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Veer Savarkar: खंडित आजादी के खिलाफ थे सावरकर

Shiv Kumar Mishra
28 May 2022 10:48 AM IST
Veer Savarkar: खंडित आजादी के खिलाफ थे सावरकर
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वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना किया।

अरविंद जयतिलक

वीर सावरकर जीवन भर अखंड भारत के पक्ष में रहे। 13 दिसंबर 1937 को नागपुर की एक जनसभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिए चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी और 15 अगस्त 1947 को भारतीय तिरंगा का ध्वजारोहण करते हुए कहा कि मुझे स्वराज प्राप्ति की खुशी है, किंतु वह खंडित है, इसका दुख है। उन्होंने कहा कि राज्य की सीमाएं, नदी तथा पहाड़ों या संधिपत्रों से निर्धारित नहीं होती, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती है। वीर सावरकर ऐसे प्रथम राजनीतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी भूमि (फ्रांस) पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुंचा। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के कठोर कारावास में जेल की दीवरों पर कील और कोयले से राष्ट्रवादी कविताएं लिखी।

ब्रिटिश सरकार ने वीर सावरकर को क्रांति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। वे विश्व के पहले ऐसे लेखक थे जिनकी कृति 'द इंडियन वाॅर आफॅ इंडिपेंडेस-1857' दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया। गौरतलब है कि जून 1908 में उनकी पुस्तक तैयार हो गयी किंतु मुद्रण की समस्या आ गयी। इसके लिए लंदन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किए किंतु सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रुप से हालैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंचायी गयी। सावरकर पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण ब्रिटिश हुकूमत ने वापस ले लिया। वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना किया।

नतीजा उनके वकालत करने पर रोक लगा दी गयी। वीर सावरकर ने राष्ट्रध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सर्वप्रथम सुझाव दिया जिसे डा0 राजेंद्र प्रसाद ने स्वीकार किया। उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। 10 मई, 1907 को उन्होंने इंडिया हाउस लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर उन्होंने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातंत्रय का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। वीर सावरकर भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए संदेश था। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता समान थी। लंदन में रहते हुए उनकी मुलाकात क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इंडिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढ़ीगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिए जाने के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में एक लेख भी लिखा जो क्रांतिकारिता से परिपूर्ण था।

13 मई 1910 को पेरिस से लंदन पहुंचने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया परंतु 8 जुलाई 1910 को एसएस मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते समय सीवर होल के रास्ते निकल लिए। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। 1921 में मुक्त होने पर वह स्वदेश लौटे और फिर तीन साल जेल काटी। जेल में ही उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रंथ लिखा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के कर्णावती में हुए 19 वें सत्र के अध्यक्ष चुने गए। 15 अप्रैल 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। 22 जून 1941 को उनकी मुलाकात सुभाषचंद्र बोस से हुई। 9 अक्टुबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेजकर सूचित किया। दुर्भाग्य पूर्ण की आजादी के बाद भी कांग्रेस उनसे नफरत करती रही और नेहरु सरकार ने 5 फरवरी 1948 को उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया।

4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के भारत आगमन की पूर्व संध्या पर भी बेलगाम की जेल में उन्हें रोककर रखा गया। जुझारु तेवर और मातृभूमि के प्रति असीम श्रद्धा के कारण ही उन्हें वीर सावरकर कहा गया। नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षड़यंत्र कांड के अंतरर्गत उन्हें 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों तथा नारियल आदि का तेल निकालना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटायी की जाती थी। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था। वे 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे और भारत माता की आजादी का सपना देखते रहे। कुल मिलाकर वीर सावरकर 5585 दिन प्रत्यक्ष कारागार में और 4865 दिन नजरबंदी में रहे। दोनों को जोड़ दें तो वे 10410 दिन यानी 28 वर्ष 200 दिन तक जेल में रहे। वीर सावरकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान खिलाफत आंदोलन का विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नामक विष वृक्ष की नींव पड़ी। आइए हम बताते हैं कि कांग्रेस समेत तथाकथित सेक्यूलर वीर सावरकर और उनकी विचारधारा का विरोध क्यों करते हैं। दरअसल सावरकर ने 1946 के अंतरिम चुनावों के दौरान देश के जनमानस को आगाह किया कि वह कांग्रेस को वोट न दे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है भारत विभाजन। सावरकर सच साबित हुए। कांग्रेस का सावरकर से नफरत का एक अन्य कारण यह भी है कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र की उस विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम किया जो सदियों से वसुधैव कुटुम्बकम की हिमायती है। कांग्रेस को इस बात से भी चिढ़ है कि वीर सावरकर ने हिंदू राष्ट्र के विजय के इतिहास को प्रमाणिक ढंग से लिपिबद्ध क्यों किया?

याद होगा तीन वर्ष पूर्व 2019 में जब महाराष्ट्र चुनाव के लिए भाजपा के संकल्प पत्र में स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का वादा किया गय तब कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह समेत कई लोगों ने सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या का साजिशकर्ता करार दिया। देखें तो यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस द्वारा सावरकर की राष्ट्रभक्ति पर सवाल दागकर उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया गया। याद होगा कि गत वर्ष पहले सावरकर के शहीदी दिवस के दिन कांग्रेस पार्टी ने ट्वीट के जरिए जारी एक तस्वीर में स्वंतत्रता सेनानी वीर सावरकर को गद्दार बताकर उनकी राष्ट्रभक्ति का अपमान किया। तब कांग्रेस ने जारी तस्वीर के हवाले उन्हें गद्दार बताते हुए 1913 में अंडमान स्थित सेल्यूलर जेल से उनकी एक तथाकथित चिठ्ठी का भी जिक्र किया था जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार से रिहाई की मांग की थी।

बेहतर होता कि कांग्रेस वीर सावरकर की शहादत को लांक्षित करने के बजाए उनका इतिहासपरक मूल्यांकन करती। कांग्रेस का ऐसा अपमानजनक आचरण तब है जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा वीर सावरकर के सम्मान में डाक टिकट जारी किया जा चुका है। उचित होगा कि कांग्रेस वामपंथी इतिहासकारों की सांप्रदायिक लेखनी और जुगाली पर भरोसा के बजाए 'द इंडियन वाॅर आफॅ इंडिपेंडेस-1857' जो कि खुद सावरकर द्वारा लिखित है, से उनके विचारों और खोजपूर्ण इतिहास का अध्ययन करती। कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि जिस 1857 की क्रांति को वह सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह करार दी और अधिकांश वामपंथी इतिहासकारों ने उसे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह माना उस क्रांति को वीर सावरकर ने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहा।

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