जा रही है , तथा कोई भी किसी के भी अच्छे कार्यों को, बिना किसी खास वजह के याद नहीं रखना चाहता, तो भाई मेरे , बेचारे नेताजी भला कैसे भरोसा करें, कि उनके द्वारा इस फानी दुनिया को छोड़कर जाने के बाद , उनकी स्मृति को अमरत्व प्रदान करने हेतु उनके ये समर्थक उनके नाम पर स्टेडियमों, भवनों, सड़कों ,पुलों, स्मारकों का निर्माण और नामकरण करेंगे अथवा नहीं? सो आगत अनिश्चित भविष्य की चिंता में घुलने के बजाय वर्तमान की शक्ति को पहचानते हुए 'जो भी है बस यही इक पल है' की तर्ज पर अगर अपने नाम पर स्टेडियम, भवन ,शहरों का नाम रख भी लेते हैं तो ऐसी कौन सी आफत आ जाएगी। अच्छा नहीं लगेगा तो,जैसे आज हमने कई नाम बदले हैं ,बाद में आप भी बदल लीजिएगा। वैसे सदियों हमारी शासक रही कौम के प्रख्यात साहित्यकार शेक्सपियर ने यह लगभग सर्वमान्य नीति वाक्य तो दे ही दिया है कि 'नाम में आखिर क्या रखा है' ?

अपने स्कूल के दिनों में मैं यह सोच सोच कर हैरान रहता था कि हमारे हाई स्कूल के जितने भी शासकीय छात्रावास हैं, अधिकांश के नाम मोतीलाल नेहरू अथवा जवाहरलाल नेहरू आज के नाम पर ही क्यों हैं? आगे चलकर मैंने यह भी देखा कि अधिकांश शासकीय योजनाओं के नाम भी नेताओं के नाम पर ही रखे जाते हैं। इस समिति से एक चिढ़ सी पैदा हो गई थी मेरे मन में। मैं सोचता था कि क्या इस देश के स्वप्नदृष्टा कहे जाने वाले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि इतनी संकीर्ण व स्वकेंद्रित की थी कि वह हर महत्वपूर्ण शासकीय भवन ,योजना ,पूल , बांध,स्टेडियम का नाम अपने नाम पर नामकरण करना चाहते थे? इसी अध्ययन की प्रक्रिया में मुझे पत्रकार पीयूष बबेले की किताब है "नेहरू मिथक और सत्य" देखा, तो पाया हकीकत तो कुछ और ही है। दरअसल नेहरु जी तो दिया चाहते ही नहीं थे की किसी स्टेडियम अथवा शासकीय भवनों का नामकरण उनके नाम पर किया जाए बल्कि वह इस प्रवृत्ति के ही खिलाफ थे।

दरअसल विज्ञान, कला और साहित्य के लिए फ़िक्रमंद नेहरू खेलों के लिए भी चिंतित थे. उन्हें 1951 में जब देश में पहले एशियाड खेलों का आयोजन कराना था. 11 फ़रवरी 1949 को क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मानद सचिव एएस डीमेलो के पत्र के जवाब में नेहरू ने एक नोट लिखा था कि:-

मैंने मिस्टर डिमेलो द्वारा बनाया वह नोट पढ़ा। जिसमें उन्होंने नई दिल्ली में 'नेहरू स्टेडियम इन पार्क' और बंबई में 'वल्लभ भाई पटेल ओलंपिक स्टेडियम' बनाने का सुझाव दिया है। मैं भारत में खेल कूद और एथलेटिक्स को पूरा प्रोत्साहन देने के पक्ष में हूं। यह बहुत अफसोस की बात है कि देश में कोई ढंग का स्टेडियम नहीं है। पटियाला या एक दो जगहों को छोड़ दिया जाए तो देश में कहीं भी कायदे का रनिंग ट्रैक तक नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि सरकार को हर तरह के स्टेडियम के निर्माण के काम को बढ़ावा देना चाहिए।

मैं कभी भी किसी स्टेडियम का नाम अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर रखे जाने के सख्त खिलाफ हूं। यह एक बुरी आदत है इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। स्टेडियम का नाम नेशनल स्टेडियम या इसी तरह का कोई दूसरा नाम भी हो सकता है।(पत्रकार पीयूष बबेले की किताब है "नेहरू मिथक और सत्य" से साभार)

हालांकि कालांतर में कांग्रेस में सत्ता की अन्य अनिवार्य बुराइयों के साथ ही साथ व्यक्तिपूजा व घोर चाटुकारिता का युग हावी हो गया। जिस तरह से हर योजना तथा शासकीय उपक्रमों का नाम नेताओं के नाम पर रखने की परंपरा चली, वही परंपरा उसी परंपरा का अनुसरण अन्य पार्टियों की सरकारें भी कर रही हैं। व्यक्ति पूजा लगभग हर पार्टी में स्थापित व अनिवार्य परंपरा बनते जा रही है ।यह देश तथा हमारे देश के सबसे कीमती और महत्वपूर्ण लोकतंत्र के लिए खतरनाक रूप से हानिकारक है।

दरअसल यह गजब आत्ममुग्धता का दौर है। लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की अमेरिका के स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी के तर्ज पर स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की मूर्ति भी बिना अपने चिर प्रतिद्वंदी चीन के सहयोग के हम नहीं बना पा रहे हैं , फिर भी हम अपने आप को विश्व गुरु का दर्जा देकर आत्ममुग्ध हैं। जबकि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रैंकिंग में भ्रष्टाचार और बेइमानी के मामलों में में हमें पूरे एशिया में अव्वल हैं तथा पूरे विश्व की रैंकिंग में अव्वल आने के लिए अपने स्वनामधन्य महान नेताओं और अधिकारियों के साथ मिलकर पूरी इमानदारी से सफल मशक्कत कर रहे हैं। नेता आत्ममुग्ध हैं , सरकारें आत्ममुग्ध हैं, अधिकारी आत्ममुग्ध हैं, मीडिया आत्ममुग्ध है ज्यूडिशरी आत्ममुग्ध है और अंतिम पायदान पर खड़ी जनता जनार्दन अपने इन नेताओ की ऐयारी तथा इनके सर्कस के जोकरों के कौशलों पर मुग्ध है, तथा इनकी ताल पर आंख मूंद कर मुग्ध भाव से कीर्तन कर रही है, और अपने ही कीर्तन पर आत्ममुग्ध है । देश के लिए यह निश्चित रूप से ही शुभ लक्षण नहीं है।

इस दौर में मैं एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरु जी को उद्धृत करना चाहूंगा। 2 जून 1951 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू कहते हैं:

''लोकतंत्र में इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता कि सरकार या जनता आत्ममुग्ध हो जाए. दुर्भाग्य की बात है कि ऊंची आवाज में बात करने के अलावा हर मामले में हमारे अंदर आत्ममुग्धता और उदासीनता घर करती जा रही है. देश के सर्वांगीण विकास के लिए चिंतित हर व्यक्ति को यह सोचना होगा कि एक जागृत देश ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अधिक अधिक हमारे नेताओं तथा जनता दोनों को आत्ममुग्धता की स्थिति से बाहर आना होगा तथा यथार्थ दुनिया की कठिन चुनौतियों का जमकर सामना करना पड़ेगा 52 करोड़ युवाओं के खाली हाथों को रोजगार चाहिए, लगभग डेढ़ अरब जनसंख्या को दोनों जून की रोटी चाहिए , करोड़ों सिरों को स्थायी छत चाहिए । और यह सब मात्र इस तरह के अनवरत आडंबर युक्त आयोजनों, भाषणबाजी व इवेंट मैनेजमेंट से संभव नहीं है , ना ही नित नये कानूनों के प्रादुर्भाव की अंतहीन श्रंखला से यह होने वाला है । इसके लिए तो ठोस आर्थिक- सामाजिक नीति तथा समुचित कार्ययोजना , पारदर्शी,निष्पक्ष राजनीतिक कौशल व अटूट इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यह रास्ता कतई सरल नहीं है, किंतु इसी रास्ते पर चलकर ही सही मायनों का एक नया देश गढ़ा जा सकता है। आज हमारे नेताओं को इमानदारी से इसी पथ पर चलने की आवश्यकता है , और तब किसी नेता को अपने नाम को अमर बनाने के लिए अपने जीवन काल में इस तरह के नामकरण करने अथवा नाम बदलने की आवश्यकता ही नहीं होगी। कृतज्ञ जनता समाज तथा देश के लिए, इनके द्वारा किए गए हितकारी कार्यों की स्मृति अपने दिलों में पीढ़ी दर पीढ़ी सदैव अक्षुण्ण बनाए रखेगी। किसी भी नेता अथवा राष्ट्र नायक के लिए इससे बेहतर और चमकीला स्वर्णिम स्मारक और कुछ भी नहीं हो सकता।

लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा )

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