राष्ट्रीय

प्रशान्त भूषण अपराधी करार दिए जा चुके हैं, बीस अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जानी है, किंतु मुझे 'वे जज साहब' याद आ रहे हैं!

Shiv Kumar Mishra
19 Aug 2020 8:12 PM IST
प्रशान्त भूषण अपराधी करार दिए जा चुके हैं, बीस अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जानी है, किंतु मुझे वे जज साहब याद आ रहे हैं!
x
नये आए ये जज साहब वक्त के बड़े पाबन्द थे। कोर्ट की घड़ी उनसे अपने काँटे मिलानेे लगी थी। ये जज साहब मामले निपटाने में विश्वास करते थे।

विष्णु बैरागी जी की कलम से

ख्यात वकील प्रशान्त भूषण के बरसों पुराने ट्वीट को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जो सख्ती दिखा रहे हैं उसे देख-देख कर मुझे मेरे पैतृक नगर मनासा में पदस्थ रहे एक जज साहब बहुत याद आ रहे हैं। बात मेरे स्कूली दिनों की है। मैंने 1964 में हायार सेकेण्डरी पास की थी। उसके बाद से मैंने मनासा छोड़ दिया। इसलिए, बात 1964 या उससे पहले की ही है।

तब मनासा की आबादी दस-बारह हजार रही होगी। थानेदार, तहसीलदार, जज और सरकारी अस्पताल के डॉक्टर 'बड़े अफसर' हुआ करते थे। जज साहब याने प्रथम श्रेणी न्यायाधीश जिन्हें रौबदार अंग्रेजी में एमएफसी (मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास) पुकारा जाता था। तबादले पर एक जज साहब मनासा आए। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, उनका नाम एल. के. सिंह था। कुछ वकील उन्हें सिंह साहब तो कुछ लाल साहब कहते थे।

जज साहब अकेले नहीं आए थे। अपने साथ भूचाल लाए थे। उनकी कार्यशैली ने पूरी मनासा तहसील की जमीन थर्रा दी। वकीलों में हड़कम्प मच गया। उनकी आलमारियों में बन्द, लाल-काली जिल्ददार किताबों के दिन फिर गए। वकीलों के मुंशियों का अलालपना झड़ गया। जज साहब ने वह सक्रियता और तेजी बरती कि बार रूम में कोहराम मच गया। ज्ञान और अनुभव के दम पर काम करनेवाले 'व्यवसायियों' (जिन्हें आप-हम 'प्रोफेशनल' कहते हैं) को तो उन्नीस-बीस का ही फरक पड़ा किन्तु तारीखें बढ़वाने और जमानत करवानेवाले 'व्यापारियों' (कमर्शियल) पर आफत आ गई। नए जज साहब का असर यह रहा कि ऐसे लोगों को अपने काले कोट का मान रखने के लिए मजबूरन वकील बनना ही पड़ा। और रहे कर्मचारी! तो उनकी तो मानो शामत ही आ गई। एक महीना बीतते-बीतते उन्हें अपना पारिवारिक बजट पुनर्नियोजित करने की नौबत आ गई।

नये आए ये जज साहब वक्त के बड़े पाबन्द थे। कोर्ट की घड़ी उनसे अपने काँटे मिलानेे लगी थी। ये जज साहब मामले निपटाने में विश्वास करते थे। कोई मामला सामने आया नहीं कि अगली सुनवाई के लिए दो दिन बाद की तारीख दे दी। वकीलों ने रियायत माँगी तो जवाब मिला - 'आपका-हमारा यही तो काम है! काम अपने को ही निपटाना है। और फिर, तैयारी केवल आपको थोड़े ही करनी है! मुझे भी तो तैयारी करनी पड़ेगी। आपको तो अपने-अपने मुवक्किल की ही तैयारी करनी है। लेकिन मुझे तो आप दोनों के कागज देखने हैं। मुझे तो आपसे दुगुना काम करना पड़ेगा! जब मैं कर सकता हूँ तो आप तो ज्यादा आसानी से कर सकते हैं। तारीख नहीं बढ़ेगी। परसों मिलते हैं।' वकीलों के पास कोई जवाब नहीं होता।

कोर्ट-कचहरी के जगजाहिर दलाल भी परेशान हो गए। उन्हें 'सेट' करने की हलकी सी गुंजाइश भी नहीं मिल रही थी। जज साहब की सामाजिकता अपनी कोर्ट और बंगले पर तैनात कर्मचारियों तक सीमित थी। वे कस्बे में किसी से मिलने नहीं जाते न ही किसी से अपने बंगले पर मिलते। कहीं से किसी आयोजन-समारोह का न्यौता आता तो विनम्रतापूर्वक, हाथ जोड़कर क्षमा माँग लेते। ईश्वर और पूजा-पाठ में भरपूर आस्था थी लेकिन सब कुछ अपने घर पर ही। कस्बे के किसी मन्दिर में जाते कभी नजर नहीं आए न ही घर पर कभी कोई कथा-कीर्तन, भजन-पूजन करवाया। कोर्ट और घर ही उनकी दुनिया थे। ईमानदारी का आलम यह कि यदि ईश्वर साँसों का कोटा निर्धारित करता तो जज साहब अपने कोटे से अधिक एक साँस भी न लें।

जज साहब के इस रवैये का असर भरपूर पड़ा। डेड़ बरस बीतते-बीतते हाल यह हो गया कि कोर्ट के रेकार्ड रूम की जिन फाइलों पर धूल की परतें जम गई थीं, जिनका रंग ही धूल जैसा हो गया था, जिन्हें झाड़ने पर भी धूल झड़ती नहीं थी, जिनके पन्ने पूरे कमरे में पसरे हुए थे, वे लगभग सारी फाइलें निपट कर लाल बस्तों में बँध गईं। रेकार्ड रूम में छाई सीलन की गन्ध को मानो देश निकाला दे दिया गया। पूरा कमरा नए-नकोर लाल बस्तों से सज गया। तीन-तीन पीढ़ियों के मुकदमे निपट गए। अब जज साहब के इजलास में सबसे पुराना मामला छह महीने पहले का था।

जज साहब पूरे तहसील इलाके पर छा गए थे। लोग भरे मन और खुले दिल से जज साहब को दुआएँ दे रहे थे - बरसों-बरसों से कोर्ट के चक्कर जो काट रहे थे! कोर्ट और तहसील एक ही परिसर में लगती थी। तहसील दफ्तर की एक बगल में कोर्ट और दूसरी बगल में बार रूम। बार रूम के पास बनी, चाय की जिस दुकान पर कुर्सियाँ कम और बेन्चें संँकरी पड़ती थीं, वहाँ अब गिनती के ग्राहक नजर आते थे। 'चाय-पानी' अब खुद चाय-पानी को तरसते लगने लगे थे।

जज साहब की वजह से लोगों में जय-जयकार और धन्धेबाजों में हा-हाकार छाया हुआ था। लोग दुआएँ कर रहे थे कि जज साहब मनासा से ही रिटायर हों जबकि परेशान प्राणियों के जत्थे रोज सामूहिक अरदास करते थे कि जज साहब से फौरन मुक्ति मिले।

किसी को पता नहीं कि इन दुआओं और प्रार्थना का असर हुआ या नहीं। तयशुदा प्रक्रिया के अधीन, निर्धारित समयावधि के बाद जज साहब का तबादला होना ही था। हो गया। पूरे तहसील इलाके में 'कहीं खुशी, कहीं गम' से तनिक हटकर 'गम ज्यादा, खुशी कम' का माहौल था। देहातों में तो मानो जवान मौत की खबर पहुँची हो।

जज साहब जिस तरह चुपचाप आये थे, उसी तरह चुपचाप चले गए। उन्होंने औपचारिक विदाई समारोह भी कबूल नहीं किया। न उनके आने पर पटाखे फूटे न जाने पर ढोल बजे। लेकिन जाने के बाद भी वे बरसों तक मनासा में बने रहे। ईमानदारी, समयबद्धता, हाथों-हाथ काम निपटाने, सबको एक नजर से देखने, एक जैसा व्यवहार करने की बात जब-जब भी होती, तब-तब जज साहब का जिक्र आता ही आता। इस सबके अलावा, चूँकि उनका तबादला 'काले-कोस' नहीं हुआ था, इसलिए गाहे-बगाहे उनके समाचार मिलते ही रहते थे। 'मनासा से जाने के बाद उनका रवैया क्या है?' इस जिज्ञासा के अधीन भी लोग उनके हालचाल तलाशते रहते थे। लेकिन कभी, कोई नया या चौकानेवाला समाचार नहीं मिला।

समय बीतने के साथ ही उनके बारे में बातें भी कम होने लगीं। उनके समाचार अब छठे-चौमासे आते थे। 'आँख ओट - पहाड़ ओट' की लोकोक्ति यूँ ही नहीं बनी। जज साहब अब किसी खास प्रसंग पर ही याद किए जाते थे।

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। एक खबर मिली कि अब वे अपने सेवाकाल की अन्तिम पदस्थापना पर हैं। संयोग ऐसा रहा कि मनासा का ही एक आदमी, किसी दूसरे सरकारी विभाग में उसी कस्बे में पदस्थ था। उसने जज साहब के बारे में खूब सुना था। सो, वह जिज्ञासा भाव से उनके बारे में जानता-सुनता रहता था। उसी ने एक दिन मनासा में वह जलजला पैदा कर दिया जैसा वे जज साहब अपने साथ लेकर मनासा में आए थे।

उसने खबर दी कि रिटायरमेण्ट से डेड़ महीना पहले वे जज साहब बर्खास्त कर दिए गए हैं। उन पर, पैसे लेकर फैसला लिखने का आरोप था जो प्रारम्भिक छानबीन में ही साबित हो गया वह भी दस्तावेजी सबूतों के दम पर।

उन जज साहब की अदालत में चल रहा एक मुकदमा अपने अन्तिम चरण में था। दोनों पक्षों की बहसें और परीक्षण-प्रति परीक्षण हो चुका था। फैसला सुनाया जाना था। लेकिन फैसला सुनाने से पहले ही जज साहब के घर छापा पड़ गया। शिकायत थी कि वे मोटी रकम लेकर अनुकूल फैसला सुनानेवाले हैं।

छापामार दल को बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मामले की फाइल घर में, जज साहब की टेबल पर ही रखी हुई थी। फाइल खोली तो उसमें मामले के दो फैसले लिखे हुए मिले - एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में। दोनों ही फैसले जज साहब की लिखावट में थे। जज साहब से मौके पर पूछताछ की गई तो पहली ही बार में उन्होंने अपना अपराध कबूल कर लिया। मामला इतना साफ, दो-टूक था कि जाँच के नाम पर खानापूर्ति ही बची थी। वह पूरी हुई और जज साहब, रिटायरमेण्ट से बालिश्त भर की दूरी पर बर्खास्त कर दिए गए।

जिस दिन खबर आई, उस दिन पूरे मनासा में और कोई बात सड़कों पर आई ही नहीं। उस दिन मैं संयोगवश मनासा में ही था। दादा जिन वकील साहब के यहाँ मुंशी थे, उन्हीं, मनासा के सबसे पुराने वकीलों में अग्रणी, दीर्घानुभवीे वकील, जमनालालजी जैन वकील साहब के यहाँ बैठा था। खबर सुन कर भी वे निर्विकार ही बने रहे। पूछने पर बोले - 'ताज्जुब मत करो। बुढ़ापे में आदमी लालची और डरपोक, दोनों हो जाता है। असुरक्षा भाव ने उन्हें लालची बना दिया। ऐसा किसी के भी साथ, कभी भी हो सकता है। वे अनोखे नहीं, अन्ततः एक सामान्य मनुष्य ही थे।'

प्रशान्त भूषणजी अपराधी करार दिए जा चुके हैं। कल, बीस अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जानी है। मुझे रह-रह कर 'वे जज साहब' याद आ रहे हैं। पता नहीं क्यों।

Next Story