राष्ट्रीय

ऑनलाइन कक्षाएँ और बच्चों का भविष्य

Shiv Kumar Mishra
4 Sept 2021 10:39 AM IST
ऑनलाइन कक्षाएँ और बच्चों का भविष्य
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डॉ हर्षवर्धन त्रिपाठी

पहली सितंबर से देश में उन राज्यों में जहां मामले नियंत्रण में हैं, विद्यालय खुल गए हैं, लेकिन अभी भी माता-पिता अपने छोटे बच्चों को विद्यालय भेजने से बच रहे हैं। कुछ डर, कुछ आशंका अभी भी बनी हुई है। देश में टीकाकरण का कार्यक्रम भले ही बहुत तेज़ी से चल रहा हो, लेकिन यह सारी तेज़ी वयस्क लोगों के लिए है। 18 वर्ष से ऊपर के लोगों का टीकाकरण कार्यक्रम देश के लोगों को भरोसा दे रहा है कि अब सावधानी के साथ सामान्य तरीक़े से व्यवहार हो सकता है। उद्योग-धंधे, हर तरह का कामकाज, यहाँ तक कि लोगों का घूमना-टहलना भी अगर तेज़ी से बढ़ा है तो इसी तेज़ टीकाकरण की वजह से यह विश्वास बना हुआ है, लेकिन विद्यालय खोलने पर एक मज़बूत तर्क आ रहा है कि अभी तक न तो बच्चों को टीका लगना शुरू हुआ है और न ही यह पता है कि कब तक विद्यालय जाने वाले सभी बच्चों को टीका लगाने का कार्यक्रम पूरा हो सकेगा। पहले ही अलग-अलग आशंकाएँ सुनी जा चुकी हैं कि तीसरी लहर में बच्चों पर ज़्यादा बुरा असर पड़ सकता है। इसीलिए बच्चों को विद्यालय भेजने के विरुद्ध कई बड़े प्रश्न उठ रहे हैं। पहला सबसे बड़ा प्रश्न है कि अगर इतने समय से बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं तो तकनीक का सदुपयोग करके कुछ और समय तक बच्चे घर से ही पढ़ाई क्यों न करें। दूसरा बड़ा प्रश्न है कि जब तीसरी लहर की आशंका है तो अनजाने वायरस के सामने बिना टीकाकरण के बच्चों को विद्यालय भेजने का ख़तरा क्यों उठाना चाहिए। तीसरा बड़ा प्रश्न या कहें साजिशी सिद्धान्त आता है कि छोटे बच्चों के लिए भी विद्यालय खोलने के पीछे शिक्षा माफ़िया काम कर रहा है। ऐसे साजिशी सिद्धान्त के पक्ष में तर्क देने वाले कह रहे हैं कि देश में निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे विद्यालय नहीं जा रहे हैं और कई निजी विद्यालयों को बंद भी करना पड़ा है, इसीलिए सरकारों पर दबाव है कि विद्यालय जल्द से जल्द खोले जाएँ।

यह तीनों प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और इस पर विस्तार से चर्चा करके उसका सही पक्ष लोगों के सामने लाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि छोटे बच्चों से जुड़े होने की वजह से यह मसला अतिसंवेदनशील हो जाता है। सबसे पहले तकनीक के होते हुए बच्चों को विद्यालय भेजकर ख़तरे में डालने वाले तर्क की ही बात करते हैं। तकनीक आधुनिक समय में सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं हर कार्य को आसान करने का माध्यम बन गई है और वायरस के दुष्प्रभाव से पहले ही भारत में डिजिटल लर्निंग कारोबार तेज़ी से बढ़ रहा था। ऑनलाइन माध्यमों के ज़रिये विभिन्न तरह के आकर्षक, रुचिकर पाठ्यक्रमों के ज़रिये बच्चों को तेजी से सिखाने के लिए कई नये स्टार्टअप भी इसमें आगे आए हैं। विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों को अलग तरीक़े से सिखाने के लिए और 24 घंटे में कभी भी सीखने के लिए पाठ्यक्रम को रोचक तरीक़े से प्रस्तुत करने वाले मंचों को तेज़ी से मान्यता मिली रही थी और उसी दौरान वायरस के दुष्प्रभाव में विद्यालय बंद हो गए तो ऑनलाइन पढ़ाई वैकल्पिक से बाध्यकारी बन गई। बड़ी कारोबारी बैठकों और वाीडियो कॉल के ज़रिये होने वाली बातचीत में शिक्षा का नया आयाम जुड़ा तो ढेरों कंपनियों ने एक मोबाइल, कंप्यूटर, टैबलेट और लैपटॉप पर पूरी कक्षा को समेट दिया। कहा जा सकता है कि तकनीक ने बच्चों को शिक्षा की आवश्यकता पूरी कर दी, लेकिन इसी के साथ तकनीक से जुड़ी हुई एक बड़ी मुश्किल भी है और वह मुश्किल है कि तकनीक भले ही सबको जोड़ने का काम कर रही है, लेकिन शुरुआती दौर में नई तकनीक का लाभ सुविधा संपन्न लोगों को ही मिल पाता है। और, ऑनलाइन कक्षाओं के मामले में भी यही हुआ है। निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले या सरकारी विद्यालयों में भी पढ़ने वाले सुविधा संपन्न बच्चे ही ऑनलाइन शिक्षा के ज़रिये अपनी पढ़ाई लगातार कर रहे हैं। यहाँ तक कि मेट्रो और उससे बाद के शहरों में निजी विद्यालयों के बच्चों के लिए भी ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर पाना लगभग असंभव हो गया और शिक्षा के ज़रिये मुख्यधारा में आने की कोशिश में लगे सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए वायरस के दुष्प्रभाव की वजह से विद्यालयों का बंद होना उनके भविष्य के लिए दिखने वाली उज्ज्वल किरण की रोशनी के बंद होने जैसा हो गया। क़स्बों और गाँवों के विद्यालयों पर तालाबंदी के साथ ही उन विद्यालयों के छात्रों की बेहतरी के रास्तों पर भी ताला बंद हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शुरुआती लक्ष्यों में हर गाँव में बिजली और अच्छी इंटरनेट सुविधा का लक्ष्य रखा है, लेकिन नियमित विद्युत आपूर्ति और निर्बाध शिक्षा योग्य इंटरनेट की सुविधा अभी देश भर में कितनी उपलब्ध है, इसके लिए NCERT का एक आँकड़ा देखना आवश्यक है। पिछले वर्ष हुए एनसीईआरटी के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि 27 प्रतिशत छात्रों के पास स्मार्टफ़ोन या कंप्यूटर, लैपटॉप नहीं है और 28 प्रतिशत छात्रों के यहाँ बिजली की नियमित आपूर्ति बड़ी समस्या है। और, इस आँकड़े को थोड़ा गहरे देखने से पता चलता है कि जिन छत्तीस हज़ार छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों और प्रधानाचार्यों से बातचीत की गई है, वह केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और सीबीएसई बोर्ड के विद्यालयों से जुड़े हुए हैं। गाँवों, क़स्बों और छोटे शहरों के सामान्य विद्यालयों, सरकारी और निजी दोनों, में तकनीक की पहुँच की कमी का आँकड़ा बहुत बड़ा हो जाता है। इसलिए तकनीक का उपयोग करके सुविधासंपन्न लोगों को फ़िलहाल शिक्षा मिल पा रही है, लेकिन शिक्षा के ज़रिये सभी को समान अवसर मिलने की मूल अवधारणा पर ही चोट हो रही है।

और, सिर्फ़ इतना भर नहीं है कि सुविधाहीन लोगों को ही तकनीकी शिक्षा का नुक़सान हो रहा है। सुविधासंपन्न बच्चे भी गणित और विज्ञान जैसे विषयों में मोबाइल या कंप्यूटर के ज़रिये चल रही कक्षा में ठीक से ध्यान नहीं लगा पाते हैं। परिवारों में हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में जिन परिवारों में सामान्य बात होती है, उन घरों के बच्चों तकनीकी तौर पर संपन्न होने पर भी अंग्रेज़ी भाषा में ठीक से कम समझ पाते हैं। पहले भी विद्यालय में एक कक्षा में अधिक बच्चे होने पर कुछ बच्चों के पीछे छूट जाने का ख़तरा बना रहता था, इसीलिए अच्छे विद्यालय शिक्षक-छात्र अनुपात को भी विद्यालय की गुणवत्ता में बताते थे, लेकिन मोबाइल, कंप्यूटर की खिड़की से झांकते बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता की बात ही होना बंद हो गई है। तकनीक ने यही कर दिया है कि कक्षाएँ चल रही हैं, कितने बच्चों को कक्षाएँ सिखा पा रही हैं, इस पर बड़े शोध की आवश्यकता है।

अब दूसरा बड़ा प्रश्न है कि जब तीसरी लहर की आशंका है तो फिर बिना टीके के बच्चों को विद्यालय भेजने का जोखिम क्यों उठाना चाहिए। और, इस प्रश्न का आते ही सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं कि क्या बिगड़ जाएगा, अगर कुछ दिन और विद्यालय नहीं जाएँगे। अब इसके लिए हमें सबसे पहले तो यही समझना है कि तीसरी लहर की आशंका भर है और दूसरी लहर के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वास्थ्य सुविधाओं के लिहाज़ से तैयारी दुरुस्त की है। साथ ही अगस्त महीने तक टीकाकरण का तय लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया। शिक्षकों को टीका लगाने में वरीयता दी जा रही है। बच्चों के विद्यालय जाने से बहुत पहले से शिक्षकों और विद्यालय में काम करने वाले दूसरे लोगों को विद्यालय बुलाया जाने लगा था, इसलिए स्वास्थ्यकर्मियों की तरह अधिकतर शिक्षाकर्मियों ने भी टीका लगवा लिया है। बच्चे अपने कामकाजी माता-पिता के साथ तो रह ही रहे हैं, अधिकतर बच्चे अपने-अपने मोहल्ले, सोसायटी, क़स्बे, गाँव में दूसरे बच्चों के साथ नियमित तौर पर खेलने के लिए बाहर भी जाने लगे हैं। केरल और महाराष्ट्र जैसे वायरस के मामले बढ़ने वाले राज्यों को अपवाद के तौर पर छोड़ दें तो अधिकतर राज्यों में वायरस पर लगभग पूर्ण नियंत्रण है। यही वजह रही कि कुछ ही दिन पहले देश के पर्यटक शहरों, स्थलों से भारी भीड़ के चित्र सामने आ रहे थे और इनमें परिवारों के साथ वही बच्चे शामिल थे, जिनके विद्यालय जाने पर रोक लगाने के लिए बच्चों का टीकाकरण न होने के तर्क दिए जा रहे हैं। वह सारी आशंकाएँ घर, परिवार, रिश्तेदारों के साथ, दूसरे बच्चों के साथ खेलने, बाज़ार घूमने, मॉल जाने में भी हैं।

अब तीसरा बड़ा प्रश्न या कहें साजिशी सिद्धान्त आता है कि छोटे बच्चों के लिए भी विद्यालय खोलने के पीछे शिक्षा माफ़िया काम कर रहा है, लेकिन इसे ठीक से समझने की आवश्यकता है। शिक्षा माफ़िया अलग-अलग तरह से काम करता है और उस पर अंकुश लगाने के लिए सरकारों को योजना बद्ध और चरणबद्ध तरीक़े से काम करना होगा, लेकिन क्या बच्चों को विद्यालयों से दूर रखकर शिक्षा माफ़िया को कमजोर किया जा सकता है या उन पर रोक लगाई जा सकती है। जिन विद्यालयों में ऑनलाइन कक्षाएँ चल रही हैं, उन्होंने फ़ीस में शायद ही फ़ीस में कोई कमी की हो। हाँ, कुछ सरकारों के दबाव में फ़ीस बढ़ाई नहीं और जहां ऑनलाइन कक्षाएँ नहीं चलीं, वहाँ अभिभावकों ने फ़ीस दी भी नहीं है। इसलिए विद्यालय खोलकर बच्चों से फ़ीस वसूलने की निजी विद्यालयों की साज़िश का सिद्धांत भी यहाँ काम नहीं करता है बल्कि विद्यालय न खुलने से कई विद्यालय बच्चों से तो पूरी फ़ीस वसूल रहे हैं, लेकिन अध्यापकों को घर से ऑनलाइन कक्षा लेने की बात कहकर शिक्षकों के वेतन में कटौती कर रखी है। और, छोटे शहरों, क़स्बों, गाँवों में तो निजी विद्यालय लगभग बंद ही हो गए हैं। इससे छात्रों, शिक्षकों और पूरे समाज का अहित हो रहा है, सिर्फ़ विद्यालय चलाने वाले का नुक़सान नहीं है। और, ऐसा मान सकते हैं कि बच्चों का विद्यालय खोलने में कुछ हद तक अर्थशास्त्र की भूमिका है, लेकिन बच्चे अब घर में तो बैठे नहीं हैं। सिर्फ कक्षाएँ ऑनलाइन रह गई हैं। ऐसे में विद्यालय खुलना आवश्यक है और तीसरी लहर की आशंका से निपटने की तैयारी की जाए, बच्चों को कब तक विद्यालय से दूर रखा जाए। मन मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। विद्यालय में अलग-अलग पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ एक साथ बैठकर पढ़ने से बच्चों को बेहतर सीख, अलग-अलग तरीक़े से एक ही समस्या का समाधान निकालने की समझ के साथ सामाजिक समझ भी विकसित होती जाती है। एक मोबाइल, कंप्यूटर की स्क्रीन पर छोटी-छोटी खिड़कियों से झांकते बच्चे खुले आसमान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। देश के भविष्य का प्रश्न है। वायरस के दुष्प्रभाव के शोध में अधिकतर वैज्ञानिक, विशेषज्ञ बता रहे हैं कि बच्चों में इससे लड़ने की बेहतर क्षमता है और वयस्कों के टीकाकरण ने संपर्क में आकर वायरस फैलने के दुष्प्रभाव को काफ़ी हद तक कम किया है। 12-18 वर्ष के बच्चों के टीके के लिए जाइडस के जाइकोविड को स्वीकृति मिल चुकी है और 2-17 वर्ष के बच्चों के लिए दूसरे-तीसरे चरण के ट्रायल के लिए बच्चों को चयनित भी किया जा रहा है। एहतियात के साथ विद्यालय खोलते हुए सरकार, निजी और सरकारी विद्यालयों को ही बच्चों के टीकाकरण स्थल में बदल सकती है। इससे दो लाभ होंगे। पहला- बच्चों को टीका लगवाने के लिए उनके माता-पिता या किसी अभिभावक को साथ जाने की आवश्यकता नहीं होगी और विद्यालय के साफ-सुथरे, स्वस्थ वातावरण में बच्चों को आसानी से टीका लग सकेगा। दूसरा- कमजोर वर्ग के सुविधाहीन बच्चों को विद्यालय में लाने की वजह भी बन जाएगा और, इसके लिए भी से सभी सरकारी और निजी विद्यालयों के बच्चों का पंजीकरण किया जा सकता है। इससे टीके की माँग और और आपूर्ति का संतुलन भी बनाए रखा जा सकता है। कुल मिलाकर बच्चों की शिक्षा और देश के भविष्य के लिए विद्यालय में बच्चों का पढ़ने जाना अतिआवश्यक है और इस अनजान वायरस से पूरी सावधानी भी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक डॉक्टर सौम्या विश्वनाथन के मुताबिक़, यह वायरस भारत में एंडेमिक अवस्था में चला गया है, जिसका मतलब हुआ कि यह फ़िलहाल जाने वाला नहीं है, लेकिन इसकी तीव्रता कम रह जाएगी। इसलिए हमें और हमारे देश के भविष्य बच्चों को भी वायरस के साथ मज़बूती से रहना सीखना होगा।


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