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देश के पूर्वोत्तर राज्य असम, मणिपुर, मेघालय अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपरा व जीवंतता के लिए सुविख्यात हैं। इनकी लोकपरंपरा, लोकरंग और जीवन माधुर्य भारतीयता के माथे पर रत्नजड़ित मुकुट है। स्वर्णिम आभायुक्त ये सभी राज्य भारतीयता की सहज अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक बोध की विविधता की ऐतिहासिक धरोहरों को संजाऐ हुए हैं। ये राज्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि जनजाति प्रधान हैं और इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा भारत राष्ट्र की विविधता के विभिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करता है।
इन राज्यों में खासी, गारो, सूमी, कुकी, देवरी, भूटिया, बोडो, अंगामी और अपतानी जजजातियां विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं जो अपने सांस्कृतिक मूल्यों का आज भी निर्वहन करते हैं। इन जनजातियों की भाषा, कला, परंपरा, और त्यौहार मानवीय मूल्यों समृद्ध, उदात्त और प्रकृति के सापेक्ष और एकरसता से परिपूर्ण हैं। इस समवेत क्षेत्र में 200 से अधिक भाषाएं एवं उपभाषाएं बोली जाती हैं और चार सैकड़ा से अधिक जनजातीय समुदाय इस पूर्वोत्तर के उपवन को गुलजार करते हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो भारत के कुल क्षेत्रफल का तकरीबन 8 प्रतिशत वाला यह क्षेत्र इतना वैविध्यपूर्ण और छटाओं से भरपूर है कि अगर इसे भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। विविध किस्म की वनस्पति से आच्छादित यह क्षेत्र नैसर्गिक सुंदरता को धारण किए हुए जनजातीय समाज की सांस्कृतिक सुंदरता, सहजता और पवित्रता को प्रतिध्वनित करता है।
यह भूमि जितना सहज व सुंदर हैं उतना ही धर्म व आध्यात्म से परिपूर्ण मानवतावादी भी। यहां के जनजातीय समुदाय के लोगों का मौलिक धर्म प्रकृतिपूजा है। प्रकृति का हर अवयव इनके लिए पूजनीय और आराध्य है। आधुनिकता की चरम पराकाष्ठा के बावजूद भी जनजातीय समाज आज भी नदी, सूर्य, चंद्रमा, पर्वत, पठार, पृथ्वी, झील और वन की उदारता व सहजता से पूजा करता है। इनका ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। जनजातीय समुदाय आज भी पारंपरिक विधि व निषेध का दृढ़ता व सहजता से पालन करते हैं। उसका मूल कारण अपनी सांस्कृतिक के प्रति अदम्य निष्ठा और विश्वास है। यहीं कारण है कि अन्य राज्यों की तरह आज भी पूर्वोत्तर में पर आधुनिकता का विकृत रुप अपना असर नहीं छोड़ पाया है। यहां अब भी लोक संगीत ही जीवन को रसों से सराबोर करती है।
यहां के लोक उत्सवों में क्षेत्रीय संस्कृति की जीवंतता परंपरागत रुप से स्वीकार्य है। जनजातीय समाज की सामाजिक बुनावट में माता की आदरणपूर्ण स्वीकार्यता उनकी ममत्व के प्रति अगाध प्रेम व निष्ठा को तो रेखांकित करता ही है साथ ही समाज में स्त्रियों के प्रति मानवीय वैचारिक संवेदनाओं को एक नया आयाम भी देता है। सच कहें तो इस क्षेत्र में रहने वाला जनजातीय समुदाय कई मामलों में भारत की सोच को एक नया आयाम देता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत, सहज जीवन शैली, अपराजेय मूल्यों, परंपराओं और रस से भारत के चरित्र को गढ़ता है।
देखें तो जनजातीय समाज की लोकसंस्कृति में परंपरा और स्थानीयता का मूलभाव रचा बसा है। इसमें लोकगीत, मिथक, उत्सव और त्यौहार उनकी अंतश्चेतना के लय, सूर व ताल को जोड़ता है। यह जुड़ाव न सिर्फ जनजातीय समुदाय की कलात्मक जीवन शैली की विविधता को निरुपित करता है बल्कि इससे भारत राष्ट्र की चारित्रिक विविधता को भी निरुपित करता है। भारत की जनजातीय कला व शिल्प अद्वितीय और अलौकिक प्रतिमानों से भरपूर है। कालीन बनाना, मुखौटे गढ़ना, पेंट किए गए लकड़ी के पात्र बनाना, बांस और बेंत की अद्भुत कलाकारी, मजबूत कांसे की कटोरियां, कानों की बालियां, हार, बाजूबंद, संगीत वाद्य और लकड़ी की नक्काशी का काम इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यह कार्य इनका आर्थिक उपार्जन के साथ-साथ पूर्वोत्तर की अर्थव्यवस्था को मजबूती देता है।
पर एक तथ्य यह भी कि आधुुनिकता के बढ़ते तेज प्रवाह से अब जनजातीय समुदाय भी अछूता नहीं रहा। इसका सकारात्मक और नकारात्मक असद दोनों दिख रहा है। सकारात्मक असर यह है कि जनजातीय समाज मुख्य धारा के साथ जुड़ रहा है वहीं नकारात्मक असर यह कि वह अपनी संस्कृति के मूलतत्वों से दूर हो रहा है। नतीजा यह कि उनमें परसंस्कृति ग्रहण तेज हुआ है जिसके कारण वह दोराहे पर है। न तो वह अपनी संस्कृति बचा पा रहा है और न हीे आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्य धारा में मजबूत सहभागिता की दिशा में पूरी शिद्दत से शामिल हो रहा है। इस बीच की स्थिति से उसकी सभ्यता और संस्कृति दोनों दांव पर हैैै। विचार करें तो यह सब कुछ उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हो रहा है। यह तथ्य है कि भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। ईसाई मिशनरियों ने जनजातयी समुदाय में पहले हिन्दू धर्म के प्रति तिरस्कार और घृणा की भावना पैदा की और फिर उसके बाद उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए उन्होंने लालच को अपना हथियार बनाया।
नतीजा बड़े पैमाने पर जनजातीय समुदाय का धर्म परिवर्तन शुरु हो गया। लेकिन बिडंबना कि धर्म परिवर्तन के बाद भी उनके जीवन में आमूलचुल परिवर्तन होता नहीं दिखा। ईसाईयत न तो उनकी गरीबी कम कर पायी और न ही उन्हें इतना सशक्त और शिक्षित बनाया कि वे स्वावलंबी होकर अपने समाज का भला कर सकें। हां, इतना जरुर हो गया कि अब उनके लिए अपनी संस्कृति के मूलतत्वों को सहेजना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण हो गया है। ईसाईयत ने जनजातीय समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट-विनष्ट कर दिया है। ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव ने उनकी मौलिक संस्कृति, नैसर्गिक चेतना व चिंतन और आध्यात्मिक परंपरा को क्षति पहुंचा रहा है। ईसाईयत और हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण जनजातियों में जाति व्यवस्था के तत्व विकसित हुए हैं।
देखें तो आज उनमें भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच-नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो चुका है, जो उनके बीच अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षो और तनावों को जन्म दे रहा है। इससे जनजातियों की परंपरागत सामाजिक-सांस्कृतिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ती जा रही है। आज स्थिति यह है कि धर्म परिवर्तन के कारण बहुत से जनजातियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा हैं। हिन्दुओं में खान-पान ,विवाह और सामाजिक संपर्क इत्यादि के प्रतिबंधो के कारण वे उच्च हिन्दू जातियों से पूर्णतया पृथक हैं। जबकि ईसाईयों ने भी धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बन जाने वाले जनजातियों को अपने समूह में अधिक धुलने मिलने नहीं दिया। विवाह और सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में उन्हें अब भी एक पृथक समूह के रुप में देखा जा रहा है। अनेक जनजातियां संस्कृतिकरण के दुष्परिणाम को न समझते हुए उन्हीं समूहों की भाषा बोलने लगी हैं जिनकी संस्कृति को स्वीकार किया।
जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा और संस्कृति का परित्याग कर चुके हैं। यह तथ्य है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जाय तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। जनजातीय समुदाय के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जनजातीय समूहों में उनकी परंपरागत भाषा से संबधित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से आज जनजातीय समुदाय संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। भारत भाषायी विविधता से समृद्ध देश है लिहाजा जनजातीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं का विशेष संरक्षण जरुरी है।
जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत और सरकार की मिलीभगत के कारण हो रहा है। जंगल को अपनी मातृभूमि समझने वाले जनजातियों के इस आशियाने को उजाड़ने का जिम्मा खुद सरकारों ने उठा लिया है। जंगलो को काटकर और जलाकर उस भूमि को जिस प्रायाजित तरीके से उद्योग समूहों को सौंपा जा रहा है, उसका भी प्रभाव जनजातीय संस्कृति पर देखने को मिल रहा है। गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘द स्टेट आफ द वल्र्डस इंडीजीनस पीपुल्स’ नामक रिपोर्ट में कहा गया कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां भारत समेत संपूर्ण विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर है। विस्थापन के कारण उनमें गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी बढ़ रही है और साथ ही उनकी संस्कृति भी प्रभावित हो रही है।