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वायु प्रदूषण पर प्रशासन नहीं, विज्ञान लगा सकता है लगाम
नई दिल्ली: वायु प्रदूषण का कोविड 19 की मृत्यु दर से सीधा रिश्ता है. वैज्ञानिकों की मानें तो प्रदूषित करने वाले कणिक तत्वों में हर एक माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ कोविड 19 की मृत्यु दर में 8 प्रतिशत की बढौतरी होती है.
ऐसी तमाम जानकारियों और डेटा का ख़ुलासा हुआ क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा आयोजित एक सार्थक वेबिनार में, जहाँ चर्चा का विषय था भारत में वायु गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाली निति निर्धारण में विज्ञान की भूमिका को सबके सामने रखना.
वेबिनार के मुख्य प्रतिभागियों में थे लंग केयर फाउंडेशन के डॉ अरविन्द कुमार, महाराष्ट्र प्रदुषण कण्ट्रोल बोर्ड के जॉइंट डायरेक्टर( वायु) डॉ वी एम् मोठ्घरे और इंडिया क्लाइमेट कोलैब्रेटिव की श्लोका नाथ. इन सभी ने देश में वायु गुणवत्ता नीति निर्धारण को विज्ञान के चश्मे से देखने की ज़रुरत और एहमियत को सामने रखा.
श्लोका नाथ ने प्रदूषण डेटा की कमी को उजागर करते हुए बताया, "देश में वायु प्रदूषण के डेटा की कमी को दूर करने के लिए 4000 मोनिटरिंग स्टेशन चाहिए. और इसको पूरा करने में 10000 करोड़ रुपये का खर्च आयेगा." आगे, इस खर्चे की प्रासंगिकता को एक लिहाज़ से साबित करते हुए श्लोका ने कहा, "शुरूआती शोध के मुताबिक़ पीएम 2.5 का सीधा रिश्ता है कोविड 19 की मृत्यु दर से. इसलिए पीएम 2.5 की विस्तृत जानकारी बेहद ज़रूरी है."
उनकी इस बात पर मोहर लगाते हुए डॉ अरविन्द कुमार ने बताया कि, "विश्व के तमाम देशों में इस बात को सिद्ध करते शोध हुए हैं लेकिन इटली में हुआ शोध फ़िलहाल सबसे विश्वसनीय प्रतीत होता है. इसके अनुसार पीएम 2.5 में हर एक माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ कोविड 19 की मृत्यु दर में 8 प्रतिशत की बढौतरी होती है." डॉ कुमार ने आगे एक हौसला देती जानकारी देते हुए कहा, "कोविड की वजह से हुई तालाबंदी का असर पर्यावरण पर साफ़ है. ख़ास तौर से इसलिए क्योंकि इन दौरान फेफड़ों की बीमारी से झूझते तमाम मरीज़ों की हालत में सुधार हुआ है. लेकिन ये स्थिति हमेशा ऐसी नहीं रहेगी क्योंकि जैसे जैसे प्रदूषण बढेगा, वैसे-वैसे इन मरीज़ों की स्थिति बिगड़ सकती है."
महामरी के इस दौर में वायु प्रदूषण को जन स्वास्थ्य से जोड़ते हुए आईआईटी कानपुर के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष, प्रोफ़ेसर एस एन त्रिपाठी ने बेहद महत्वपूर्ण जानकारियां साझा की. उन्होंने दिल्ली की हवाओं पर केंद्रित पांच रिसर्च पेपर्स की मदद से इस बात को साबित किया कि क्योंकि वायु प्रदूषण एक बड़ी जन स्वास्थ्य समस्या का कारण है, उसको नियंत्रित करने वाली नीतियों का आधार प्रशासनिक की जगह वैज्ञानिक होना चाहिए.
स्थिथि की गंभीरता और ऐसे शोध की प्रासंगिकता बताते हुए महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के डॉ वी एम् मोठ्घरे ने कहा, "महाराष्ट्र देश की अर्थ व्यवस्था में बड़ा योगदान देता है. लेकिन इसके साथ ही प्रदूषण में भी उसका योगदान रहता है. प्रदूषण पर सटीक जानकारी नीति निर्धारण में मदद करती है इसलिए हमने आईआईटी कानपुर के साथ एक समझौता किया है जिसके अंतर्गत कम लागत के सेंसर आधारित मोनिटरिंग उपकरण मुम्बई में लगाये जायेंगे. ये काम इस साल एक नवम्बर से शुरू होगा और इसके पूरा होने का लक्ष्य अगले साल 31 मई तक है. साथ ही, हमने अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण की शीर्ष संस्था US EPA, और जापान और MIT जैसी संस्थाओं के साथ भी समझौते किये हैं. इस तकनीकी नवाचार की मदद से हम प्रदोषण के छोटे-से-छोटे कारक की संरचना से ले कर उसका स्त्रोत, और उसका हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर तक, सब जान पाएंगे."
पूरे मुद्दे पर क्लाइमे टट्रेंड्स की डायरेक्टर, आरती खोसला, ने कहा, "वायु प्रदूषण के संदर्भ में आइआइटी कानपुर की ये नयी रिसर्च अपनी तरह की पहली वैज्ञानिक पहल है. इसमें वाहनों से लेकर निर्माण कार्य तक से होने वाले प्रदूषण के हर स्त्रोत की विस्तृत जानकारी है. देश में जन स्वास्थ्य पर प्रदूषण के असर को समझने के लिए ऐसी बारीक जानकारी बेहद ज़रूरी है. नीति निर्माताओं के पास इस जानकारी को नकारने या उसे नीति निर्धारण में प्रयोग न करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए. अब जब इस शोध से हमें ये पता चलता है कि दिल्ली की हवा में लेड, क्लोरीन, निकल जैसे तत्व हैं, तब स्मोग टावर और स्मोग गन्स जैसे समाधान न सिर्फ़ संसाधनों की बर्बादी से लगते हैं, दिशाहीन भी सिद्ध होते हैं." आरती कोविड महामारी का संदर्भ देते हुए कहती हैं, "लॉकडाउन ने हमें रास्ता दिखाया कि प्रदूषण के स्त्रोत अगर बंद कर दिए जाएँ तो वातावरण कितना बेहतर हो सकता है. लेकिन लॉकडाउन कोई समाधान नहीं और न इसके साथ आगे बढ़ा जा सकता है. इसलिए अब केंद्र और राज्य सरकारों को बड़े उत्सर्जकों पर नकेल कसते हुए धीरे-धीरे इन उत्सर्जनों को कम करने के लिए म्युनिसिपल स्तर के विकल्प तलाशने होंगे."
अपने शोध पर विस्तार से जानकारी देते हुए प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, " हमने बीते कुछ समय में पाँच पेपर प्रकाशित किये हैं. पहला पेपर बात करता है पीएम 2.5 के ओक्सिडेटिव पोटेंशियल और उसके हमारी सेहत पर असर के बारे में. ओक्सिडेटिव पोटेंशियल मतलब किसी प्रदूषक कण की वो ताकत जिसकी मदद से हो हमारे शरीर में जा कर हमारे लिए ज़रूरी एंटी ओक्सिडेंट को बर्बाद कर देता है. इस पेपर की मदद से ये साबित होता है कि सिर्फ़ पीएम2.5 की कुल मात्रा का ज़िक्र और फ़िक्र काफ़ी नहीं. उनकी केमिकल कम्पोजीशन समझना बेहद ज़रूरी है."
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी की मानें तो भारत में पीएम 2.5 का ओक्सिडेटिव पोटेंशियल अमेरिका में पाए जाने वाले पीएम 2.5 से कहीं ज़्यादा है.
वो आगे बताते हैं, "दूसरे और तीसरे रिसर्च पेपर में दिल्ली की हवा में पायी जाने वाली टोक्सिक गैसों के स्रोत को पहचानने की बात की गयी है. इन पेपर्स में तो हमने एक लिहाज़ से इन टोक्सिक गैसों के स्रोत, मात्रा, संरचना वगैरह के फिंगरप्रिंट निकाल कर रखे हैं. दिल्ली में प्रदूषण के जानलेवा स्तर होने के बावजूद वहां प्रदूषण के स्रोत और उसकी संरचना को लेकर ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं."
बाकी के दो पेपर्स के बारे में बताते हुए प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, "चौथे पेपर में सामने आया कि पीएम कणों में सबसे ज़्यादा मात्रा में क्लोरीन और सिलिकोन थे और ये सभी कण दिल्ली के बाहर से तीन वायु मार्गों से पहुंचे थे. क्लोरीन, ब्रोमीन, और सेलेनियम अगर पंजाब और हरियाणा से आये, तो सल्फ़र, क्रोमियम, निकल, मैंगनीज़ उत्तर प्रदेश से आये. साथ ही कॉपर कैडमियम और लेड नेपाल की हवाओं से यहाँ पहुंचे. वहीँ लेड, टिन और सेलेनियम के कण हरयाणा, पंजाब, और पाकिस्तान की हवाओं से भारत में यहाँ तक पहुंचे."
पांचवी और आख़िरी पेपर के बारे में बताते हुए प्रोफ़ेसर त्रिपाठी बताते हैं, "इसमें ये बात सामने आयी कि मानसून के बाद की हवाएं प्रदूषण के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील होती हैं. बीते दस सालों में ये देखा गया है कि लगातार मानसून के बाद वायु प्रदूषण बद से बद्तर होता जा रहा है. इस रिपोर्ट से ये साफ़ होता है कि अब वक़्त का तकाज़ा है कि किसानों को पराली जलाने या उसके निस्तारण के लिए बेहतर विकल्प देने की ज़रूरत है."
अंततः सभी विशेषज्ञों की एक राय रही कि वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए विज्ञान की मदद से जितना अधिक बारीकी से डेटा जुटाया जायेगा, उतने ही प्रभावी तरीके से प्रदूषण पर लगाम लगाई जा सकती है. प्रोफ़ेसर त्रिपाठी के शोध की तारीफ़ करते हुए सभी ने माना कि बेहतर नीति बिर्धर्ण के लिए ऐसे शोध अतिअवाश्य्क है.