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संसद में सवालों से क्यों डर रही है मोदी सरकार?

Shiv Kumar Mishra
3 Sept 2020 1:57 PM IST
संसद में सवालों से क्यों डर रही है मोदी सरकार?
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लगातार चकमराती अर्थव्यव्सथा और राज्यों के साथ जीएसटी से आने वाले राजस्व को लेकर चल रही ख़ींचतान जैसे मुद्दों पर सरकार घिरी हुई है।

यूसुफ़ अंसारी

संसद का मॉनसून सत्र 14 सितंबर से शुरु से रहा है। यह सत्र पहली अक्टूबर तकलगातार चलेगा। शनिवार और रविवार को भी छुट्टी नहीं होगी। दोनों सदनों की कार्यवाही रोज़ाना चार घंटे चलेगी। पहले दिन दोनों सदनों की कार्यवाही सुबह 9 बजे से दोपहर एक बजे तक चलेगी। उसके बाद राज्यसभा की कार्यवाही तो इसी वक़्त चलेगी जबकि लोकसभा की कार्यवाही दोपहर बाद तीन बजे से शाम सात बजे तक चलेगी।

ख़ास बात यह है कि इस बार संसद में प्रश्नकाल नहीं होगा। इसके इलावा सासंदों को निजी यानि ग़ैर सरकारी विधेयक पेश करने की भी इजाज़त नहीं होगी। अलबत्ता सांसद शून्य काल में अपने क्षेत्र से जुड़ी समस्याएं और अन्य जनहित के मुद्दे उठाकर सरकार की ध्यान खींच सकते हैं। पूरे सत्र के दौरान के प्रशनकाल को स्थगित रखने को सरकार के फ़ैसले को लेकर गंभीर सवाल उठे। विपक्ष ने सरकार से इस फ़ैसले पर पुनर्वाचार करने की मांग की।सरकार ने थोड़ी लचीला रुख़ अपनाते हुए इस तरह बीच का रास्ता निकाला कि सांपव भी मर जाए और लाढी भी न टूटे।

विपक्षी दलों के सख़्त एतराज़ के बाद मोदी सरकार संसद में सांसदो के सवालों के लिखित जवाब देने को तो राज़ी हो गई। लेकिन मौखिक जवाबों के मसले पर वो टस ले मस नहीं हुई। देर शाम संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी ने बताया कि उन्होंने संसदीय कार्य राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल औरवी मुरलीधरन के साथ मिलकर इस बारे में प्रत्येक पार्टी से बातचीत की है। टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन को छोड़कर सभी ने प्रश्नकाल को रद्द करने के लिए सहमति व्यक्त की है। हालांकि इसके बाद अतारांकित यानि सवालों के लिखित में जवाब देने पर सहमति बन गई है।

कोरोना काल में सरकार और विपक्ष ने मिलकर पीच का रास्ता भले ही निकाल लिया हो। लेकिन इसफ़ैसले से ऐसा लग रहा है कि सरकार संसद में वालों का सामना करन से डर रही है। भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार प्रशनकाल को पूरे सत्र के दौरान स्थगित करने का फ़ैसला हुआ है। अभी तक जनहित या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े बहुत ही अहम मुद्दों पर चर्चा के लिए प्रश्नकाल को स्थगित करने की परंपरा रही है। आमतौर पर सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव आने पर या फिर सरकार की तरफ़ से विश्वास प्रस्ताव रखे जाने पर प्रश्नकाल स्थगित किया जाता है।

पहले सरकार के ख़िलाफ़ कामरोको प्रस्ताव लाने के समय अक्सर प्रशनकाल स्थगित कर कामरोको प्रस्ताव पर चर्चा होती थी। लेकिन लगभग सभी लोकसभा अध्यक्ष इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि किसी भी सूरत में प्रश्नकाल को स्थगित न किया जाए। जनहित के मुद्दे शून्यकाल में ही उठाए जाएं।संसदीय इतिहास में 1930 से ही इस पर राजनीतिक दलों के बाच आमसहमति रही है। क़रीब 12 साल पहले देशभर की विधान सभाओं के अध्यक्षों के दिल्ली में हुए अहम सम्मेलन में भी इसी पर सहमनति बनी थी। संसद और विधानसभओं के पीठासीन अधिकारियों की सालाना बैठक में भी इस पर ज़ोर रहता है।

अगर इस आम सहमति और बरसों पुरानी संसदीय परंपरा को तोड़ते हुए मोदी सरकार संसद सत्र के दौरान प्रश्नकाल पर ग्रहण लगाती है तो सवाल उठने लाज़िमी हैं। सवाल उठ भी रहे हैं। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को चिट्ठी लिखकर प्रश्नकाल को बहाल करने की मांग की है। वहीं राज्यसभा में विपक्ष वके नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडु को चिट्ठी लिख कर यही मांग की है। वहीं पिछली लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी सरकार के इस फ़ैसले की आलोचना की है।

सबसे ज़्यादा ज़ोरदार हमला शशि थरूर ने बोला। दो ट्वीट के ज़रिए शशि थरूर ने कहा है कि हमें सुरक्षित रखने के नाम पर ये सब किया जा रहा है।उन्होंने लिखा है, "मैंने चार महीने पहले ही कहा था कि ताक़तवर नेता कोरोना का सहारा लेकर लोकतंत्र और विरोध की आवाज़ दबाने की कोशिश करेंगे। संसद सत्र का जो नोटिफ़िकेशन आया है उसमें लिखा है कि प्रश्न काल नहीं होगा। हमें सुरक्षित रखने के नाम पर इसे सही नहीं ठहराया जा सकता।"

अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा है कि सरकार से सवाल पूछना, लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ऑक्सीजन के समान होता है। ये सरकार संसद को एक नोटिस बोर्ड में तब्दील कर देना चाहती है। अपने बहुमत को वो एक रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, ताकि जो बिल हो वो अपने हिसाब से पास करा सकें।सरकार की जवाबदेही साबित करने के लिए एक ज़रिया था, सरकार ने उसे भी ख़त्म कर दिया है।'

तृणमूल साग्रेस भी इस मुद्दे पर मोदी सरकार के ख़िलाफ़ आक्रामक है। टीएमसी के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया है, "सांसदों को संसद सत्र में सवाल पूछने के लिए 15 दिन पहले ही सवाल भेजना पड़ता था। सत्र 14 सितंबर से शुरू हो रहा है। प्रश्न काल कैंसल कर दिया गया है? विपक्ष अब सरकार से सवाल भी नहीं पूछ सकता।1950 के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है? वैसे तो संसद का सत्र जितने घंटे चलना चाहिए उतने ही घंटे चल रहा है, तो फिर प्रश्न काल क्यों कैंसल किया गया? कोरोना का हवाला दे कर लोकतंत्र की हत्या की जा रही है।"

एक न्यूज़ पोर्टल के लिए लिखे लेख में डेरेक ओ ब्रायन ने लिखा है- "संसद सत्र के कुल समय में 50 फ़ीसदी समय सत्ता पक्ष का होता है और 50 फ़ीसदी समय विपक्ष का होता है। लेकिन बीजेपी इस संसद को 'एम एंड एस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी'में बदलना चाहती है। संसदीय परंपरा में वेस्टमिंस्टर मॉडल को ही सबके अच्छा मॉडल माना जाता है, उसमें कहा गया है कि संसद विपक्ष के लिए होता है।"

हालांकि वापमंथी दलों के सासंदों की संख्या संसद मे काफ़ी कम हैं। लेकिन प्रश्नकाल में उनकी सक्रियता सबसे ज़्यादा रहती है। प्रशनकाल स्थगित किए जाने पर वामदलों ने सख़्त एतराज़ जताया। सीपीआई के राज्यसभा सांसद बिनॉय विश्वम ने राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को चिट्ठी लिख कर अपनी आपत्ति दर्ज कराई।चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि प्रश्न काल और प्राइवेट मेम्बर बिज़नेस को ख़त्म करना बिल्कुल ग़लत है और इसे दोबारा से संसद की कार्यसूची में शामिल किया जाना चाहिए।

सरकार की तरफ से बेहद लचर दलील दी जा रही है। दलील य़े दी गई है कि प्रश्न काल के दौरान जिस भी विभाग से संबंधित प्रश्न पूछे जाएँगे, उनके संबंधित अधिकारी भी सदन में मौजूद होते हैं। मंत्रियों को ब्रीफ़िंग देने के लिए ये ज़रूरी होता है। इस वजह से सदन में एक समय में तय लोगों की संख्या बढ़ जाएगी, जिससे भीड़ भाड़ बढ़ने का ख़तरा भी रहेगा। ऐसे में कोरोना के प्रोटोकॉल के मुताबि उचित सामाजिक दूरी बनाए रखना भी संभव नहीं होगा। इसीलिए सरकार लिखित जवाब देने पर ही राज़ी हुईन है।

दरअसल सरकार कोरोना काल में चौतरफ़ा सवालों से घिरी है। विपक्ष हमलावर है। कोरोना से निपटने में सरकार की नाकामी को लेकर उसकी तैयारियों और नीयत पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। कोरोना से निपटने के नाम पर बनाए गए पीएम केयर्स फंडको लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं। लद्दाख में पिछले दो महीनों से चीन के साथ तनाव बना हुआ है। हमारे 20 से ज़्याद सैनिक शहीद हुए है। चीनी घुसपैठ पर सरकार संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रही। लगातार चकमराती अर्थव्यव्सथा और राज्यों के साथ जीएसटी से आने वाले राजस्व को लेकर चल रही ख़ींचतान जैसे मुद्दों पर सरकार घिरी हुई है।

इन सवालों को सरकार लगातार टालती आ रही है। अगर संसद में प्रश्नकाल होता है तो इनसे जुड़े सवालों को टालना सरकार के लिए नामुमकिन होगा। यह माना जा रही है कि उन्हीं मुद्दों पर सवालों को टालने के लिए सरकार के इशारे पर संसद सत्र की कार्यवाही से प्रश्नकाल को बाहर रखा गयी है। संसद के दोनों सदनो में हर रोज़ प्रश्नकाल के दौरान 20 मौखिक सवालों के जवाब विभिन्न मंत्रियों को देने होते हैं। कई बार सवाल-जवाब को दौरान सांसदों और मंत्रियों के बीच तीखी झड़प तक हो जाती है। इनके अलावा बड़ी संख्या में लिखित सवालों के जवाब भी दिए जाते हैं।

दरअसल इस सत्र में सरकार अपने बेहद अहम 11 विधेयक पास कराना चाहती है। इनमें के कई विधेयक पिछले संसद सत्र के बाद जारी किए गए अध्यादेशों की जगह लागू होंगे।इन्हें पास कराना बेहद ज़रूरी है। सरकार के पास लोक सभा में प्रचंमड बहुमत है लिहाज़ा उसे विधेयक पास कराने में दिक़्क़त नहीं है। राज्सभा में भी उसे विधेयक पास कराने की कला ख़ूब आती है। तीन तलाक़, यूएपीए, और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के मामले में वो ये कमाल दिखा चुकी है।

सरकार संसद के दौरान अपने विधायी कामकाज तो निपटा लेना चाहती है लेकिन वो विपक्ष को उसके सवालों का जवाब देना नहीं चाहती। सरकार के पास अगर छिपाने को कुछ नहीं है तको संसद में उसे सवालों से डरना नहीं चाहिए। प्रश्नकाल में सांसदों के सवालों का सामना करना चाहिए। अगर सरकार प्रश्नकाल का सामना करने करी हिम्मत नहीं दिखाती तो यही माना जाना जाएगा कि वो संसद सें सवालों से डर रह है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है।

साभार सत्य हिंदी. कॉम

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