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संजय कुमार सिंह
राहुल गांधी के लिए वित्त मंत्री की सलाह और हालात, प्रधानमंत्री जी, आपकी कालीन तो भीष्म पितामह के बाण के बिस्तर से भी कंटली होगी.
द टेलीग्राफ ने आज अपने पहले पन्ने पर तस्वीरों और खबरों से बताया है कि राहुल गांधी को प्रवासी मजदूरों का समय खराब नहीं करना चाहिए था और उनके साथ पैदल चलते हुए बात करनी चाहिए थी और उनका सामान उठाने की सलाह देने वाली वित्त मंत्री निर्माला सीतारमन के राज के देश में आम लोगों की वास्तविक स्थिति क्या है। मुख्य तस्वीर में चार बच्चों का एक परिवार जमीन पर लेटा है। बच्चों की मां बैठी हुई है जबकि पिता बच्चों के साथ नीन्द में या आराम करता लग रहा है। यह फोटो प्रवासियों के परिवार की है जो चंडीगढ़ के पास किसी गांव के रास्ते में है और दिल्ली पुलिस ने उसे गाजीपुर में रोक रखा है। मजबूरन वह फ्लाईओवर के नीचे आराम कर रहा है। यह पीटीआई की फोटो है। इस मुख्य फोटो के साथ दो और तस्वीरें हैं।
एक तस्वीर जो ऊपर प्रकाशित है उसके बारे में बताया गया है, प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो द्वारा ट्वीट की गई एक तस्वीर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और अन्य के साथ सोमवार को कालीन बिछे एक विशालकाय कमरे में देश के पूर्वी तट पर आने वाले अंफान तूफान से निपटने के लिए बैठक करते दिखाए गए हैं। अखबार का मुख्य शीर्षक इसी से संबंधित है। इस फोटो के नीचे केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन की तस्वीर है और लाल रंग में शीर्षक है, "व्हाट टाइमिंग, निर्मला!"
इसके नीचे लिखा है, प्रवासी मजदूरों के साथ बैठकर बात करने के लिए राहुल गांधी की निन्दा करने वाली केंद्रीय वित्त मंत्री के कटाक्ष की असंवेदनशीलता को रेखांकित करने वाले तलीफदेह दृश्य सोमवार को दिल्ली के गाजीपुर में देखे गए। इसके साथ निर्मला सीतारमण का वह बयान है जो उन्होंने राहुल गांधी के बारे में दिया था, .... जब वे पैदल जा रहे हैं तो उनके साथ बैठकर उनका समय खराब करना और बाते करना, अच्छा होता कि उनके साथ चलते बाते करते हुए उनके बच्चे औऱ सूटकेस को उठाते .... क्या आप जानते हैं कि निर्मला सीतारमण के इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर ट्रोल सेना यह बताने और इस बात पर आश्चर्य जताने में लगी हुई है कि राहुल गांधी मजदूरों से मिलने गए थे तो जो जूते पहने रखे थे वह 13499 रुपए का था।
छह कॉलम के इस शीर्षक औऱ डिसप्ले के साथ दो कॉलम की तीन खबरें हैं। बाएं से दाएं इन तीन खबरों का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता - 1. बंगाल के मजदूरों के लिए सूरत में कोई रास्ता नहीं 2. मां ने उधार लिए, कुछ ने बकरियां बेचीं और 3. सरकार को छोड़कर सबको नकद चाहिए
पहली खबर कोलकाता डेटलाइन की है। इसमें बताया गया है कि कैसे गुजरात के मजदूरों से कहा जा रहा है कि बंगाल उन्हें वापस नहीं बुलाना चाहता है और बंगाल के मजदूरों को परेशान किया जाना रहा है उन्हें वापस जाने के लिए भरा जाने वाला फॉर्म तक नहीं दिया जा रहा है। बंगाल में अधिकारियों से बात हो रही थी तो वे सहायता कर रहे ते पर सूरत के अधिकारी फॉर्म नहीं दे रहे थे और फोटो कॉपी करने वाले एक पन्ने से 10 रुपए मांग रहे थे। अखबार ने लिखा है कि इस बारे में बात करने के लिए सूरत के जिलाधिकारी को फोन करने पर कोई जवाब नहीं मिला। दूसरी खबर बैंगलोर डेट लाइन की है।
इसमें बताया गया है कि कर्नाटक से बंगाल वापस आने के लिए बंगाल के मजदूर बस ठीक कर रहे थे पर बस वाले कई गुना ज्यादा किराया मांग रहे थे। अंत में एक दूने किराए पर आने के लिए राजी हुआ और एक आदमी का किराया 8000 रुपए देना था। इसके लिए एक मजदूर की 68 साल की मां ने सूदखोर से 15,000 रुपए उधार लिए। इसी तरह कुछ ने जेवर बेचे जबकि किसी ने बकरियां बेचीं। तीसरी खबर श्रीनगर डेटलाइन की है। इसमें कहा गया है, श्रीनगर के 71 लोग आंध्र प्रदेश में थे और उन्हें वहां से वापस आने के लिए हैदराबाद आना पड़ा और लॉक डाउन में सारे पैसे खत्म होने के बाद 1.82 लाख रुपए देकर वे हैदराबाद पहुंचे जहां से उन्हें जम्मू के लिए ट्रेन मिलनी थी। बस के लिए उन्हें 600 रुपए की जगह 2500 रुपए देने पड़े। खास बात यह रही कि बसे राज्य पथ परिवहन निगम की थी यानी लूट सरकारी स्तर पर हुई। कश्मीर के इन लोगों की शिकायत है कि राज्य सरकार ने इनके लिए कुछ नहीं किया। इसपर अखबार ने दिल्ली में राज्य के स्थानीय आयुक्त से बात करने की कोशिश की लेकिन फोन पर जवाब नहीं मिला।
द टेलीग्राफ की इस खबर से लगता है कि वित्त मंत्री ने अगर राहुल गांधी पर कटाक्ष किया तो उन्हें मजदूरों की स्थिति के बारे में भी कुछ करना चाहिए। यह सरकार का काम है कोई अहसान नहीं। और अगर सरकार अपना काम नहीं करे तो जनता की ओर से अखबारों का काम है कि उससे सवाल करे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मीडिया के समक्ष नहीं आते हैं और देश का मीडिया आम तौर पर सरकार के सवाल नहीं करता है। यहां तक तो उनकी इच्छा का मामला हो सकता है और वे सरकार की सेवा कर रहे हो सकते हैं। लेकिन इन्हीं अखबारों को सरकार से सहायता चाहिए और यह मांग पत्रकार कर रहे हैं। हिन्दी अखबारों में क्या कोई कोई ऐसी रिपोर्टिंग कर रहा है? और नहीं कर रहा है तो अखबार क्यों निकलना चाहिए?
आज के अखबारों में द हिन्दू ने कोरोना के राउंडअप को लीड बनाया है और इसके अनुसार देश भर में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक लाख पार कर गई है और मरने वालों की संख्या 3157 हो चुकी है। आम अखबारों में ऐसी खबरें नहीं छापकर सरकार का प्रचार करने का कोई मतलब नहीं है जबकि वह खुद ही प्रचारकों की पार्टी है। यही खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में है पर शीर्षक में कहा गया है कि मरने वालों का अनुपात कम है, इसलिए उम्मीद है। हिन्दी अखबारों में राजस्थान पत्रिका और अमर उजाला में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक लाख हो जाने की खबर लीड है जबकि नवोदय टाइम्स और हिन्दुस्तान में यह पहले पन्ने पर लीड है। बाकी अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। इस माहौल में 20, 000 लाख करोड़ के पैकेज के बावजूद सेंसेक्स अगर कल 1069 प्वाइंट गिरा तो यह भी बड़ी खबर है। इसे हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने पर छापा है। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने की खबर में बताया है कि उत्तर प्रदेश के औराया में मरने वाले प्रवासी मजदूरों के शव उनके गांव पहुंच गए और वहां उनके परिवार की क्या स्थिति है। कौन लोग हैं।