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डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जहां तक राष्ट्रीय मीडिया की लोकप्रियता का सवाल है, यह कहना कठिन है कि उसके प्रति आम लोगों का प्रेम या आदर बढ़ा है लेकिन उसके दर्शकों और पाठकों की संख्या तो काफी बढ़ी ही है। जब आज से लगभग 45 साल पहले मैं नवभारत टाइम्स में काम करता था तो देश के इस सबसे बड़े अखबार की 4—5 लाख प्रतियां छपती थीं लेकिन अब तो हिंदी और अन्य भाषाओं के कई अखबारों की प्रसार—संख्या कई—कई लाखों में हैं और उनके पाठकों की संख्या करोड़ों में है। पहले किसी अखबार के दो—तीन संस्करण निकलते थे तो उन्हें बड़ा अखबार माना जाता था लेकिन अब कुछ अखबार ऐसे हैं, जिनके दर्जनों संस्करण छपते हैं।
यही स्थिति टीवी चैनलों की है। शुरू-शुरू में चार-पांच न्यूज़ चैनल ही दिखाई पड़ते थे, लेकिन आज विभिन्न भाषाओं में देश में सैकड़ों चैनल कार्यरत हैं। अब उनके दर्शकों की संख्या भी लाखों नहीं, करोड़ों में है। कई सर्वेक्षणों से पता चलता है कि दर्शकगण अब टीवी पर प्रतिदिन अपने कई घंटे रोज खपा देते हैं। अखबारों के मुकाबले टीवी चैनलों को देखना दर्शकों के लिए सुलभ और सस्ता होता है।
इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि अखबारों और चैनलों की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता में कोई वृद्धि हुई है। जहां तक टीवी चैनलों का सवाल है, उनमें से दो-तीन चैनलों पर ही प्रामाणिक और गंभीर बहस होती है। वरना ज्यादातर चैनल तो हर मुद्दे पर पार्टी प्रवक्ताओं और पूर्वाग्रहग्रस्त पत्रकारों का दंगल ही दिखाते रहते हैं। वे एक—दूसरे पर जमकर कीचड़ उछालते हैं, आरोप लगाते हैं, अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं। टीवी चैनलों के मालिकों को टी.आर.पी. की तलाश रहती है ताकि वे विज्ञापनों का जुगाड़ बिठा सकें। अपने मालिकों को संतुष्ट करने के लिए बेचारे एंकरों को भी मजबूरी में गाल बजाने पड़ते हैं।
अब से लगभग 55 साल पहले जब मैं न्यूयार्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी में पढ़ता था तब वहां अमेरिकी लोग टीवी को बुद्धू—बक्शा कह करते थे। याने यह बुद्धुओं का, बुद्धुओं के लिए चलाया गया बक्सा है। टीवी चैनलों को 'इडियट बॉक्स' कहना शुद्ध अतिरंजना है लेकिन हमारे चैनलों में प्रामाणिकता, निष्पक्षता और गंभीरता के समावेश की बहुत आवश्यकता है।
जहां तक भरोसे का सवाल है, आजकल यह बताना कठिन नहीं रह गया है कि कौनसा अखबार किस मुद्दे पर कैसी राय जाहिर करेगा। उसके संपादकीयों और लेखों का झुकाव किधर होगा, यह पाठकों को पहले से पता होता है। फिर भी पाठकगण अखबारों को पढ़े बिना नहीं रहते लेकिन उन्हें परोसे गए चनों को वे काफी चबाकर ही निगलते हैं। अखबारों की खूबी यह है कि उनमें पाठकों के आस-पास की खूब खबरें भी रहती हैं और पढ़ी हुई खबरों को उलट-पुलटकर देखने की भी सुविधा भी उन्हें होती है। वे सुनी हुई और पढ़ी हुई खबरों को मिलाकर उनकी सच्चाई भी जांच सकते हैं। टीवी चैनलों और अखबारों में सबसे बड़ा फर्क वही है, जो बोलने और लिखने में होता है। बोला हुआ शब्द वापस नहीं हो सकता लेकिन लिखा हुआ तो काटा भी जा सकता है। इसीलिए टीवी चैनलों के मुकाबले अखबारों की खबरें और लेखों पर पाठक ज्यादा भरोसा करते हैं।
खबरों की सच्चाई जांचने की तीव्र इच्छा ने ही आजकल सामाजिक मीडिया को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। आजकल लोग अपने मोबाइल फोन, कंप्यूटर, फेसबुक, व्हाट्साप, ट्विटर आदि पर घंटों रोज खर्च करते हैं। उन्हें टीवी और अखबारों से ज्यादा मज़ा इन माध्यमों के इस्तेमाल में आता है, क्योंकि इनके जरिए वह अपनी खुशी, क्रोध, दुख, निराशा, हताशा— सब कुछ मुक्त रूप से व्यक्त कर सकते हैं। टीवी चैनलों पर तो श्रोता अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर ही नहीं सकते। हाँ, अखबारों में 'संपादक के नाम पत्र' जरुर लिख सकते हैं लेकिन आजकल ज्यादार अखबारों ने यह स्तंभ बंद कर दिया है और जो इसे छापते हैं, वे भी गिनती के कुछ पत्र ही छापते हैं लेकिन सामाजिक मीडिया में तो आप जो चाहें, सो लिखें। वह व्हाट्साप और फेसबुक आदि माध्यमों से करोड़ों लोग तो कुछ ही क्षणों में पहुंच जाता है।
इस सुविधा का इस्तेमाल कौन नहीं करना चाहेगा? यह ऐसी मुफ्त और मुक्त सुविधा है, जो पारंपरिक मीडिया से भी ज्यादा लोकप्रिय होती जा रही है। यह जितनी सुलभ है, उतनी ही खतरनाक भी है। इसका इस्तेमाल भयंकर झूठ फैलाने, विभ्रम पैदा करने और हिंसा आदि को उकसाने के लिए अक्सर कर लिया जाता है। अब इस पर लगाम लगाने की आवाजें भी उठ रही हैं। सरकारें तो समय-समय पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोपती ही हैं लेकिन जो कंपनियां इन्हें संचालित करती हैं, वे भी आजकल काफी सतर्क हो गई हैं।
अखबारों और टीवी चैनलों को तो तत्काल काबू करना आसान है लेकिन सामाजिक मीडिया तो समुद्र की लहरों की तरह है। उसे काबू करना आसान नहीं है। बस, एक ही तरीका है कि उसका इस्तेमाल करनेवाले स्वयं पर काबू रखें और उसमें चल रही खबरों और बातों को अच्छी तरह चबाए बिना नहीं निगलें।