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- 'अब नहीं बनेंगे नए...
दिल्ली स्थित जलवायु संवाद संगठन क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थापित ऊर्जा उत्पादन क्षमता के करीब 50% हिस्से का उत्पादन करने वाले राज्य और कंपनियां अब कोई नया बिजली घर नहीं बनाने का संकल्प व्यक्त कर रही हैं। इस अध्ययन में कुछ उन राज्यों और कंपनियों के संचयी प्रभावों को मापा गया है, जो बिजली की मांग में हो रही नयी बढ़ोत्तरी की पूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।भारत की सबसे बड़ी सरकारी स्वामित्व वाली बिजली कंपनी एनटीपीसी के पास कुल स्थापित कोयला बिजली उत्पादन क्षमता के 25% (54,224 मेगावॉट) से भी ज्यादा की हिस्सेदारी है। एनटीपीसी ने कोयले से चलने वाला कोई भी नया बिजली घर नहीं बनाने का संकल्प व्यक्त किया है। इसी तरह भारत की सबसे बड़ी निजी बिजली उत्पादन कंपनी (12792 मेगा वाट) टाटा पावर ने भी कोई भी नया कोयला बिजली घर नहीं बनाने का फैसला किया है। इसके अलावा 4600 मेगावाट की कुल उत्पादन क्षमता वाली एक अन्य निजी बिजली कंपनी जेएसडब्ल्यू एनर्जी ने भी ऐसा ही इरादा व्यक्त किया है। इन कंपनियों के अलावा चार राज्यों गुजरात, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और कर्नाटक ने भी कोई नया कोयला बिजली घर नहीं लगाने की नीति के प्रति संकल्प व्यक्त किया है। सामूहिक रूप से ये राज्य और कंपनियां भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता के 50% की हिस्सेदार हैं।
आईबीएफए की एनर्जी इकोनॉमिक्स विभूति गर्ग ने कहा "भारत में सोलर पीवी परियोजनाओं की स्थापना की लागत में वर्ष 2010 से 2020 के बीच 80% से भी ज्यादा की गिरावट हुई है। अक्षय ऊर्जा की कीमत घरेलू कोयला आधारित बिजली से 30 से 40% कम है और यह आयातित कोयला आधारित क्षमता के मुकाबले 50% कम है। स्मार्ट परियोजना विकासकर्ताओं के साथ-साथ वितरण कंपनियों ने भी 'नो न्यू कोल' या 'एग्जिट कोल' नीतियों की घोषणा की है जो प्राथमिक रूप से आर्थिक सरोकारों पर आधारित हैं। विकासकर्ता नहीं चाहते कि उनका निवेश एनपीए में तब्दील हो और बिजली वितरण कंपनियां ऊर्जा खरीद की लागत में कमी करके अपनी वित्तीय सेहत में सुधार लाना चाहती हैं। माना जा रहा है कि भारत की अन्य बिजली वितरण कंपनियां तथा विकासकर्ता इसी राह को अपनाएंगे जिसमें कोयला आधारित नई बिजली की बहुत कम या फिर बिल्कुल भी मांग नहीं होगी।
बृहस्पतिवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन दुनिया के 40 देशों के नेताओं के साथ वर्चुअल बैठक करेंगे। इस दो दिवसीय शिखर बैठक में वे देश शामिल होंगे जो कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। वहीं, इस बैठक में ऐसे देश भी आमंत्रित किए गए हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के लिहाज से सबसे ज्यादा खतरे में हैं। इस बैठक में अमेरिका द्वारा अपने जलवायु संबंधी लक्ष्य की घोषणा किए जाने की उम्मीद है। साथ ही साथ अन्य देशों द्वारा अपने दीर्घकालिक नेटजीरो उत्सर्जन के उपायों का ऐलान किए जाने की भी संभावना है।
टेरी के डिस्टिंग्विश्ड फेलो श्री आरआर रश्मि ने कहा " भारत ने अपनी ऊर्जा क्षेत्र के डीकार्बोनाइजेशन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। वर्ष 2030 तक 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन के महत्वाकांक्षी लक्ष्य के साथ यह देश अपने ऊर्जा मिश्रण के रूपांतरण के प्रति कृत संकल्प है। भारत में कुल ऊर्जा उत्पादन में कोयला आधारित बिजली की हिस्सेदारी में वृद्धि पहले से ही रुकी हुई है। वर्ष 2016 से सौर ऊर्जा की कीमतों में गिरावट की वजह से कोयले में निवेश आर्थिक लिहाज से घाटे का सौदा बन चुका है। अगर स्वच्छ ऊर्जा के भंडारण की अच्छी प्रणालियां विकसित होती हैं और बाजार में सुधारों का सिलसिला तेज होता है तो कोयले पर निवेश में स्वाभाविक रूप से और भी गिरावट आएगी।"
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा "अनेक भारतीय राज्यों और बिजली उत्पादकों ने कोयले को छोड़कर अक्षय ऊर्जा का रुख कर लिया है, क्योंकि अब कोयला फायदे का सौदा नहीं रहा। भारत में सौर ऊर्जा अब कोयले से बनने वाली बिजली के मुकाबले सस्ती हो चुकी है। आने वाले कुछ वर्षों मे बैटरी स्टोरेज से लैस अक्षय ऊर्जा थर्मल पावर से ज्यादा बेहतर विकल्प हो जाएगी। पिछले साल हुई कोयले की खदानों और सौर उर्जा की नीलामी इस बात का स्पष्ट इशारा है कि अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का रुख किस तरफ है। कोयले की खदानों की नीलामी में एक भी विदेशी निवेशक ने हिस्सा नहीं लिया। हालांकि सौर ऊर्जा संबंधी नीलामी में सबसे कम कीमत की निविदा विदेशी निवेशकों से ही प्राप्त हुई।''
भारत में सौर एवं वायु ऊर्जा संबंधी नई इकाइयों का निर्माण कोयला आधारित बिजली उत्पादन के मुकाबले 51% तक सस्ता हो चुका है। नई सौर ऊर्जा के उत्पादन की कीमत वर्ष 2020 में सभी कोयला आधारित बिजली घरों की संचालन लागत के मुकाबले कम होगी। एशिया पेसिफिक क्षेत्र में भारत में अक्षय ऊर्जा उत्पादन की लागत सबसे कम है। हाल में हुई सौर ऊर्जा नीलामी में प्रति यूनिट सौर ऊर्जा की लागत ₹2 प्रति किलो वाट (27 डॉलर प्रति मेगावाट) रही।
आरती ने कहा "राजस्थान और तमिलनाडु जैसे राज्यों में वित्तीय देनदारियों के बोझ तले दबी बिजली इकाइयां नो न्यू कोल के प्रति संकल्प व्यक्त करने के लिहाज से अनूठी स्थिति मैं हैं। उनके पास प्रचुर मात्रा में अक्षय ऊर्जा है और उन्हें बिजली उत्पादन की लागत में कमी का फायदा मिल सकता है। कोयले से चलने वाली नई बिजली इकाइयों का निर्माण न करने का संकल्प तमिलनाडु और राजस्थान के लिए विजयी रणनीति साबित होगा।''
कोयले से बनने वाली बिजली के उत्पादन का चरणबद्ध ढंग से समापन करना भारत के लिए 'कोई पश्चाताप नहीं' वाला नीतिगत विकल्प है। वैश्विक स्तर पर प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी लाने संबंधी पर्यावरणीय फायदों के साथ-साथ यह अध्ययन कोयले का त्याग करने के आर्थिक सह लाभों को भी जाहिर करता है, जिनकी वजह से वर्ष 2050 तक भारत की सालाना जीडीपी पीपीपी में 2% की शुद्ध बढ़ोतरी हो सकती है।
बहरहाल, उद्योगों से मिल रही सूचनाओं से पता चलता है कि कोयले से निजात पाने की समयसीमा केवल सौर ऊर्जा उत्पादन की परिवर्तनीय लागत पर ही निर्भर नहीं करेगी बल्कि अन्य अनेक कारक भी इस पर प्रभाव डालेंगे। इनमें ऊर्जा भंडारण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रौद्योगिकियां, ग्रिड का लचीलापन, जरूरी पैमाने पर निवेश की उपलब्धता और राज्य तथा संघीय स्तर पर बिजली के बाजारों में सुधार भी शामिल हैं।