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आरक्षण अर्थात घर में नही है खाने को, अम्मा चली ?

Shiv Kumar Mishra
25 Aug 2021 4:04 AM GMT
आरक्षण अर्थात घर में नही है खाने को, अम्मा चली ?
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स्मरण रहे कि सुप्रिम कोर्ट ने इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में बीपी मंडल द्वारा पेश 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफ़ारिश को मान लिया था।

मुशर्रफ़ अली

क्या आपने कोई ऐसी दावत देखी है जिसमें जिन लोगों को निमंत्रण पत्र दिया गया हो उनके लिए खाना मौजूद ही नही है अर्थात खाना बनाया ही नही गया है या इतना कम बनाया गया है जिससे उस दावत में निमंत्रित लोगों को खिलाया नही जा सकता। यहां विडंबना यह है कि दावत खाने के ख्वाहिशमंद केवल निमंत्रण पत्र पाने की कोशिश या मारामारी में लगे हैं उन्हें इस बात का अंदाज़ और चिंता ही नही है कि वह पता करें कि जिस दावत का उनको निमंत्रणपत्र दिया गया है उसमें भोजन का प्रबंध है भी या नही ? 90 के दशक में सूचनाप्रोद्योगिकी के विकास ने पैकेज वाली नौकरी का बड़ा क्षेत्र खोल दिया लेकिन वैश्विक मंदी ने इस क्षेत्र में रोज़गार ढंूढने वालों की आशाओं पर जब पानी फेर दिया तब उन्होने सरकारी क्षेत्र का रुख़ किया जिसके नतीजे में सभी जातियां आरक्षण पाने की दौड़ में लग गयीं। सरकार क्योंकि विश्व बैंक-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के ढांचागत समायोजन कार्यक्रम के क्रियांवन या उनसे कर्ज़ लेने पर लादी गई शर्तों के अनुपालन में लगी हुई है जिसके तहत सरकारी क्षेत्र के आकार और उसके रोज़गार में कटौती की जाती है इसलिए उसने यह जानते हुये भी कि इस सरकारी क्षेत्र में रोज़गार पाने के अवसर ही नही बचे या बचने है सबको खुश करने के लिए नौकरी का निमंत्रणपत्र बांटना शुरु कर दिया। वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग को खुश करने के लिए किया जाने वाला संशोधन इसी तरह का चुनावी प्रयास है।

127 वां संविधान संशोधन विधेयक, राज्यों को सामाजिक एंव शैक्षिक रुप से अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का अधिकार देता है। हुआ यह कि 5 मई 21 को सुप्रिम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को यह कहकर दरकिनार कर दिया कि इसका आधार गलत है क्योंकि यह 50 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन करता है जो 1992 के मंडल कमीशन के निर्णय का उल्लंघन है। स्मरण रहे कि सुप्रिम कोर्ट ने इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में बीपी मंडल द्वारा पेश 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफ़ारिश को मान लिया था।

2018 में 102 वां संविधान संशोधन अधिनियम आया जिसके तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि सरकार उनकी स्वीकृति से शैक्षिक व सामाजिक रुप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण दे सकती है। इसी के तहत सवर्णो को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इस विधेयक के द्वारा राज्य की आरक्षण देने की शक्तियों को समाप्त कर दिया गया। सरकार ने नये तरीके से इसी की व्याख्या 127 वें संशोधन से की है। 102 में तीन अनुच्छेद जोड़े गये 338बी, 342ए, 366 में 26 सी। 127 की उक्त अनुच्छेदों में कहा गया कि राज्य की शक्ति को समाप्त नही किया गया वह बरकरार हैं। 102 में अनुच्छेद 338 बी में 9 वीं धारा में कहा गया कि केन्द्र अथवा राज्य सरकार अगर शैक्षिक अथवा सामाजिक रुप से पिछड़े वर्ग के लिए आररक्षण देना चाहती है तो उसे नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास यानि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से परामर्श लेनी होगी।

स्ंाविधान के अनुच्छेद 15-4, 15-5, व 16-4 में राज्यों को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपने यहां सामाजिक व शैक्षिक रुप से पिछड़े लोगों के उन्नयन के लिए काम करें। सरकार का कहना है कि 102 वें संविधान संशोधन से राज्य के अधिकारों में कटौती होती है इसलिए वर्तमान में 127 वें संशोधन में की गई व्याख्या से अब राज्यों को केन्द्र की तरह ही अधिकार मिल गया है कि वह सामाजिक व शैक्षिक रुप से पिछड़े किसी भी वर्ग को बिना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से परामर्श किये आरक्षण दे सकते हैं बशर्ते वह 27 प्रतिशत की सीमा को पार न करे। इस नये विधेयक में की गई व्याख्या का खराब प्रभाव यह पड़ेगा कि राज्य सरकारें, अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में अन्य जातियों को शामिल कर लेंगी और इस तरह से जो पहले से मौजूद जातियां हैं उनके हिस्से में कटौती हो जायेगी। सरकार के इस कदम से जातियों में आपसी वैमन्यस्यता बढ़ेगी।

अब हम इस नये संशोधन के अमल पर बात करते हैं। आपको मालूम ही है कि आरक्षण चाहे नौकरियों में हो या शिक्षा के क्षेत्र में वह केवल सरकारी क्षेत्र में ही लागू किया जा सकता है। शिक्षा और रोज़गार दोनो क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र, सरकार की नीतियों के कारण लगातार सिकुड़ता जा रहा है इसलिए आरक्षित स्थानों की उपलब्धता न होने या बहुत ही कम होने से अन्य पिछड़ा वर्ग में मौजूद और नई शामिल जातियों में स्थानों को पाने की मारा-मारी काफ़ी बढ़ जायेगी। सरकार नये सरकारी संस्थान खोलने के स्थान पर मौजूद शिक्षा संस्थानों का निजीकरण बहुत ही तेज़ी से कर रही है इससे हालत और भी बद से बदतर होते जा रहे हैं। अब हम रोज़गार के क्षेत्र की बात करें तो इस क्षेत्र में तो स्थिति और भी बदतर है। सरकार रोज़ाना किसी न किसी सरकारी उद्योग अथवा सार्वजनिक उपक्रम के निजीकरण की घोषणा कर रही हैं। बैंक और बीमा सभी क्षेत्र उसके निशाने पर है। अभी अभी वित्तमंत्री श्रीमति निर्मला सीतारमन ने रेलवे सुरक्षा बल को समाप्त करने की घोषणा की है। यह बिबेक देवराय कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू करने की दिशा में उठाया गया कदम है। मोदी सरकार ने रेलवे में सुधार(निजीकरण) के लिए 22 सितम्बर 2014 को बिबेक देबराय की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जिसने जून 2015 में अपनी रिपोर्ट दी जिसमें बताया गया है कि 2014-15 से 2017-18 तक चार साल की अवधि में 2 लाख 27 हज़ार 136 रेलवे कर्मचारी सेवानिवृत्त हो जायेंगे। इस तरह रेल कर्मचारियों की तादाद घटकर लगभग 11 लाख रह जाएगी। इसके विपरीत 1990-91 की तुलना में सवारी व माल ढुलाई उत्पादकता में चार गुने की वृद्धि हुई है। कार्यभार की तुलना में स्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़नी चाहिए लेकिन मनमोहन सिंह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक सभी सरकारें तेज़ गति से स्थाई पदों की समाप्ती कर रही हैं। बिबेक देवराय कमेटी ने जो सिफ़ारिशें की हैं उसमें रेलवे सुरक्षा बल व रेलवे विशेष सुरक्षा बल को समाप्त करने, रेलवे द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल व अस्पताल बंद करने की सिफ़ारिश की है। स्मरण रहे कि रेलवे में सुरक्षा के कार्य पर लगे कर्मचारियों की तादाद 57312 है। रेलवे, 125 अस्पताल, 586 स्वास्थ्य इकाईयां चलाता है जिनमे 14000 मरीज़ों के लिए बिस्तर की व्यवस्था है। इन स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए 2597 डाक्टर व 54000 पैरा मेडिकल स्टॉफ़ लगे हुए हैं। इसी तरह रेलवे 168 स्कूल चलाता है। अगर बिबेक देवराय कमेटी की सिफ़ारिशों को मान लिया जाए तो डेढ़ लाख के लगभग और स्थाई नौकरियां समाप्त हो जाएंगीं। (उपरोक्त सभी आँकड़े रेल मंत्रालय की वैबसाईट, जनरल ऑफ़ एकोनोमिक्स फ़ाईनेंस इन इन्डियन रेलवे वाल्यूम 3 इशू 5 मई-जून 2014, मिन्ट व टाईम्स ऑफ़ इन्डिया से लिए गए हैं)

'मिनिस्ट्री ऑफ़ लेबर एण्ड इम्प्लाईमेंट तथा डायरेक्टर जनरल ऑफ़ ईम्प्लाईमेंट एण्ड ट्रेनिंग' की वैबसाईट पर पड़े आँकड़े जो 1995 से लेकर 31 मार्च 2011 तक के हैं बताते हैं कि देश में 1995 में सभी केन्द्रीय, राज्य, अर्द्धशासकीय व स्थानीय निकाय के कुल कर्मचारियों की संख्या 1 करोड़ 94 लाख 66 हज़ार थी। 31 मार्च 2011 तक यह संख्या घटकर 1 करोड़ 75 लाख 48 हज़ार रह गई। इसका मतलब हुआ कि 20 साल में 19 लाख 18 हज़ार कर्मचारियों की संख्या कम हो गई या इतने स्थाई रोज़गार के अवसर समाप्त कर दिए गए। इस तरह हर साल लगभग एक लाख स्थाई पद समाप्त किए जा रहे है। सबसे ज़्यादा नौकरियां केन्द्र सरकार की कम की गई हैं। 1995 में कुल केन्द्रीय कर्मचारियों की तादाद 33 लाख 95 हज़ार थी जो 31 मार्च 2011 तक घटकर 24 लाख 63 हज़ार रह गई। यानि 20 साल में 9 लाख 32 हज़ार नौकरियां समाप्त कर दी गईं। जबकि सरकारी क्षेत्र में काम लगातार बढ़ा है लेकिन बढ़े हुए काम का भार शेष कर्मचारियों पर डाल दिया गया।

स्थाई नौकरी समाप्त करने का 1991 के बाद से बाकायदा अभियान चलाया जा रहा है। योगी सरकार ने तो दिनांक 18 सितम्बर 2018 को बाकायदा नौकरी समाप्ती का आदेश जारी किया है जिसमें कहा गया है कि कम्प्यूटर लगने से जो पद फ़ाल्तू हो गए हैं उनको चिन्हित करके समाप्त किया जाए। इस अभियान के तहत ही हर विभाग में पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप(पी.पी.पी.) मॉडल अपनाया जा रहा है और इसतरह कुल सरकारी कर्मचारियों में 43 प्रतिशत अस्थाई यानि ठेके पर काम कर रहे है जिन्हें पेंशन-फण्ड तथा अन्य स्थाई कर्मचारी की सुविधा मयस्सर नही है। स्थिति इतनी ख़राब है कि पहले से आरक्षित जातियों को उनके आरक्षण के अनुपात में रोज़गार नही मिल पा रहा हैं। इन्डियन एक्सप्रेस की 14 जुलाई 2015 की रिपोर्ट बताती है कि 2011 की सामाजिक आर्थिक जनगणना से पता चला है कि अनुसूचित जाति-जनजाति के कुल परिवारों में से 4 प्रतिशत परिवार में से प्रति परिवार का एक सदस्य ही सरकारी नौकरी में है। 96 प्रतिशत आरक्षित जातियों के परिवारों में से एक भी सदस्य सरकारी नौकरियों में नही है। इसी तरह मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू हुए 20 साल बीत चुके हैं लेकिन ओबीसी का 27 प्रतिशत आरक्षण होते हुए भी उनमें केवल 12 प्रतिशत ही नौकरी पा सके हैं। आरक्षण के लिए भारत में अनेक जातियां आन्दोलन करती रही है। जाटों, पाटीदारों, गुर्जरों, मराठों द्वारा किया जाने वाला आन्दोलन सरकारी नौकरियों के स्थाई पद पाने के लिए है। यह आन्दोलन निजी क्षेत्र की नौकरियों के लिए नही है। आन्दोलन तो अपनी समस्याओं के समाधान के लिए होना भी चाहिए लेकिन उसकी दिशा सही होनी चाहिए। नौकरियों के लिए आरक्षण पाने के वास्ते किए जाने वाले आन्दोलनों की दिशा ग़लत रहती है। वास्तव में आन्दोलन उस चीज़ के लिए होना चाहिए जो मौजूद हो। जो चीज़ मौजूद ही नही है या जो भी बाक़ी है जब सरकारे उसे समाप्त करने में लगी हुई हैं तो आन्दोलन उसे बचाने, उसमें वृद्धि करने के लिए होना चाहिए। इस तरह के आन्दोलन तो शून्य के बटवारे के लिए होते है। विडम्बना यह है कि गैर-आरक्षित जातियों में यह प्रचार है कि उन्हें रोज़गार आरक्षण के कारण नही मिल पा रहा और आरक्षित जातियां, आरक्षण के अनुरुप पदो को न भरे जाने यानि बैकलॉग न भरे जाने के लिए उच्च पदों पर मौजूद गैर आरक्षित जातियों को ज़िम्मेदार मान रही है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। 1991 के बाद आने वाली सभी सरकारें स्थाई नौकरियों को समाप्त करने में लगी रही है। आज मोदी सरकार जिस तेज़ गति से सरकारी क्षेत्र को ध्वस्त करने में लगी हुई है, उसका निजीकरण कर रही है अगर उसे आन्दोलन के द्वारा रोका नही गया तो आरक्षण के लिए चाहे कितने भी कानून सरकार बना ले और चाहे कितनी भी और जातीयों को आरक्षण में शामिल करले उससे कुछ होने वाला नही है। सरकारी क्षेत्र के निजीकरण के कारण सरकार के पास बांटने के लिए जब कुछ बचेगा ही नही और तब आरक्षण निरर्थक ही हो जायेगा।

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