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दीवार पर लिखी इबारत को पढने में मोदी-शाह को हिचक क्यों ?
2019 के चुनाव को लेकर सत्ता के सामने सवाल दो ही है। पहला , ग्रामीण भारत की मुश्किलो को साधा कैसे जाये। दूसरा, अयोध्या में राममंदिर पर निर्णय लिया क्या जाये। और संयोग से जो रास्ता मोदी ने पकडा है वह उस वक्त भी साफ मैसेज दे नहीं रहा है जब आम चुनाव के नोटिफेकिशन में सौ दिन से भी कम का वक्त बचा है। ग्रामिण भारत को राहत देने के लिये तीन लाख करोड की व्यवस्था रिजर्व बैक से की तो जा रही है लेकिन राहत पहुंचेगी कैसे। और राहत देने के जो माप-दंड मोदी सत्ता ने ही जमीन की माप से लेकर फसल तक को लेकर की है उसके डाटा तक सरकार के पास है नहीं तो तीन लाख करोड का वितरण होगा कैसे कोई नहीं जानता। यानी अंतरिम बजट में अगर मोदी सत्ता एलान भी कर देती है कि खाते में रुपया पहुंच जायेगा तो भी सिस्टम इस बात की इजाजत नहीं देता कि वाकई एलान लागू हो जायेगा। यानी चाह अनचाहे बजट में सुविधाओ की पोटली एक और जुमले में समा जायेगीा। तो दूसरी तरफ राम मंदिर निर्माण पर जब मोदी ने अपने इंटरव्यू में साफ कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही कोई निर्णय होगा तो उसके मर्म में दो ही संकेत दिखायी दिये। पहला, विहिप, बंजरंग दल या कट्टर हिन्दुवादी ताकतो को राज्य सत्ता की खुली छूट है लेकिन राम मंदिर निर्माण में कानून का राज चलेगा। दूसरा , भीडतंत्र या कट्टरता को राज्यसत्ता तभी तक सहुलियत देगी जब तक कानून का राज खत्म होने की बात खुले तौर पर उभरने ना लगे। यानी लकीर धुंधली है कि जो मोदी सत्ता को अपनी सत्ता मानकर कुछ भी करने पर आमादा है वह संभल जाये या फिर चुनाव तक संभल कर भीडतंत्र वाला रवैया अखतियार करें। तो क्या अंधेरा इतना घना हो चला है कि मोदी अब इस पार या उस पार पर भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है।
जाहिर है यही से मोदी सत्ता को लेकर बीजेपी के भीतर भी अब नये सवाल खडे हो चले है जिसके संकेत नीतिन गडकरी दे रहे है। हालाकि गडकरी के पीछे सरसंघचालक मोहन भागवत की शह है इसे हर कोई नागपुर कनेक्शन से जोड कर समझ तो रहा है लेकिन गडकरी के पास भी जीत का कोई तुरुप का पत्ता है नहीं, सभी समझ इसे भी रहे है। इसलिये तत्काल में बीजेपी के भीतर से कोई बडा बवंडर उठेगा ऐसा भी नहीं है लेकिन चुनाव तक ये बंवडर उठेगा ही नहीं ऐसा भी नहीं है। और बीजेपी टूट की तरफ बढ जायेगी। संघ किसी बडे बदलाव के लिये कदम उठाएगा। या मोदी -शाह की जोडी सिमट जायेगी। ये ऐसे सवाल है जिसका उतर बीजेपी संभाले अमित शाह और सरकार चलाते नरेन्द्र मोदी के उठाये कदमो से ही मिल सकता है। और दोनो के ही कदम बीजेपी और संघ परिवार को बीते चार बरस से ये भरोसा जताकर उठाये जाते रहे कि उनके ना खत्म होने वाले अच्छे दिन अब आ गये। या अच्छे दिन तभी तक बरकरार रहेगें जब तक मोदी-शाह की जोडी काम कर रही है। ध्यान दें तो इस दौर में ना तो बीजेपी के भीतर से कभी कोई ऐसी पहल हुई जिसमें अमित शाह निशाने पर आ गये हो या मोदी के गवर्नेंस को लेकर कोई सवाल संघ या सरकार के भीतर से उठा। और यूपी चुनाव में जीत तक वाकई सबकुछ अच्छे दिन वाला ही रहा।
पर यूपी में सीएम और डिप्टी सीएम की लोकसभा सीट पर हुये उपचुनाव की हार के बाद कर्नाटक में हार और गुजरात में 99 सीटो की जीत ने कुछ सवाल जरुर उठा दिये लेकिन बीजेपी - संघ परिवार के भीतर अच्चे दिन है.... जो बरकरार रहेगें की गूंज बरकरार रही। लेकिन जिस तरह तीन राज्यो में हार को एंटी इनकंबेसी और तेलगना-मणीपुर को क्षेत्रिय दलो की जीत बताकर मोदी-शाह की जोडी ने आगे भी अच्छे दिनो के ख्वाब को संजोया या कहे बीजेपी-संघ परिवार को दिखाना चाहा उसमें पहली बार घबराहट सरकार-पार्टी-संघ परिवार तीनो जगह दिखायी देने लगी। गडकरी ने अगर हार की जिम्मेदारी ना लेने के सवाल उठाये तो मोहन भागवत ने 2019 में प्रधानमंत्री कौन होगा पर ही सवालिया निशान लगा दिया। बीजेपी सांसदो के सुर अपने अपने क्षेत्रानुकुल हो गये। किसी को लगा राम मंदिर पर विधेयक लाना जरुरी है तो किसी को लगा दलित मुद्दे पर बहुत झुकना ठीक नहीं तो किसी ने माना गठबंधन के लिये सहयोगी दलो के सामने नतमस्तक होना ठीक नहीं। और असर इसी का रहा कि एक तरफ अपनी कमजोरी छुपाने के लिये बीजेपी ने गठबंधन को महत्व देना शुरु कर दिया तो दूसरी तरफ मोदी सत्ता ने अतित के हालातो को वर्तमान से जोडने की कोशिश की।
मसलन बिहार में पासवान की पार्टी एक भी सीट जीत पायेगी नहीं पर छह सीटे पासवान को दे दी गई। जिससे मैसेज यही जाये कि साथी साथ नहीं छोड रहे है बल्येकि सिर्फ सीटो के समझौते का संकट है। यानी बीजेपी के साथ सभी जुडे रहना चाहते है ये परसेप्शन बरकरार रखने की कोशिशे शुरु हो गई। लेकिन इसी के सामानातंर विपक्ष के महागठंबधन को जनता के खिलाफ बताकर खुद को जनता बताने की भी कोशिश मोदी-शाह ने शुरु की। लेकिन इस पहल से कही ज्यादा घातक अतित के हालातो को नये हालातो पर हावी करने की सोच रही। जैसे तेजस्वी यादव के बाल्यकाल के वक्त हुये लालू के घोटालो में तेजस्वी यादव को ही आरोपी बनाया गया। इसी तरह राहुल गांधी भी बोफोर्स और इमरजेन्सी के कटघरे में खडे किये गये। ध्यान दें तो जो छल गरीब किसान मजदूर का मुखौटा लगाकर कारपोरेट के हित साधने वाली नीतियो तले आम जनता से हुआ। कुछ इसी अंदाज में विपक्ष की सियासत को साधने के लिये अतीत के सवाल उठाये जा रहे है। यानी चाहे अनचाहे मोदी-शाह की थ्योरी तले एक थ्योरी जनता में भी बन रही है कि आज नहीं तो कल उनका नंबर आ जायेगा। जहा सत्ता उनसे छल करेगी। यानी खुद की कमजोरी छुपाने के लिये उटाये जाते कदम ही विपक्ष की कतार को कैसे बडा कर रहे है ये तीन राज्यो के जनादेश में झलका। और यही हालात 2019 के जनादेश में छिपा हुआ है। क्योकि पन्ना प्रमुख से लेकर बूथ पर कार्यक्ताओ की फौज को लगने की कमर्ठता वामपंथी रणनीति की तर्ज पर बीजेपी ने अपनाया। फिर 10 करोड से ज्यादा सदस्य बोजेपी से जुडने और तमाम तकनीकी जानकारी के साथ सत्ता भी हाथ में होने के बावजूद अगर बीजेपी तीन राज्हायो में हार गई तो मतलब साफ है कि मोदी सत्ता ने समाज के किसी समुदाय को अपना नहीं बनाया। हर समुदाय को अच्छे दिन के सपने दिखाये गये। लेकिन हर किसी ने खुद को छला हुआ पाया। तो पार्टी चलाने का वृहत इन्फ्रसट्रक्चर हो या सत्ता के पास अकूत ताकत।
जब जनता ही साथ जोडी नहीं गई तो फिर ये सब कैसे और कबतक टिकेगा। यानी सवाल ये नहीं है कि जातिय समीकऱण में कौन किसके साथ साथ होगा। या राजनीतिक बिसात पर महागठबंधन की काट के लिये बीजेपी के पास सोशल इंजिनियरिंग का फार्मूला है। दरअसल साढे चार बरस में नीतियो के एलान तले अगर जनता का पेट खाली है। हथेली में रोजगार नहीं है तो फिर मुद्दा जातिय या धर्म या पार्टी के सांगठनिक स्ट्रक्चर को नहीं देखेगी। ये एहसास अब बीजेपी और संघ परिवार में भी हो चला है। तो आखरी सच यह भी है कि मोदी-शाह की जोडी सत्ता-पार्टी पर नकेल ढिला करेगी नहीं। और बाहर से उठी कोई भी आवाज बीजेपी की टूट की तरफ बढेगी ही। और 2018 में चुनावी हार के बाद जो इबारत मोदी-शाह पढ नहीं पाये 2019 में तो दीवार पर किसी साफ इबारत की तरह वह लिखी दिखायी देनी लगी है। अब कोई ना पढे तो कोई क्या करें।
लेखक देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार है