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मांफी मंगवाने को व्याकुल सुप्रीमकोर्ट से प्रशांत भूषण ने फिर किया मना, सजा सुनाइये !
अनुपम
सुप्रीम कोर्ट में आज प्रशांत भूषण की सज़ा पर तीन घंटे सुनवाई चली। अदालत की अवमानना का आरोप उनपर 14 अगस्त को ही तय कर दिया गया था। इसके बाद 20 अगस्त को सज़ा पर सुनवाई हुई जिसमें प्रशांत भूषण अपने दोनों ट्वीट में कही गयी बात पर पूरी तरह कायम रहे। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की बेहतरी के लिए उन्होंने सकारात्मक आलोचना की है, किसी बदनीयती से नहीं। और इतिहास के इस मोड़ पर खुलकर सही बात कहना वो अपना नागरिक धर्म समझते हैं।
प्रशांत भूषण ने न्यायधीशों के समक्ष कहा कि वो उनसे दया याचना नहीं करेंगे और न ही बड़ा दिल दिखाने की अपील करेंगे। महात्मा गाँधी को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि अदालत जो भी सज़ा देगा उसे खुशी खुशी स्वीकार करेंगे।
लेकिन इसके बावजूद अदालत ने प्रशांत भूषण को बिना शर्त माफी मांगने के लिए 24 अगस्त तक का और समय दे दिया। जवाब में प्रशांत भूषण ने 24 अगस्त को फिर से बयान दिया कि इन बातों के लिए माफी मांगना उनकी 'अंतरात्मा से अवमानना' होगा।
इसी कॉन्टेक्स्ट में आज सुनवाई हुई जहाँ देश के अटॉर्नी जेनरल श्री के के वेणुगोपाल और प्रशांत भूषण के वकील श्री राजीव धवन को भी अदालत ने सुना। जस्टिस अरुण मिश्रा, जो 2 सितंबर को रिटायर होने वाले हैं, बार बार कहते रहे कि प्रशांत भूषण माफी मांगे। एटॉर्नी जेनरल और राजीव धवन ने कहा कि प्रशांत भूषण ने कोई नई बात नहीं कही है और ऐसा सुप्रीम कोर्ट के ही कई जजों तक ने कहा है। इसलिए अदालत को ज्यूडिशियल स्टेट्समैनशिप दिखाते हुए मामले को बंद कर देना चाहिए और प्रशांत भूषण को कोई सज़ा नहीं दी जानी चाहिए।
लेकिन पूरी सुनवाई के दौरान जस्टिस अरुण मिश्रा प्रशांत भूषण की माफी के लिए व्याकुल दिखे। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि माफी मांगकर प्रशांत भूषण महात्मा गाँधी की श्रेणी में आ जाएंगे। जबकि सच ये है कि गाँधी जी को कोट करते हुए ही तो प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से इनकार किया था। इस मामले में जिस आत्मबल के साथ प्रशांत भूषण ने स्टैंड लिया है वो गाँधी जी के सत्याग्रह का ही एक रूप है।
जस्टिस अरुण मिश्रा ने सुनवाई के दौरान कहा कि न्यायपालिका के अंदर की वो बहुत बातें जानते हैं, लेकिन एक दूसरे को बचाना चाहिए। मेरी ऐसे विचारों से घोर आपत्ति है क्योंकि ये सुनकर किसी भी नागरिक का सुप्रीम कोर्ट के प्रति विश्वास नहीं बढ़ेगा।
जस्टिस मिश्रा ने ये भी कहा कि आलोचनाओं से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन क्या हम मीडिया में जाकर आलोचना का जवाब दे सकते हैं। उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि वो जज रहते कभी मीडिया में नहीं गए। अब एक जज के नाते उनका मीडिया में न जाने की बात समझ में आती है। भले भूतपूर्व सीजेआई और राज्य सभा सांसद रंजन गोगोई शायद उनकी इस बात से सहमत न हों। लेकिन जस्टिस अरुण मिश्रा ने ये नहीं बताया कि हम जैसे नागरिकों को क्या करना चाहिए। क्या हम भी जजों या न्यायपालिका की आलोचना सिर्फ अपने घर की चारदीवारी में परिवार के बीच बैठकर करें?
भले प्रशांत भूषण ने अपने जवाब में कह दिया हो कि वो जज साहब से बड़ा दिल दिखाने की अपील नहीं करेंगे, लेकिन सुनवाई के दौरान तो ऐसा प्रतीत हुए जैसे जज साहब ही प्रशांत भूषण को बड़ा दिल दिखाकर माफी मांग लेने की अपील कर रहे हों। प्रशांत भूषण अपनी बातों पर कायम हैं और किसी भी सज़ा के लिए तैयार हैं। लेकिन अवमानना के इस मामले ने हमारे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को ज़रूर ठेस पहुंचाया है। मेरा मानना है कि अगर किसी ने अवमानना किया भी है तो उन्होंने जो देश की शीर्ष अदालत का बहुमूल्य समय आलोचना के दो ट्वीट पर मुकदमा चलाकर इस कदर खर्च कर रहे हैं।
सुनवाई के अंत में फिलहाल फैसला सुरक्षित रख लिया गया है। लेकिन सच बोलने की आज़ादी पर देश में आज एक बहस शुरू हो चुकी है। हमारे लोकतंत्र की स्थिति और उसमें न्यायपालिका की भूमिका पर हर तरफ चर्चा हो रही है। प्रशांत भूषण ने सच बोलने के लिए माफी न मांगकर भारत के करोड़ों नागरिकों को लोकतंत्र बचाने की लड़ाई में प्रेरणा और आत्मबल दिया है।
जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले में भूमिका अदा की उससे और कुछ हुआ चाहे न हुआ, लेकिन प्रशांत भूषण के आरोपों की पुष्टि ज़रूर हो रही है। अब मौका है कि देशभर के नागरिक एकजुट होकर संविधान के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताएं और भारतीय लोकतंत्र को और जीवंत बनाने के लिए आवाज़ बुलंद करें।
स्वराज इंडिया के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष है और छात्र जीवन से राजनीत में कार्य कर रहे है युवाओं की आवाज है लेखक अनुपम