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निदा फाजली के जन्मदिन पर, बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूं नहीं जाता
संजय रोकड़े
निदा फाजली साल 1938 की तारिख 12 अक्तूबर को दिल्ली में जन्मे थे। वे हिन्दी और उर्दू के मशहूर शायर थे। निदा ने दिल्ली में पिता मुर्तुजा हसन और मां जमील फातिमा के घर तीसरी संतान के रूप में पैदाईश ली थी। निदा का नाम बड़े भाई के नाम के काफिये से मिला कर मुक्तदा हसन रखा गया। निदा का नाम पिता और भाई के नाम की तर्ज पर पहले 'मुक्तदा हसन' था।
निदा ने यूं ही अपना नाम 'निदा' नहीं चुना था। उस नाम को मायने भी दिए। वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। निदा फाजली इनके लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है स्वर या आवाज होता है। फाजली कश्मीर के एक इलाके का नाम है जहां से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बसे थे। इसलिए उनने अपने उपनाम में अन्य मशहूर शायरों की तरह फाजली को अपने तखल्लुस में जोड़ लिया।
निदा का बाल्यकाल ग्वालियर में गुजरा। यही पर उनकी शिक्षा भी हुई। निदा ने 1958 में ग्वालियर कॉलेज (विक्टोरिया कॉलेज या लक्ष्मीबाई कॉलेज) से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। बता दे कि निदा के माता-पिता हिन्दू-मुस्लिम कौमी दंगों से तंग आकर पाकिस्तान जा बसे थे लेकिन निदा भारत को ही अपना ठीकाना बनाया।
भारत में निदा की पहचान एक महत्वपूर्ण आधुनिक शायर और फिल्मी गीतकार के रूप में रही है। बता दे कि निदा सूर और कबीर की परंपरा के वाहक रहे है। निदा ने दोहे की लोकविधा में नई जान भरी थी। निदा ने अपनी रचनाओं से अपने नाम को असल मायने दिए थे। निदा को अपनी गजल कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता से भी जाना जाता है। वे बेमिसाल शायर थे। निदा ने गजलों, गीतों के अलावा दोहे और नज़्में भी खूब लिखी। निदा के लिखे को पूरी दुनिया ने सराहा है।
निदा का हर अंदाज सूफियाना और जिंदगी का हर रंग शायराना रहा। शायद यही कारण था कि निदा को ताजिंदगी हर तबके से प्यार मिला और उनकी गजलों व गीतों को काफी पसंद किया गया। निदा जब पढ़ते थे तो उनके सामने की पंक्ति में एक लडक़ी बैठा करती थी जिससे निदा एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे। लेकिन एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा- कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हो गया है और उनका देहान्त हो गया है। उस दिन निदा हद से ज्यादा दुखी हुए।
इस घटना ने निदा को अंदर से तोड़ दिया था। इस दिन उनने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दुख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है। ना ही उनको लिखने का जो तरीका आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दुख की गिरहें खुलें। एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहां पर किसी को सूरदास का भजन-
मधुबन तुम क्यौं रहत हरे?
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?
गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियां फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं?
वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है। फिर उनने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फरीद जैसे कई कवियों को पढ़ा और पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएं अधिक प्रभावकारी है। जैसे सूरदास की ही उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस। न कि मिर्जा गालिब की एब्सट्रैक्ट भाषा में दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?। तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई।
कहते हैं किसी भी तरह, किसी भी शर्त पर अच्छी तरह जिंदगी जीने वाले लोग बहुत सारे होते हैं पर इसका फैसला मौत ही करती है कि वे क्या थे। बेहद ही लोकप्रिय शायर निदा फाजली ने अपनी सादगी और लिखाई के कारण लोगों के दिल मे मुकाम बनाया और हमेशा जिंदा रहे।
कुछ लोग सबके जैसे होते हैं, सबके लिए होते हैं, सबकी बात कहते हैं, सबके लिए रोते है। सबके जख्मों से जिनका सीना छलनी होता है, ऐसा कोई कबीर होता है, कोई अमीर खुसरो या फिर इनकी परंपरा को अपनी सांसों में जीने वाला कोई निदा फाजली होता है। वे अवाम के शायर थे इसलिए निदा ने वह रास्ता नहीं चुना जो उनसे पहले दाग, गाालिब और मीर जैसे नामचीन शायर बनाकर छोड़ गए थे। निदा के प्रेरणास्रोत तो सूर हुए। कबीर हुए। निदा को बनी बनाई राह पर चलना कभी भी मंजूर नहीं था। जैसा कि उनके लिखे में भी यह प्रमाणित होता है-
'मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशाई हूं
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूं नहीं जाता'
निदा ने तुलसी और मीरा को दिल से पढ़ा और बाबा फरीद को दिल में आत्मसात किया क्योंकि वे अपनी ही जिंदगी के कुछ मुश्किल अनुभवों से गुजरते हुए यह जान चुके थे कि शायर को जिंदा रहने के लिए लोगों के दिल में घर करना होता है। सीधे-सादे लफ्जों में अपनी बात कहने की कला को उनने बहुत मुश्किल से साधा और ऐसे साधा कि फिर इसकी डोर कभी उनके हाथों से न छूटी और न कभी जरूरत से ज्यादा ढीली हुई।
निदा हर बखत लोगों के भीतर के दर्द और उनके दिल की आवाज को शब्दों में पिरोने का काम किया। मसलन-
'नील गगन पर बैठ के कब-तक, चांद सितारों से झांकोगे
पर्वत की ऊंची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे...
मेरा छप्पर टपक रहा है, बनकर सूरज इसे सुखाओ
खाली है आटे का कनस्तर, बनकर गेहूं इसमें आओ
चुप-चुप है आंगन के बच्चे, बनकर गेंद इन्हें बहलाओ
काम बहुत है हाथ बंटाओ, अल्ला मियां मेरे घर भी आ आओ।'
दरअसल जिंदगी में सीधी और सच्ची बात कहना हर बार आसान और सरल नहीं होती है लेकिन निदा ने इसे सरल बनाने का काफी प्रयास किया। निदा बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने सुनाने के लिए मशहूर रहे है। इस आदत के कारण निदा को अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में कई मौकों पर खामियाजा भी भुगतना पड़ा है।
काबिलेगौर हो कि 'मुलाकातें' नामक अपने संस्मरणों की किताब में दिग्गज लेखकों के ऊपर संस्मरण लिखने और उसमें उनकी पोल-पट्टी खोलने के कारण लेखकों के एक बड़े वर्ग के बीच वे हमेशा नकारे गए।
वे कहीं भी अनपी बात कहने से पीछे नही हटते थे। जब वे पाकिस्तान गए तो एक मुशायरे के बाद कट्टरपंथी मुल्लाओं ने उनका घेराव कर लिया और यह कहकर उनका विरोध करने लगे कि क्या वे अल्लाह से भी ऊपर बच्चों को मानते हैं। यह एक तरह का कुफ्र है और उनके लिखे शेर पर -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर ले
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
पर अपना विरोध प्रकट करते हुए उनसे पूछा कि क्या निदा किसी बच्चे को अल्लाह से भी बड़ा समझते हैं? निदा ने उत्तर दिया कि मैं केवल इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है। यह वाकया निदा ने अपनी आत्मकथाओं 'दीवारों के भीतर' और 'दीवारों के बाहर' में दर्ज किया है।
निदा ने अपनी पुस्तक मुलाकातें में उस समय के कई स्थापित लेखकों के बारे में लिखा और भारतीय लेखन के दरबारीकरण को उधेड़ कर रख दिया। निदा ने मुलाकातें में ऐसे लोगों को बेनकाब किया जो धन और राजनीतिक युक्ति के अपने संपर्कों से पुरस्कार और सम्मान पाते रहे। इसका बहुत विरोध हुआ और ऐसे कई स्थापित लेखकों ने निदा का बहिष्कार कर दिया और ऐसे सम्मेलनों में सम्मिलित होने से मना कर दिया जिसमें निदा को बुलाया जा रहा हो।
हालांकि इस तरह के अनुभवों के बाद भी निदा की सच कहने की आदत कभी नहीं गई। लेखकों की पुरस्कार वापसी का मामला हो, गुलाम अली को भारत न आने देने की बात हो या फिर आमिर खान को देशद्रोही कहे जाना, वे अपना विरोध हर जरूरी बात पर जताते रहे थे। आज के माहौल पर उनका कहना था-
आज जो कुर्सी पर हैं उन्हें साहित्य से डर लगता है,
क्योंकि साहित्य गालिब की तरह सवाल करता है...
मुशायरों और कवि सम्मेलनों में भी अब सांप्रदायिकता हावी हो रही है, सच बोलने वालों का हश्र दाभोलकर, कलबुर्गी और असलम ताहिर जैसा होता है। दरअसल निदा की कलम को कभी कोई खोफ नही रहा। वे अपनी तरह के अपनी परंपरा के वाहक रहे थे। निदा न तो बशीर बद्र थे, न ही गुलजार। रूमानियत भरे शेर, गजलें, नज्म और भोले-भले अर्थों वाले प्रेम भरे शब्द भी निदा की कलम से कम ही निकले है। हालाकि प्रेम यहां भी है लेकिन कुछ बड़े और व्यापक अर्थों में। जग और जगत से खुद को जोड़ते हुए सब में ही कहीं वे भी हैं थोडे से, इसीलिए उनका अंदाज सूफी संतों वाला रहा।
निदा लोक और जिंदगी के रंगों के शायर थे। या यूं कहें कि बाजीगर थे अतिश्योक्ति नही होगा। अपने शब्दों में दुनिया के अफसानों को पिरोने वाले, जिंदगी के फलसफों को जीते हुए लिखने वाले-
अच्छा सा कोई मौसम
तन्हा सा कोई आलम
हर बात का रोना तो किस बात का रोना ह
गम हो कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है
आवारा मिजाजी ने फैला ही दिया दामन
आकाश की चादर है,
धरती का बिछौना है।
निदा के गीत गजल और नज्मों में आम जिंदगी के लोगों का दर्द और सच्चाई छूपी रही है जैसे-
तमाम शहर में ऐसा नहीं खुलूस न हो
जहां उमीद हो इस की वहां नहीं मिलता
कहां चराग जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अजाब है सब अपने आप में गुम हैं
जबां मिली है मगर हम-जबां नहीं मिलता
चराग जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता
इसके अलावा भी दिल को छुने वाले अनेक ऐसे कलाम है जो जहनी तौर पर इंसान की सच्चाई को बयां करते है। जैस्ैा-
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से
किस को मालूम कहां के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुजर के हम हैं
हम वहां हैं जहां कुछ भी नहीं रस्ता न दयार
अपने ही खोए हुए शाम ओ सहर के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर कलमकार की बे-नाम खबर के हम हैं
इसके अलावा और भी जैसे- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता जैसे न जाने कितने गीत उनकी संजीदगी का प्रमाण है। ये निदा की कलम का ही कमाल है कि उनने अपने लेखने से बड़े से बड़े फिल्मकार, प्रोड्यूसर-निर्देशक-लेखक के दिल में अपना मुकाम बनाया।
एक बार की बात है कमाल अमरोही हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र को लेकर फिल्म रजिया सुल्ताना बना रहे थे। इसके गीत जांनिसार अख्तर लिख रहे थे जिनका अकस्मात निधन हो या। जांनिसार अख्तर ग्वालियर से ही थे और निदा के लेखन से खासे वाकिफ थे। जां निसार अख्तर ने शत-प्रतिशत शुद्ध उर्दू बोलने वाले कमाल अमरोही को निदा के बारे में बताया था। तब कमाल अमरोही ने उनसे संपर्क किया और फिल्म के वो शेष रहे दो गाने लिखने को कहा जो कि उननेे लिखे और कालांतर में कालजयी बन गए। गाने के बोल थे- तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है। यह उनका लिखा पहला फिल्मी गाना था। इसके बाद रजिया सुल्ताना में ही- आई जंजीर की झंकार, खुदा खैर करे लिखा। इस प्रकार निदा ने फिल्मी गीत लेखन शुरू किया और उसके बाद कई हिन्दी फिल्मों के लिये बेहतरीन गाने लिखे। मसलन-
होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है (फिल्म सरफरोश)
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता (फिल्म आहिस्ता-आहिस्ता)
तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है (फिल्म आहिस्ता-आहिस्ता)
चुप तुम रहो, चुप हम रहें (फिल्म इस रात की सुबह नहीं)
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी (गजल)
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाये (गजल)
जैसे नायाब नगमें लिखे। टीवी सीरियल सैलाब का शीर्षक गीत के अलावे लफ्जों के फूल (पहला प्रकाशित संकलन) था। मोर नाच, आंख और ख्वाब के दरमियां
खोया हुआ सा कुछ (साहित्य अकादमी से पुरस्कृत), आंखों भर आकाश, सफर में धूप तो होगी जैसे बेहद प्रसिद्धकाव्य संग्रह लिखे। आत्मकथा के रूप में दीवारों के बीच- दीवारों के बाहर लिखा। संस्मरणों में मुलाकातें, तमाशा मेरे आगे लिखा।
निदा ने अपने लेखन के सहारे ही कई जाने माने पुरस्कार और सम्मान पाए है। इनकी भी एक लंबी चौड़ी फहरिस्त है। सनद रहे कि सन 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार - काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ (1996) पर मिला। यह सांप्रदायिक सौहार्द पर लिखा गया था। सन 2003 में स्टार स्क्रीन पुरस्कार- श्रेष्टतम गीतकार-फिल्म सुर के लिए दिया गया। इसी साल बॉलीवुड मूवी पुरस्कार- श्रेष्टतम गीतकार-फिल्म सुर के गीत आ भी जा के लिए मिला। मध्यप्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार आत्मकथा रुपी उपन्यास दीवारों के बीच के लिए मिला। मध्यप्रदेश सरकार का खुसरो पुरस्कार- उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए पाया। महाराष्ट, उर्दू अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार- उर्दू साहित्य के लिए मिला। बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार। उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ)- उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए मिला। इसी प्रकार से
मारवाड़ कला संगम (जोधपुर), पंजाब एसोशिएशन (मद्रास-चेन्नई), कला संगम (लुधियाना) मिला। सन 2013 में पद्मश्री से नवाजे गए।
हालाकि निदा को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए अनेक मौकों पर अनेक तरह की परेशानियों व समस्याओं से गुजरना पड़ा। वे लेखन के प्रारंभिक समय में कमाई की तलाश में कई शहरों में भटके। उस समय बम्बई (मुंबई) हिन्दी/ उर्दू साहित्य का केन्द्र था और वहां से धर्मयुग, सारिका जैसी लोकप्रिय और सम्मानित पत्रिकाएं छपती थी तो 1964 में निदा काम की तलाश में बम्बई चले आए और फिर वहीं के होकर रह गए।
धर्मयुग, ब्लिट्ज जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे। उनकी सरल और प्रभावकारी लेखनशैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई। उर्दू कविता का उनका पहला संग्रह 1969 में छपा। आज निदा हिंदी-उर्दू के उन चंद अजीम शायरों और गीतकारों में शुमार है जिनकी हर लाइन लफ्जों की जन्नत में अनायास खींच ले जाती है।
निदा 8 फरवरी 2016 को मुम्बई में हम सबको अलविदा कह कर इस दुनिया से रूखसत हो गए। निदा की एक ही बेटी है जिसका नाम तहरीर है।
चलते चलते आपको निदा की उस गजल से मुखातिब करते चलता हूं जो इंसानी जिंदगी के सच को करीब से बयां करती है।
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूं नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यूं नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूं नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूं नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूं नहीं जाता
वो ख्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है
वो ख्वाब हवाओं में बिखर क्यूं नहीं जाता
बाय।