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झटका खाकर भी पूण्यप्रसून बाजपेयी की कलम ने फिर उगला जहर, बोले अब तो जाग जाईये...वरना 23 मई के बाद लंबी नींद में सो जाना

झटका खाकर भी पूण्यप्रसून बाजपेयी की कलम ने फिर उगला जहर, बोले अब तो जाग जाईये...वरना 23 मई के बाद लंबी नींद में सो जाना
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जहा मोदी चुनाव हार चुके है और राहुल चुनाव जीत नहीं सकते। लेकिन हार - जीत जनता और वोटरो की ही होनी है।

जो पाठ मोदी एंड कंपनी काग्रेस के 70 बरस के नाम पर कर रही है। और अपने पांच बरस छुपा रही है। जो मंत्र इंदिरा के गरीबी हटाओ के नारे को जप कर बीजेपी अपने सच को छुपा रही है। यह संकेत है कि लोकतंत्र इतिहास दोहराने को तैयार है। यकीन मानिये भरोसा काग्रेस पर से भी टूटा और इदिरा से भी टूटा है और भरोसा मोदी से भी टूटेगा। लेकिन इतिहास के पन्नो को पलटने से पहले सोचना शुरु किजिये ऐसे जनतंत्र पर किसका भरोसा बचेगा जो सत्ता पाने के लिये आम वोटरो की त्रासदी को खेल बनाता हो।

इंदिरा का नारा गरीबी हटाओ। 1971 का चुनाव और इसी नारे के सहारे शोषित और उपेक्षित समाज की भावनाओ को उभारा गया। भाषण हो। पोस्टर हो। वादे हो। सबकुछ गरीबी हटाओ पर टिका। सत्ता मिली और जीत के तुरंत बाद पूंजीपतियो के संगठन में इंदिरा ने जो भाषण दिय वह उन नीतियो के ठीक उलट था जो गरीबी हटाओ के इर्द गिर्द ताना बाना बुने हुये था। और तब पहली बार चन्द्रशेखर ने ही सवाल उठाया कि अगर सरकार वादे पूरे नहीं करती। या फिर चुनावी नारो के जरीये लोगो की भवनाओ से खिलावड करती है तो फिर जनतंत्र से लोगो का भरोसा उठ जायेगा। ये बात चन्द्रशेखर ने "यंग इंडिया " के संपादकीय में लिखा था। लेकिन अब सोचना शुरु किजिये कि इंदिरा का तो एक ही नारा था। और आने वाले वक्त में मोदी को कैसे लोग याद करेगें...या फिर याद करने की नौबत ही नहीं आयेगी क्योकि 2014 में गरीब गुरबो की भावनाओ से जुडे नारो की भरमारे बाद सत्ता पाते ही जिस तरह मुकेश अंबानी के अस्पताल में प्रधानमंत्री मोदी अंबानी हो गये और उसके बाद लगातार देश में जिस तरह नीरव को मोदी होने पर गर्व होने लगा। चौकसी को मोदी के याराने पर गर्व होने लगा। कारपोरेट का खुला खेल चंद हथेलियो पर रेगंने लगा उसमें 2019 का चुनाव भरोसा जगाने वाला चुनाव है या टूट चुके भरोसे में भी जंनतंत्र की मातमपुर्सी करते विपक्ष की रुदन वाला चुनाव है। या फिर चुनाव सिर्फ एवीएम मशीन और पूंजी के पहाड तले अपराध-भ्रष्ट्राचार की चादर ओढ कर सिर्फ वोटो की गिनती तक के जुनुन को पालने वाला है।

कोई पैलेटिकल नैरेटिव जो बताता हो मई 2019 के बाद देश किस रास्ते जायेगा। कोई विजन जो समझा दें कि कैसे युवा हिन्दुस्तान सडक पर नहीं कल कारखानो या यूनिवर्सिटी या खेत खलिहानो में नजर आयेगा। कोई समझ जो बता दें मंडल- कमंडल और आर्थिक सुधार की उम्र पूरी होने के बाद भारतीय राजनीति को अब क्या चाहिये। या फिर राष्ट्रवाद या देशभक्ति तले सीमा पर जवानो की शहादत और देश के भीतर रायसिना हिल्स पर रौंदे जाते संविधान को ही मुद्दा बनाकर लोकतंत्र का नायाब पाठ याद करने का ही वक्त है। तो क्या लोकतंत्र-जंनतत्र अब सिर्फ शब्द भर है और इन शब्दो को परिभाषित करने की दिशा में देश की समूची पूंजी जा लगी है। और जो सत्ता के नयेपरिभाषा को याद कर बोलेगा नहीं वह कभी लिचिंग में। कभी लाइन में। कभी गौ वध के गुनहगार के तौर पर तो कभी भीड तले कुचल दिया जायेगा और कानून का राज सिर्फ यही संभालने में लग जायेगा कि कोई हत्यारा कही अपराधी ना करार दिया जाये। जब सबकुछ आंखो के सामने है तो फिर सोचना शुरु किजिये एक सौ तीस करोड के देश में । नब्बे करोड वोटरो के बीच। 29 राज्य और सात केन्द्र शासित राज्यो के बीच। देश के सामने 15 ऐसे नाम भी नहीं जो लोकतंत्र की तस्वीर लिये फिरते हो। मोदी-शाह , राहुल-प्रियका , मायावती-अखिलेश, नीतिश-लालू, ममता-चन्द्रबाबू , नवीन-स्टालिन , उद्दव-बादल और उसके बाद सांस फूलने लगेगी कि कौन सा नाम लें जो 2019 के चुनाव में अपनी सीट से इतर प्रभाव पैदा करने वाला है। या फिर लोकतंत्र को जिन्दा रख जनता को मौका दे दे कि जनतंत्र से भरोसा टूटना नहीं चाहिये । इस लोकतंत्र के हालात ठीक वैसे ही है जैसे बरसात में भीग चुके माचिस बेचने वाले के होते है। माचिस जला कर खुद मेंआग की तपन पैदा नहीं करेगा तो मौत हो जायेगी और तपन पैदा कर लेगा तो फिर भूख मिटाने के लिये माचिस बेच कर दो पैसे कमाने की स्थिति भी नहीं बचेगी।

तो क्या 2019 का चुनाव वाकई मोदी-राहुल। या सत्ता-विपक्ष के बीच का है या फिर जनता और वोटर के बीच 2019 का जनादेश आकर उलझ गया है। जहा मोदी चुनाव हार चुके है और राहुल चुनाव जीत नहीं सकते। लेकिन हार - जीत जनता और वोटरो की ही होनी है। वोटिंग का दिन। घंटे भर की कतार। फिर दो मिनट में एवीएम का बटन। और 19 मई तक हर वोटर जीत जायेगा । और 23 मई को जनता हार जायगी।

कल्पना किजिये या ना किजिये लेकिन सोचिये आखिर 23 मई के बाद जनता को क्या मिलने वाला है। और जनता अगर 11 अप्रैल से 19 मई क बीच वाकई जाग गई और खुद ही जनतंत्र का राह तय करने निकलने लगी तो फिर 23 मई को लोकतंत्र को बंधक बनाये चेहरो का नहीं जनता का जश्न होगा। पर भरोसा तो टूट चुका है। तो फिर मान लिजिये ये सपने में लिका गया आलेख है । और अब सपना टूट गया।

लेखक देश के जाने माने पत्रकार और विश्लेषक है

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