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पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम (@PChidambaram_IN)
दूसरी नजर: कहीं नजर आती है उम्मीद की किरण?
कुछ लोग गजब के दूरद्रष्टा होते हैं। कुछ ज्यादा दूरदृष्टि वाले हैं जो मनीषी कहलाते हैं और साधारण मनुष्य ऐसा हो नहीं सकता। कुछ और ज्यादा बेहतर दूरदृष्टि वाले हैं जो संत कहलाते हैं और वे ऐसी भविष्यवाणियां कर सकते हैं जो औसत मनुष्य की समझ से बाहर की बात है। जो कुछ मेरे चारों ओर है, उसके बारे में मैं बताता हूं और आप इसकी तुलना इससे कर सकते हैं जो आपके चारों ओर है। चेन्नई जैसे बड़े शहर में सब कुछ खुला हुआ है, और फिर अचानक से सब कुछ बंद कर दिया जाता है। यह पूर्णबंदी होने और खुलने के बीच एक उलझन में डाल देने वाली स्थिति है। कोई नहीं जानता कि कब क्या खुलेगा और क्या बंद हो जाएगा।
अमीर और उच्च मध्यवर्ग के लोग घरों में ही है, और वे अपनी संपत्ति या बचत पर निर्भर हो गए हैं और प्रार्थना कर रहे हैं कि कैसे भी करके यह दुस्वप्न निकल जाए… पर कोई नहीं जानता कब तक। निम्न मध्यवर्ग की हालत आंख-मिचौनी जैसी हो गई है, वह काम पर तभी निकल रहा है जब बहुत ही जरूरी हो और जल्दी ही घर लौट आता है। यह खौफ का सबसे बड़ा भाव है।
ये गरीब ही हैं, विशेषरूप से दुकानदार, आटो या टैक्सी ड्राइवर, बढ़ई, प्लंबर या बिजली मिस्त्री जो मजबूरी में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, काम की तलाश में बाहर निकल रहे हैं और शाम को जो कमा कर लौट रहे हैं, वह सामान्य तौर पर होने वाली कमाई से आधा ही है। यह हताशा का सबसे बड़ा भाव है।
बेहद गरीब लोग तो तबाह हो चुके हैं। वे काम की तलाश में दूसरी जगह गए थे, और अब वापस अपने गांवों को लौट चुके हैं और दो चीजें हैं जिनकी वजह से वे जिंदा हैं, एक तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना (कई राज्यों ने इसे मुफ्त कर दिया है) के तहत मिल रहे राशन से और दूसरा मनरेगा के तहत काम। ये दोनों ही योजनाएं यूपीए ने शुरू की थीं। हालांकि कई लोग अभी भी गैरसरकारी संगठनों के दान पर निर्भर हैं। इसमें सबसे बड़ा भाव सरकार के प्रति नाराजगी और किस्मत के भरोसे छोड़ दिए जाने का है।
छोटे शहरों में सब कुछ खुला है- बाजार, दुकानें और सेवा प्रदाता। सब्जी, फल, मांस-मछली के बाजार को छोड़ दें तो जूते, कपड़े, नाई की दुकान आदि पर कुछ ही ग्राहक नजर आएंगे।
कृषि क्षेत्र दुरुस्त
ग्रामीण भारत पूरी तरह से खुला हुआ है। बहुत ही कम लोग मास्क पहनते हैं। बड़े पैमाने पर बढ़िया फसल हुई है, रबी की फसल अच्छी रही, बुआई का मौसम शुरू हो चुका है, और सबके चेहरे खिले हुए हैं। लोग जरूरी सामान खरीद रहे हैं, लेकिन इससे ज्यादा नहीं। डिब्बाबंद खाने का सामान और पोषक खाद्य पदार्थ ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। अमीर किसान ट्रैक्टर और दूसरे कृषि उपकरण खरीद रहे हैं। दुपहिया और छोटी कारों (दूसरी कारें नहीं) की बिक्री में तेजी आई है। व्यावसायिक वाहनों की मांग भी निकली है, लेकिन पेट्रोल और डीजल के लगातार बढ़ते दामों ने इसे कम कर दिया है।
आपूर्ति शृंखला भी बहाल होने लगी है, हालांकि इसमें भी जीएसटी जैसी समस्याएं हैं। 2020-21 में कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन काफी अच्छा रहेगा। अच्छा रहने से मतलब चार फीसद वृद्धि होगी, जो कुल जीडीपी वृद्धि में 0.64 फीसद का योगदान देगी।
लेकिन और जगह अंधकार
बाकी सब निराशा और अनिश्चितता है। एमएसएमई का मानना है कि सरकार ने उसे छोड़ दिया है। वित्त मंत्री ने पैंतालीस लाख (दस करोड़ में से) एमएसएमई के लिए क्रेडिट गारंटी के रूप में तीन लाख करोड़ रुपए का वादा किया है। अगर एनपीए स्तर दस फीसद माना जाए तो यह तीस लाख करोड़ की उधारी तक बैठता है। अब तक सिर्फ सत्तर हजार करोड़ रुपए ही स्वीकृत किए गए हैं, जिसमें से सिर्फ पैंतीस हजार करोड़ जारी हुए हैं। लाखों एमएसएमई बंद हो चुके हैं और लाखों रोजगार चले गए हैं, हो सकता है हमेशा के लिए।
यात्रा, पर्यटन, एअरलाइन, बस परिवहन, मेजबानी, होटल उद्योग, उपभोक्ता वस्तुएं, निर्माण, निर्यात आदि सबकी हालत खराब है। इनमें से कइयों को तो करोड़ों रुपए का नुकसान हो जाएगा और कई दिवालिया हो जाएंगे। इन उद्योगों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े लाखों रोजगार खत्म हो जाएंगे। कई कंपनियों ने तो कर्ज में कमी का एलान कर दिया है और अपने पूंजीगत खर्च में एकदम से कटौती कर दी है।
मांग में अभी भी कमी बनी हुई है और इसका असर विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों पर बुरी तरह से पड़ रहा है। लोग नगदी की जमाखोरी कर रहे हैं। साल दर साल प्रचलन में नगदी चौदह फीसद बढ़ रही है। इसके दो कारण हैं। एक, कोविड संक्रमण और अस्पताल खर्च का खौफ और दूसरा चीन की ओर से मंडराता खतरा। और बयालीस साल में पहली बार ऐसा होगा जब कोविड और चीन दोनों ही भारत को 2020-21 में मंदी में धकेल देंगे। भारत की वृद्धि दर शून्य से नीचे पांच फीसद तक जा सकती है।
मंदी का मतलब होगा और ज्यादा बेरोजगारी (ग्रामीण, ज्यादातर हाथ के काम को छोड़ कर) और आय और मजदूरी में गिरावट। प्रति व्यक्ति आय में दस से बारह फीसद गिरावट की आशंका है। गरीबी रेखा के हाशिए पर पड़े लोग ( बिल्कुल नीचे के तीस फीसद से ठीक ऊपर वाले) गरीबी में चले जाएंगे।
अभी भी गिरावट
वित्त मंत्रालय गेहूं उत्पादन (382 लाख मीटरिक टन), खरीफ की बुआई (एक करोड़ इकतीस लाख हेक्टेयर), उर्वरक बिक्री और विदेशी मुद्रा भंडार (507 अरब अमेरिकी डॉलर) जैसी बातों पर उम्मीद भरी नजरें लगाए हुए है। बाकी आंकड़े विनिर्माण और सेवाओं में संकुचन की स्थिति प्रदर्शित कर रहे हैं, हालांकि यह मान लिया गया है कि साल दर साल वृद्धि ऋणात्मक है।
साल दर साल विनिर्माण में 27.4 फीसद और सेवाओं में 5.4 फीसद, बिजली की खपत 12.5 फीसद, पेट्रोलियम पदार्थों की खपत 27.4 फीसद और कोयले की खपत में चार फीसद की गिरावट आई है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या में नौकरियां खत्म हो गई हैं।
कुल मिला कर अकेले वित्त मंत्रालय ने ही हालात पर पूरी तरह से सुधार की भनिष्यवाणी की है। 2020-21 में पांच फीसद नीचे और 2021-22 में पांच फीसद ऊपर सुधार दिख सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। यह सिर्फ तभी संभव हो पाएगा, जब कुल जीडीपी का हासिल 2019-20 की कुल प्राप्ति से ज्यादा हो, और यह 2022-23 तक होगा नहीं। यदि वित्त मंत्रालय इतना ज्यादा उम्मीदों से भरा है तो वह 2020-21 में सकारात्मक वृद्धि की भविष्यवाणी क्यों नहीं करता ? क्या वित्त मंत्रालय में इतना साहस नहीं है!
[इंडियन एक्सप्रेस में 'अक्रॉस दि आइल' नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह 'दूसरी नजर' नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।]